बसंत की बयार को घर-घर बांटने की परंपरा है फूलदेई
बसंती उल्लास के पर्व फूलदेई सक्रांति से एक माह तक अनवरत घर की दहलीज को रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू से महकाने वाला चैत्र मास आ गया है। गढ़वाल क्षेत्र में निभाई जाने वाली यह अनूठी रवायत तीर्थनगरी के समीपवर्ती क्षेत्रों में आज भी शिद्दत के साथ निभाई जा रही है।
तीर्थनगरी का स्वरूप लगातार आधुनिक शहर की शक्ल में ढलता जा रहा है। शहर की नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्र भी शहरीकरण की छाया से अछूता नहीं है। मगर, बावजूद इसके आज भी गांवों में कुछ परंपराएं बड़ी शिद्दत के साथ निभाई जा रही हैं। फूलदेई सक्रांत और पूरे चैत्र मास में घर की देहरी पर फूल डालने की परंपरा भी इन्हीं में से एक है। ऋतुराज बसंत प्राणी मात्र के जीवन में नई उमंग लेकर आता है। पेड़ों पर नई कोपलें और डालियों पर तरह-तरह के फूल भी इसी मौसम में खिलती हैं। बसंत के इसी उल्लास को घर-घर बांटने की एक अनूठी परंपरा गढ़वाल क्षेत्र में पूरे चैत्र मास निभाई जाती है जो फूलदेई सक्रांति से शुरू होकर बैशाखी तक अनवरत जारी रहेगी। इस दौरान प्रत्येक परिवार से नन्हीं कन्याएं आसपास क्षेत्र स बांस की बनी कंडियों में ताजे फूल इकट्ठे कर लाती हैं और सुबह-सबेरे अपने व आस-पड़ोस के घरों की दहलीज पर इन्हें बिखेर जाती हैं। रंग-बिरंगे फूलों की यह महक लोगों को बसंत की खूबसूरती का अहसास तो कराती ही है, सुबह-सुबह नन्हीं फुल्यारियों का कलरव भी शुभ संकेत माना जाता है। तीर्थनगरी के आसपास के गांव ढालवाला, चौदहबीघा, तापोवन, गुमानीवाला, श्यामपुर, खदरी, भट्टोवाला, रायवाला, हरिपुरकलां तथा छिद्दरवाला आदि गांवों में यह परंपरा आज भी जीवित है। नई पीढ़ी परंपरा के रूप में ही सही मगर, उल्लास के साथ बसंत की बयार को घर-घर बांटने की परंपरा को निभा रही है। इन नन्हें बच्चों की जुबां से 'चल फुल्यारी फूल क..' और 'डेली मा बैठो राजा, ल्यौ माता मेरा बांठ का खाजा..' जैसा पारंपरिक गीत भी खूब गुनगुनाए जाते हैं।
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गढ़वाल क्षेत्र में फूलदेई की यह पुरानी परंपरा है। आमतौर पर इस परंपरा को बसंत के आगमन से जोड़कर देखा जाता है। फूल और बच्चे दोनों खुशहाली का प्रतीक हैं इसलिए बच्चों के हाथों ही इस परंपरा का निर्वाहन किया जाता है। यह बड़ी बात है कि जहां हम अपने संस्कार व परंपराओं को भूल रहे हैं वहीं ऋषिकेश जैसा शहर फूलदेई संस्कृति को जिंदा रखे हुए है।