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Do you feel that the Capital of Uttarakhand should be shifted Gairsain ?

Yes
97 (70.8%)
No
26 (19%)
Yes But at later stage
9 (6.6%)
Can't say
5 (3.6%)

Total Members Voted: 136

Voting closed: March 21, 2024, 12:04:57 PM

Author Topic: Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?  (Read 348747 times)

Tanuj Joshi

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गैरसैण को राजधानी बनाने पर भौगोलिक रूप से राज्य के केन्द्र में स्थित राजधानी का सपना साकार होगा, जो पहाङी इलाकों के लिये काफी लाभप्रद साबित हो सकता है. आप तो खुद पिथौरागढ के रहने वाले हैं, वहां से लखनऊ, दिल्ली उतनी ही दूर हैं जितना देहरादून. छोटे-मोटे कामों के लिये जनता को 500 किमी की दूरी नापनी पङती है, दूरस्थ इआल्कों में रहने वालों को इससे भी ज्यादा.

हेम दा, मैं आपके और फोरम के सभी सदस्यों की भावनाओं को समझ सकता हूँ पर वास्तविकता शायद वह नहीं है जो आप सोच रहे हैं. देहरादून को राजधानी सिर्फ इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि यह शहर लोगों के शान शौक की परिभाषा व्यक्त करता है अपितु इसलिए की यह शहर बरसों से शिक्षा, व्यापार व परिवहन का केंद्र रहा है. दून विद्यालय ने भारत वर्ष के लिए कई महान शक्शियतों को जनम दिया है जिसमें देश के प्रधानमंत्री, व्यापार वर्ग तक शामिल हैं. क्या आप सोचते हैं कि राजधानी यदि घर के करीब हो तो विकास की परिभाषा को अधिक बल मिलेगा? इंडाएरेक्ट डेमोक्रेसी वाले भारत देश में हम राजनेताओं को चुन कर उन से विकास की अपेक्षा रखते हैं न की स्वयं हम राजधानी में जाकर पॉलिसी व प्लान का निर्माण करते हैं.
इतिहास साक्षी रहा है कि जनपदों की राजनीती में ही हमने अपने देश का सर्वस्व खोया है. तुगलक जैसे पागल राजाओं ने राजधानी परिवर्तन के लिए जान व माल का नुक्सान किया था. क्या आप चाहते हैं कि वही स्तिथि अब पुनः दोहराई जाए? क्या आपको एहसास  है कि आर्थिक संकट से गुजर रहे इस दौर में राजधानी परिवर्तन का क्या भयंकर परिणाम हो सकता है? राज्य की संपत्ति को नुक्सान पहुचने का शायद इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता है. अगर इस संपत्ति को राज्य के पिछडे हिस्सों में निवेश किया जाए तो शायद उत्तराखंड भी गर्व के साथ खडा होकर अन्य राज्यों में हो रहे पलायन को रोक पायेगा. राजनेताओं के स्वार्थ के लिए राज्य संपत्ति का इस तरह विघटन क्या उत्तराखंड की आम जनता को स्वीकार होगा? यदि आपके विचार गैरसैण को औधोगिक केंद्र बनाने मैं होते तो शायद मुझे व समाज को गर्व महसूस होता न की इसे राजनेताओं की गद्दी बनाने पर.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तनुज गुरु,

आपके विचारो से मै सहमत हूँ की देहरादून शिक्षा और सैन्य अकेडमी होने के कारण देश कर बड़े शहरो एक है ! प्ररन्तु उत्तराखंड राज्य के संगर्ष के दौरान यह कभी भी राजधानी के लिस्ट मे नहीं रहा ! गैरसैण से  लोगो की जन भावनाए जुड़े होने के अलावा यह एक्सेसिबिलिटी की दृष्टि से भी यह उत्तराखंड के अधिकतर जिलो के देहरादून के मुकभ्ले नज्दीग है !



Secondly, people have belief that if capital is shifted to Gairsain. There would be certainly development in surrounding and other areas of UK. May be the train connectivity provided there. I agree if we have gain something, we have lose something. There could be some kind of damages to the forests due to various constructions etc.

पंकज सिंह महर

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तनुज जी,
        आपने उत्तराखण्ड का नक्शा देखा होगा, उसमें देहरादून कहां है और उत्तराखण्ड कहां है, देखते ही पता चल जाता है।  राजधानी गैरसैंण हो, यह नारा उत्तराखण्ड के आम जनमानस ने दिया, तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा कैबिनेट मंत्री रमाशंकर कौशिक जी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। जिसने इन १३ जिलों का व्यापक भ्रमण किया और उसी समय राजधानी के लिये भी जनमत संग्रह कराया गया जिसमें ६५% लोगों ने गैरसैंण को सहमति दी। यह भावना ही नहीं है, हमारी पहचान भी है।
      दूसरी बात राजधानी कहां होनी चाहिये- इसका जबाब यह है कि राजधानी राज्य के केन्द्र में हो और हर व्यक्ति के लिये सुलभ हो। आप सोचिये अगर आपके गांव का एक गरीब आदमी किसी काम से देहरादून आता है तो सुबह नौ बजे वह बस में बैठेगा और रात के लगभग २-३ बजे वह देहरादून पहुचेगा। फिर वह कहां जायेगा, होटल आदि का खर्चा, कन्वेंस का खर्चा आदि.....क्या वह वहन कर पायेगा? गैरसैंण एक ऐसी जगह है जहां पूरे उत्तराखण्ड से मोरी-त्यूनी से लेकर मुनस्यारी, दुग्तू से भी आदमी सुबह गाड़ी में बैठकर शाम को अपने राज्य की राजधानी पहुंच जायेगा।
गैरसैंण में ऐसा नहीं है तहसील के बगल में ही राजधानी बना दी जायेगी। उसके लिये मास्टर प्लान से खाका तैयार होगा....पाण्डुखोली-दूधातोली और गैरसैंण के बीच का जो हिस्सा है वहां पर प्लान्ड वे में राजधानी बनाने का प्रस्ताव है। किसी भी राज्य की राजधानी उसकी पहचान होती है, किसी भी राज्य की विधानसभा उस प्रदेश की झलक होती है ताकि बाहरी राज्यों से आने वाले लोग इसी को देखकर पता कर सकें कि इस राज्य की संस्कृति क्या है। इस सबके लिये एक विस्तृत राजधानी तो हमें बनानी ही पड़ेगी। आप क्या सोच रहे हैं कि आज जहां पर देहरादून में विधानसभा या सचिवालय हैं, वहीं पर रहेंगे? ऐसा नहीं है......अभी तो अस्थाई व्यवस्था के तहत ये सब कुछ है, जिस दिन राजधानी घोषित हो जायेगी, उस दिन ये पूरा सिस्टम...विधानसभा से सचिवालय, राजभवन, डायरेक्ट्रेट के आफिस सब नये सिरे से एक ही जगह पर बनेंगे।
     इन सब कार्यालयों के अलग-अलग होने से कितनी परेशानी होती है, शायद आपको मालूम नहीं होगा। मान लीजिये शिक्षा विभाग में कुछ काम है, मंत्री जी विधान सभा भवन बैठते हैं, शिक्षा सचिव सचिवालय में बैठते है और शिक्षा निदेशक सहस्त्र धारा रोड पर बैठते हैं। फाइल इन तीनों तक जायेगी और इसी चेन से काम होगा। आम आदमी की परेशानी सोचिये, शिक्षा मंत्री से आदेश कराने विधानसभा आओ, फिर सचिव का अप्रूवल लेने सचिवालय और आदेश लेने मयूर बिहार, सहस्त्रधारा। अब लगाइये धारचूला से आये सीधे-सादे मास्साब की बस की है ये कवायद।
     जो कायदा है राजधानी का, वह यह है कि आम जनता को कोई परेशानी न हो, उसका काम एक ही कैम्पस में हो, इसी सब के लिये राजधानी होती है। इसके लिये जरुरी है कि एक कैम्पस में इन सब को एक न एक दिन लाना होगा, इन ८ सालों में जितना पैसा चपरासी की टी०ए० पर खर्चा हो गया है, उतने में एक निदेशालय की बिल्डिंग बन जाती। देहरादून में एक मुश्त व्यवस्था कहीं नहीं थी, इसलिये छितरा कर अस्थाई काम चलाने की व्यवस्था की गई। अब एक न एक दिन हमें स्थाई व्यवस्था तो करनी होगी। और जब स्थाई व्यवस्था करनी है तो उसमें आम जनमानस की भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिये और इसी भावना का नाम है------गैरसैंण।  शायद अब आप हमारी भावनाओं से सहमत होंगे।
सादर।

पंकज सिंह महर

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जहां तक गैरसैंण का प्रश्न है, गैरसैंण में राजधानी क्षेत्र के लिये पर्याप्त जमीन और पानी है। उत्तराखण्ड राज्य की मांग तब उठी जब इन पर्वतीय जिलों की भौगोलिक परिस्थिति तत्कालीन राज्य के अन्य जिलों से विषम थी और उस प्रदेश की नीतियां मैदानी क्षेत्रों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी और जो भी ऐसी योजनायें बनकर आती थीं, वो इन पर्वतीय जिलों के लिये useless हो जाती थीं। इस अन्तर से उत्पन्न हुई परेशानी का नाम था, पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग।
       उ० प्र० सरकार ने अंततः इस विभेद को स्वीकार किया और इन जिलों की अलग भौगोलिक स्थिति को देखते हुये इसके लिये पृथक से योजना बनाने के लिये एक अलग मंत्रालय बनाया, पर्वतीय विकास मंत्रालय। इस मंत्रालय के अन्तर्गत सभी विभाग कर दिये गये, इसी मंत्रालय से कार्य संचालन होने लगा। यहां पर उत्तराखण्ड की मांग करने वालों की पहली जीत हुई और मांग और मुखर होकर बलवती हुई।
     लम्बे संघर्ष के बाद हमें राज्य तो मिला, लेकिन विकेन्द्रीकृत विकास की हमारी आशा तब धूमिल हो गई, जब इस पर्वतीय प्रदेश की राजधानी इसके परिवेश से बिल्कुल अलग भाबर क्षेत्र देहरादून बना दी गई। राजधानी की मांग पर्वतीय क्षेत्र और मध्य में करने का औचित्य यह है कि योजनाकार जब पर्वतीय क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति से परिचित ही नहीं होगा तो वह योजना कैसे बनायेगा। हम किसी भी योजनाकार से यह अपेक्षा नहीं कर सकते और यह व्यवहार में भी दिख रहा है कि राज्य गठन के बाद पहाड़ों की जो स्थिति थी वह यथावत ही है। पेयजल की योजना से लेकर ग्राम्य विकास की योजना भी नक्शा देखकर बनाई जा रही है। फील्ड में क्या है, इसे देखने की जहमत कोई नहीं उठाता। आगणन बनाने से लेकर वित्तीय स्वीकृति देने का काम बिना स्थल निरीक्षण के देहरादून से तय किये जा रहे हैं, जो कि धरातल पर खरे नहीं उतर पाते। आज तक पहाड़ों के लिये जितनी भी योजनायें बनी ९० प्रतिशत असफल  ही रही हैं। इसका कारण तलाशा जाना बहुत जरुरी है।
      आज गैरसैंण के विरोध में यह तर्क दिये जाते हैं कि वहां पानी नहीं है, जमीन कमजोर है। पूरे देश को पानी देने वाले उत्तराखण्ड के ७० फीसदी गांवो में आज भी पेयजल की यह हालत है कि परिवार का एक सदस्य दिन भर पीने के पानी की ही व्यवस्था करने में जुटा रहता है। यह सारे तर्क बेमानी हैं, जानबूझ कर इस मुद्दे को भटकाव देने की कोशिश है। मध्य हिमालय की भौगोलिक परिस्थिति से सभी वाकिफ हैं, इस  क्षेत्र में ही हमारा पूरा उत्तराखण्ड है और पूरा प्रदेश भूकम्प की दृष्टि से जो-५ में चिन्हित है। पानी के लिये कर्णप्रयाग में अलकनन्दा और पिंडर नदी का संगम है, वहां से पेयजल की आपूर्ति की जा सकती है। गैरसैंण के पास ३२ कि०मी० दूरी पर चौखुटिया में रामगंगा नदी का पानी है। तो यह सब बातें बेमानी हैं और ऐसे तर्क, कुतर्क हैं।

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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i m totally agree with pankaj


hame samjna hoga.. aur hamari apni hi nahi pure pradesh ke logo ki bhawanao ko samjna hoga..


तनुज जी,
        आपने उत्तराखण्ड का नक्शा देखा होगा, उसमें देहरादून कहां है और उत्तराखण्ड कहां है, देखते ही पता चल जाता है।  राजधानी गैरसैंण हो, यह नारा उत्तराखण्ड के आम जनमानस ने दिया, तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा कैबिनेट मंत्री रमाशंकर कौशिक जी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। जिसने इन १३ जिलों का व्यापक भ्रमण किया और उसी समय राजधानी के लिये भी जनमत संग्रह कराया गया जिसमें ६५% लोगों ने गैरसैंण को सहमति दी। यह भावना ही नहीं है, हमारी पहचान भी है।
      दूसरी बात राजधानी कहां होनी चाहिये- इसका जबाब यह है कि राजधानी राज्य के केन्द्र में हो और हर व्यक्ति के लिये सुलभ हो। आप सोचिये अगर आपके गांव का एक गरीब आदमी किसी काम से देहरादून आता है तो सुबह नौ बजे वह बस में बैठेगा और रात के लगभग २-३ बजे वह देहरादून पहुचेगा। फिर वह कहां जायेगा, होटल आदि का खर्चा, कन्वेंस का खर्चा आदि.....क्या वह वहन कर पायेगा? गैरसैंण एक ऐसी जगह है जहां पूरे उत्तराखण्ड से मोरी-त्यूनी से लेकर मुनस्यारी, दुग्तू से भी आदमी सुबह गाड़ी में बैठकर शाम को अपने राज्य की राजधानी पहुंच जायेगा।
गैरसैंण में ऐसा नहीं है तहसील के बगल में ही राजधानी बना दी जायेगी। उसके लिये मास्टर प्लान से खाका तैयार होगा....पाण्डुखोली-दूधातोली और गैरसैंण के बीच का जो हिस्सा है वहां पर प्लान्ड वे में राजधानी बनाने का प्रस्ताव है। किसी भी राज्य की राजधानी उसकी पहचान होती है, किसी भी राज्य की विधानसभा उस प्रदेश की झलक होती है ताकि बाहरी राज्यों से आने वाले लोग इसी को देखकर पता कर सकें कि इस राज्य की संस्कृति क्या है। इस सबके लिये एक विस्तृत राजधानी तो हमें बनानी ही पड़ेगी। आप क्या सोच रहे हैं कि आज जहां पर देहरादून में विधानसभा या सचिवालय हैं, वहीं पर रहेंगे? ऐसा नहीं है......अभी तो अस्थाई व्यवस्था के तहत ये सब कुछ है, जिस दिन राजधानी घोषित हो जायेगी, उस दिन ये पूरा सिस्टम...विधानसभा से सचिवालय, राजभवन, डायरेक्ट्रेट के आफिस सब नये सिरे से एक ही जगह पर बनेंगे।
     इन सब कार्यालयों के अलग-अलग होने से कितनी परेशानी होती है, शायद आपको मालूम नहीं होगा। मान लीजिये शिक्षा विभाग में कुछ काम है, मंत्री जी विधान सभा भवन बैठते हैं, शिक्षा सचिव सचिवालय में बैठते है और शिक्षा निदेशक सहस्त्र धारा रोड पर बैठते हैं। फाइल इन तीनों तक जायेगी और इसी चेन से काम होगा। आम आदमी की परेशानी सोचिये, शिक्षा मंत्री से आदेश कराने विधानसभा आओ, फिर सचिव का अप्रूवल लेने सचिवालय और आदेश लेने मयूर बिहार, सहस्त्रधारा। अब लगाइये धारचूला से आये सीधे-सादे मास्साब की बस की है ये कवायद।
     जो कायदा है राजधानी का, वह यह है कि आम जनता को कोई परेशानी न हो, उसका काम एक ही कैम्पस में हो, इसी सब के लिये राजधानी होती है। इसके लिये जरुरी है कि एक कैम्पस में इन सब को एक न एक दिन लाना होगा, इन ८ सालों में जितना पैसा चपरासी की टी०ए० पर खर्चा हो गया है, उतने में एक निदेशालय की बिल्डिंग बन जाती। देहरादून में एक मुश्त व्यवस्था कहीं नहीं थी, इसलिये छितरा कर अस्थाई काम चलाने की व्यवस्था की गई। अब एक न एक दिन हमें स्थाई व्यवस्था तो करनी होगी। और जब स्थाई व्यवस्था करनी है तो उसमें आम जनमानस की भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिये और इसी भावना का नाम है------गैरसैंण।  शायद अब आप हमारी भावनाओं से सहमत होंगे।
सादर।

पंकज सिंह महर

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देहरादून राजधानी बनने से पर्वतीय प्रदेश की अवधारणा सार्थक होती इन ९ सालों में नहीं दिखाई थी। सीमान्त जनपदों और पहाड़ के गांवों की दूरी और उनके विकेन्द्रीकृत और नियोजित विकास के साथ हमारा शासन-प्रशासन तारतम्य नहीं बैठा पाया।
     राजधानी का मतलब यह भी नहीं है कि दो-चार महत्वपूर्ण विभागों के भवन बना दिये जांय। राजधानी का अर्थ यह है कि यह स्थान राज्य की दशा और दिशा दोनों को तय करे। हमारे इस विकट पर्वतीय राज्य की राजधानी के लिये रेल मार्ग और हवाई मार्ग की सुलभता को आधार बनाया जाना नितान्त मूर्खतापूर्ण है। राजधानी से रेल या एयर कनेक्टिविटी किसके लिये होनी चाहिये, राज्य की जनता के लिये, जब इस राज्य में यह सुविधायें ही नहीं हैं, तो ऐसा विचार कैसे तर्कपूर्ण कहा जा सकता है।
     राज्य की राजधानी में राज्य के ही शासन के अधिकारी बैठते हैं और किसी भी नीति को बनाने के लिये मुख्य योजनाकार वही हैं। जब वह पर्वतीय स्थान पर बैठैंगे तो वह इसकी स्थितियों के यथार्थ से भी परिचित होंगे। हमारा कहना यह भी नहीं है, राजधानी अभी उठाकर गैरसैंण ले चलो, पहले वहां पर ढांचागत सुविधायें विकसित की जांय, हमारे साथ के नवोदित राज्यों की तरह ही मास्टत पलान से एक नया शहर बसाया जाय। एक ऐसा शहर, जो एक छोटा सा उत्तराखण्ड  हो, जिसमें उत्तराखण्ड की सभ्यता, संस्कृति की झलक हो। कर्मचारियों के आवास, उनके बच्चों के लिये अच्छी स्कूली शिक्षा की व्यवस्था, बाजार आदि की मूलभूत सुविधायें तैयार हों, सारा इनफ़्रास्टक्चर डेवलप हो और तब एक नये नगर में प्रदेश की राजधानी स्थापित हो।
       क्या हम यह नहीं चाहते कि हमारे प्रदेश में भी नये शहर नये तरीके और सलीके से बनें। जहां तक रेल मार्ग की बात है, चौखुटिया तक रेल मार्ग बनने से गैरसैण रेल मार्ग से मात्र ३२ कि०मी० दूर होगा, यदि इस मार्ग का विस्तार पाण्डुखोली तक होगा तो यह दूरी मात्र ११ कि०मी० रह जायेगी। हमारे मंत्रियों के लिये हैलीकाप्टर हेतु हैलीपैड तो कहीं भी बन सकता है और हवाई पट्टी आस-पास के क्षेत्र यथा- मासी, द्वाराहाट में बनाई जा सकती है।
     
       

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Reference to subject which Song Narendra Singh had composed during the state struggle. Have look in this video.

http://www.youtube.com/watch?v=46gLmCGUqH8

Capital of Uttarakhand was proposed only Gairsain. 

पंकज सिंह महर

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jagran news Jul 12, 11:51 pm

देहरादून। हालात तो यही बता रहे हैं कि उत्तराखंड की स्थायी राजधानी देहरादून ही रहेगी! केंद्र सरकार से मिले दो सौ करोड़ रुपये से देहरादून में बुनियादी सुविधाओं पर तेजी से काम हो रहा है। इसके लिए कांग्रेस शासन में केंद्र से अनुमति भी ली गई और भाजपा शासन में भी निर्माण जारी है।

उत्तराखंड की स्थायी राजधानी के लिए 12वें वित्त आयोग ने दो सौ करोड़ का प्रावधान किया है। कई सालों तक यह राशि पड़ी रही। इस धन के 'लैप्स' होने की नौबत आई तो कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने केंद्र सरकार से इस राशि को राज्यस्तरीय बुनियादी सुविधाओं में व्यय करने की अनुमति मांगी। सूत्रों ने बताया कि केंद्र की अनुमति के बाद एक उच्च स्तरीय समिति ने 194 करोड़ रुपये के प्रस्तावों को स्वीकृति दी। 31 मार्च-09 तक इसमें से 152 करोड़ रुपये कार्यदायी संस्थाओं को अवमुक्त किए जा चुके हैं और लगभग 57 करोड़ की राशि खर्च भी की जा चुकी है।

बताया जाता है कि कुछ निर्माण राज्य लोक सेवा आयोग और सितारगंज जेल में भी हो रहे हैं। खास बात यह है कि कांग्रेस शासन में शुरू हुआ यह व्यय भाजपा शासन में भी जारी रहा। कांग्रेस शासन में मौजूदा संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत इस पर सवाल भी उठा चुके है पर निर्माण आज तक जारी है। सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार की ओर से स्थायी राजधानी के लिए एक बार दो सौ करोड़ की रकम दे दी गई है। अब अगर स्थायी राजधानी के लिए किसी और स्थान का चयन होता है तो इसके लिए करोड़ों की राशि कहां से आएगी। केंद्र सरकार से इस मद में अब बहुत ज्यादा धन मिलने की गुंजाइश न के बराबर ही है। इतना ही नहीं, अगर राजधानी कहीं और बनती है तो देहरादून में करोड़ों की लागत से बन चुके या फिर बन रहे भवनों का क्या होगा। ऐसे में माना जा रहा है कि उत्तराखंड की स्थायी राजधानी अब देहरादून ही रहने वाली है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Agar yesa hota hai, yah ek prakar se Uttarakhand wasiyo ke liye dhoka hoga.

jagran news Jul 12, 11:51 pm

देहरादून। हालात तो यही बता रहे हैं कि उत्तराखंड की स्थायी राजधानी देहरादून ही रहेगी! केंद्र सरकार से मिले दो सौ करोड़ रुपये से देहरादून में बुनियादी सुविधाओं पर तेजी से काम हो रहा है। इसके लिए कांग्रेस शासन में केंद्र से अनुमति भी ली गई और भाजपा शासन में भी निर्माण जारी है।

उत्तराखंड की स्थायी राजधानी के लिए 12वें वित्त आयोग ने दो सौ करोड़ का प्रावधान किया है। कई सालों तक यह राशि पड़ी रही। इस धन के 'लैप्स' होने की नौबत आई तो कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने केंद्र सरकार से इस राशि को राज्यस्तरीय बुनियादी सुविधाओं में व्यय करने की अनुमति मांगी। सूत्रों ने बताया कि केंद्र की अनुमति के बाद एक उच्च स्तरीय समिति ने 194 करोड़ रुपये के प्रस्तावों को स्वीकृति दी। 31 मार्च-09 तक इसमें से 152 करोड़ रुपये कार्यदायी संस्थाओं को अवमुक्त किए जा चुके हैं और लगभग 57 करोड़ की राशि खर्च भी की जा चुकी है।

बताया जाता है कि कुछ निर्माण राज्य लोक सेवा आयोग और सितारगंज जेल में भी हो रहे हैं। खास बात यह है कि कांग्रेस शासन में शुरू हुआ यह व्यय भाजपा शासन में भी जारी रहा। कांग्रेस शासन में मौजूदा संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत इस पर सवाल भी उठा चुके है पर निर्माण आज तक जारी है। सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार की ओर से स्थायी राजधानी के लिए एक बार दो सौ करोड़ की रकम दे दी गई है। अब अगर स्थायी राजधानी के लिए किसी और स्थान का चयन होता है तो इसके लिए करोड़ों की राशि कहां से आएगी। केंद्र सरकार से इस मद में अब बहुत ज्यादा धन मिलने की गुंजाइश न के बराबर ही है। इतना ही नहीं, अगर राजधानी कहीं और बनती है तो देहरादून में करोड़ों की लागत से बन चुके या फिर बन रहे भवनों का क्या होगा। ऐसे में माना जा रहा है कि उत्तराखंड की स्थायी राजधानी अब देहरादून ही रहने वाली है।


Lalit Mohan Pandey

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Normally developement ki news sunkar khusi hoti hai, per is news ko sun kar dukh ho raha hai, Jab Prakash pantji ne ye bat pahle uthayi thi(congress gvt mai) to ab jab wo khud sarkar mai hai or main karta dharta hai BJP ke to kyu chup baithe hai... isase inki ochhi Rajneeti ka hi pata chalta hai. Or UKD walu ke to kya kahne... Uttarakhand, gairsain sab sirf vote tak ki yaad rahte hai unhe... Aankhir wo kaise chup rah sakte hai or kaise BJP ke khewanhar bane rah sakte hai jabki unke samne ki Dehradoon ko permanent capital banane ka shadyantra chal raha hai.

 

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