राजनीतिक कारणों से राजनेता उत्तराखण्ड में क्षेत्रवाद ही नहीं जातिवाद भी फैला रहे हैं, जो हमारे अस्तित्व के लिये धीमा जहर है। उत्तराखण्ड के बनते ही यह क्षुद्र राजनीति शुरु कर दी गई थी, अपने राजनीतिक हित साधने के लिये कि ये गढ़वाल का मंत्री बना है तो कुमाऊं का भी, ठाकुर है तो ब्राह्मण भी बनाओ, यहां तक कि तत्कालीन सत्ताधारी दल ने अपने प्रदेश अध्यक्ष और संगठन में भी यही काम किया, ताकि अपने मनपसंद लोगों को किसी न किसी वाद का हवाला देकर एडजस्ट किया जाय।
फिर आये नौछमी नरैण, उन्होंने इस वाद को ऐसा बनाया कि क्या कहें, लालबत्ती वितरण में हर आयोग में दो उपाध्यक्ष, एक कुमाऊ से एक गढ़वाल से, एक ठाकुर, दूसरा ब्राहमण। भाजपा का भी कहना था कि अगर प्रदेश अध्यक्ष कुमाऊनी है तो नेता प्रतिपक्ष गढ़वाली होना चाहिये, तब भगत दा की जगह कंडारी जी को इस पद पर बैठाया गया। फिर जरनल साहब आये, फिर यही हुआ, एक सुधार हुआ कि वाद में एक तीसरावाद जोड़ा गया, तराई वाद......अब तीन घटक हो गये हैं।
हे नेताओ, शर्म करो, हमारे उत्तराखण्ड को उत्तराखण्ड रहने दो......अभी अपने स्वार्थों के लिये हमें कितना बाटोंगे, कितना काटोगे, अपनी अंर्तआत्मा में भी झांको यारो। आने वाला कल तुम्हें इस नीच हरकत के लिये माफ नहीं करेगा। इन वादों का फैलाव एक दिन जिलो, तहसीलो, ब्लाको से होता घर-घर पहुंचेगा....तब क्या होगा। तब सबसे ज्यादा परेशानी तुमको ही होगी, कौन देगा वोट?
४२ शहादतों और तमाम जलालतों और ३० साल के संघर्ष ने ये छोटा सा राज्य दिया है। उन आन्दोलनकारियों के खून-पसीने, मुजफ्फरनगर की चीखों की तो इज्जत करो यारो.....................। अपने स्वार्थों के लिये आम आदमी की बलि क्यों दे रहे हो..?
शर्म करो, तुमसे अच्छे तो अंग्रेज थे, जिन्होंने हम लोगों को 1839 में सिर्फ कुमाऊं गढ़वाल में बांटा, तुमने तो हद कर दी, पता नहीं कहां-कहां बांट दिया हमें?