कौटिल्य के पदचिन्हों में
बयालीस वर्ष पूर्व बरसात के मौसम में मैं शिमला कि मॉल रोड में एक ऐसे स्थान पर खड़ा था जहाँ से वर्षा का आधा जल तो जा रहा था अरब सागर में तथा बाकी आधा बंगाल कि खाड़ी में. शिमला कि रिज सिधु एवं गंगा नदियों के बीच एक दीवार कि भांति है. इसको समझने के लिए एक प्लास्टिक कि चादर पर कुछ पानी डालें फिर पानी वाले भाग को अचानक उठा लें. आप देखेंगे कि इस प्रकार बने ढलान में कुछ जल एक तरफ तो बाकी दूसरी तरफ स्वतः बहने लगता है. जिस प्रकार प्लास्टिक कि चादर ऊपर उठने से एक ‘वाटर डिवाईड’ बन गया था उसी प्रकार २० लाख वर्ष पूर्व जब महाद्वीप टकराए और हिमालय का जन्म हुआ तब अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी के बीच शिमला में ‘वाटर डिवाईड’ बन गया.
शिमला रिज ने एक प्रकार से देश की भविष्य कि संस्कृति, राजनीती एवं इतिहास को प्रभावित किया. इस ‘डिवाईड’ की ढलान पर अनेक नालों, नदियों का जन्म हुआ हरेक की अपनी द्रोणी (कैचमेंट) बनी. इस घटना के पूर्व तो ऐसा नही था-तब तो दक्षिण से चम्बल व उसकी सहयोगी नदियाँ उत्तर की ओर हिमालय (जब नही जन्मे थे) के दक्षिण में बन चुकी खाई में जा गिरती थी. पर जब ढलान ही बदल गए तो चम्बल के लिए एक ही रास्ता बचा-वह था अपना रुख बदल लेना-वह दक्षिण की ओर बहने लगी. इस उदाहरण का मकसद था यह बताना की आज जो नदियाँ हम देख रहे हैं जरूरी नही की सदैव वो ऐसे ही बहती रहें. प्रकृति में कुछ भी हो सकता है. प्राकृतिक ताकते नदी की धरा बदल सकती हैं, नदी का अस्तित्व तक समाप्त कर सकती हैं. एक सदानीरा नदी को भुतही नदी में बदल सकती हैं. नदियों को प्रकृत के बाद यदि खतरा है तो वः है इंसान से. अपने मतलब के लिए वः कुछ भी कर सकता है-धारा बदलना, रोकना आदि तो मामूली बात है.
सिंधु की द्रोणी में काफी भाग राजस्थान एवं गुजरात का भी है-इस भाग में पानी की कमी हमारे पूर्वजों के वहाँ बसने के पूर्व से रही है. जबकि दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, बिहार व् पश्चिमी बंगाल जैसे राज्य प्रारम्भ से थोडा भाग्यशाली रहे हैं. वहाँ जल की इफरात रही है. इसीलिए वहाँ पर आबादी का घनत्व सर्वाधिक है. पर अफ़सोस शायद प्रकृति को यह मंजूर नही था. जल बाहुल्य क्षेत्र में प्रकृति ने भूजल में संखिया एवं फ्लोराइड का जहर फैला दिया.
भूजल में विष तो फैल चुका था पर सरकार को खबर न थी-बंगाल में कुछ जल की आवश्यकता व् कुछ वोट के चक्कर में दनादन नलकूप लगाये गए. जब तक यह संज्ञान में आया कि नलकूप विषाक्त हो चुके हैं देरी हो चुकी थी-लाखों लोग इस विष कि चपेट में आ चुके हैं. अब यह हालत है कि सारे नलकूप लाल डाक के बम्बे की भांति पुते हुए मुह बाये खड़े हैं-और जल बाहुल्य क्षेत्र शुद्ध पेय जल को तरस रहा है.
भूजल में प्रकृति ने जहर घोल दिया, नदियों को हमने प्रदूषित कर दिया-अब क्या करें? कोलकाता के इंस्टीट्यूट ऑफ वॉटर स्टडीज एंड वेस्टलैंड मैनेजमेंट ने बीरभूम, बांकुड़ा, एवं पुरुलिया जिलों में वर्षा जल संचयन के लिए ४० सयंत्र स्कूलों में ४०००० से ९६००० रूपये कि लागत से लगाये हैं. इस क्षेत्र में भारी वर्षा (वार्षिक औसत १४०० मी मी) होती है तथा अधिकांश जल बह कर नदियों में चला जाता है.
इन स्कूलों कि छतों से एकत्रित पानी फिल्टरों के माध्यम से पी वी सी की टंकियों में एकत्रित किया जाता है. इन टंकियों से जो पानी बह निकलता है उसे सीमेंट की टंकियों में एकत्रित कर लिया जाता है. पी वी से टंकियों वाला पानी पीने के लिए तथा सीमेंट वाली टंकियों का पानी सफाई आदि में प्रयोग किया जाता है.
भूजल से भरपूर इस क्षेत्र के भूजल में संखिया इतनी अधिक मात्र में आ चुका है कि अब तो नलकूपों से सिंचित फसलों एवं यहाँ तक कि माँ के दूध से भी संखिया की मात्रा नुकसानदेह हो चली है. इसके विपरीत देखने में आया कि वर्षाजल में टी डी एस (टोटल डिजोल्वड सौलिड्स) कि मात्रा वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाईजेशन के पेयजल के मानक ३०० से ५०० मी ग्रा प्रति लीटर के मुकाबले मात्र ४० मी ग्रा प्रति लीटर है. यह सर्वविदित है कि वर्षाजल आकाश से आने वाला सबसे शुद्ध जल होता है.
पश्चिमी बंगाल में भूजल कि स्थिति शोचनीय एवं चिंताजनक हो चुकी है-उत्तरी २४ परगना व् दक्षिणी २४ परगना, मिदनापुर (पूर्वी) एवं हावड़ा जिलों में नमकीन हो चुका है जबकि मालदा के ७८ ब्लॉक, मुर्शिदाबाद, नदिया उत्तरी २४ परगना, दक्षिणी २४ परगना, हावड़ा, हूगली एवं बर्दवान जिलों में भूजल में संखिया से लोग बेहाल हैं.
ऐसी स्थिति में वर्षाजल संचयन ही एकमात्र रास्ता बचता है. पर लोग कुछ और सोचते हैं-वो सोचते हैं कि जब भूजल बिना एक पाई खर्च किये मुफ्त मिल रहा है तो क्यों वर्षाजल एक्तिर्ट करने में पैसा लगाएं!
वर्षाजल संचयन का महत्व अपने ही देश के कुछ उदाहरणों से आसानी से समझ में आ जायेगा. राजस्थान के अलवर जिले में ६० के दशक में कार्य करते समय एक सूखे नाले में पानी की तलाश करते समय नक्शे में उसका नाम देखा अरवरी. बियाबान क्षेत्र से बहती अरवरी के तटों पर वृक्ष तो क्या घास का तिनका तक नहीं उगा था. उस क्षेत्र कि महिलाएं मीलों चल कर नित्य पेयजल अपने सर पर ढो कर लाती थी. वहाँ के निवासी बताते थे कि १९३० तक यह क्षेत्र वनाच्छादित था जिसके मध्य से अरवरी सदानीरा बहा करती थी. तभी अंग्रेजों ने विलायत में रेलों के लिए स्लीपर बनाने के लिए इस क्षेत्र के वन काट डाले. बस तब से ही रूठ गयी अरवरी. वन समाप्त हो गए, नदी सूख गयी लोग अधिकांश पानी और रोज़ी रोटी कि तलाश में पलायन कर गए. उस क्षेत्र में आसानी से कोई लड़की नहीं ब्याहना चाहता था-क्योंकि बेचारी का जीवन तो बस पानी ढोने में चला जाता था. अरवरी वाले भी जब कोई मजबूर लड़की वाहन बहू बन कर आती तो सर्वप्रथम उसकी पानी ढोने कि क्षमता कि परीक्षा लेते.
१९८७ में कुछ नवजवानो को डा राजेन्द्र सिंह ने एकत्रित कर तरुण भारत संघ कि स्थापना की और अरवरी को पुनर्जीवित कर दिया. इस कार्य के लिए इनको मैग्सेसे सम्मान से विभूषित किया गया. १९९६ से अरवरी सदानीरा हो गयी और राजेन्द्र सिंह जी को लोग जल पुरुष के नाम से जानने लगे. इस क्षेत्र से लोग पलायन कर रहे थे वः रुक गया, खेती पुनः प्रारम्भ हो गयी. सबसे अदभुत बात यह है कि अरवरी को जिंदा किया सिर्फ लोगों ने-सरकार ने नहीं. सरकार तो उलटे राजेन्द्र सिंह जी के अनुसार इस कार्य में रोडे डालने में व्यस्त थी.
अरवरी ही नहीं राजस्थान में लोगों ने मिलकर रूपारेल नामक नदी को भी पुनर्जीवित किया. रूपारेल को पुनर्जीवन देने में वहाँ की महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ था. पानी एक ऐसी आवश्यकता है जिसके बिना जीवन तो असम्भव है ही, रोजमर्रा की जिंदगी मे पानी कि कमी महिलाओं कि रसोई भी बंद करा देती है-इसलिए जिस भी क्षेत्र में महिलाएं आगे आई वहाँ कि पानी कि समस्या जनता ने आसानी से हल कर ली.
गुजरात एवं महाराष्ट्र से ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ लोगों ने वर्षा जल संचयन के महत्व को समझ कर अपने क्षेत्र को पुनः हर-भरा कर लिया. इनमे से किसी भी स्थान में सरकार ने न तो एक पैसे कि मदद कि और न ही अपने तकनीकी विशेषज्ञों को लगाया.
इन उदाहरणों का मकसद अब तक आप समझ चुके होंगे. हमारे पहाड़ अब अरवरी के समान हो चले हैं. जंगल कट चुके हैं या काट दिए गए हैं. मौसम नित्य अपना रूप बदल रहा है. ऐसे में यह आशा रखना कि कोई पार्टी आयेगी जो जनता को मुफ्त में पानी देगी दिवस्व्प्न समान है. सरकारें आएँगी और जाएँगी-कुछ अच्छा काम करेंगी कुछ नहीं करेंगी या नहीं कर पाएंगी-इसलिए समय कि मांग है कि वर्षा जल संचयन कि पद्धतियाँ अपनाएं और अपनी प्यास स्वयं बुझायें.
आपको जान कर अचम्भा होगा कि कौटिल्य के जमाने में जो व्यक्ति वर्षाजल संचयन करता था उसे करों में रियायत मिलती थी. फिलहाल तो सरकार ऐसी कोई रियायत देने के मूड में नहीं दिखती पर यदि हम कौटिल्य कि रह पर चल सकें तो शायद हमारे पहाड़ों कि पेयजल समस्या कुछ हल हो सके!
कैसे कैसे तरीके पहाड़ों में अपनाये जाते हैं इस कार्य के लिए इस विषय पर लिखूंगा आने वाले लेखों में.
तब तक के लिए जय हिंद.