तनुज जी,
आपने उत्तराखण्ड का नक्शा देखा होगा, उसमें देहरादून कहां है और उत्तराखण्ड कहां है, देखते ही पता चल जाता है। राजधानी गैरसैंण हो, यह नारा उत्तराखण्ड के आम जनमानस ने दिया, तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा कैबिनेट मंत्री रमाशंकर कौशिक जी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। जिसने इन १३ जिलों का व्यापक भ्रमण किया और उसी समय राजधानी के लिये भी जनमत संग्रह कराया गया जिसमें ६५% लोगों ने गैरसैंण को सहमति दी। यह भावना ही नहीं है, हमारी पहचान भी है।
दूसरी बात राजधानी कहां होनी चाहिये- इसका जबाब यह है कि राजधानी राज्य के केन्द्र में हो और हर व्यक्ति के लिये सुलभ हो। आप सोचिये अगर आपके गांव का एक गरीब आदमी किसी काम से देहरादून आता है तो सुबह नौ बजे वह बस में बैठेगा और रात के लगभग २-३ बजे वह देहरादून पहुचेगा। फिर वह कहां जायेगा, होटल आदि का खर्चा, कन्वेंस का खर्चा आदि.....क्या वह वहन कर पायेगा? गैरसैंण एक ऐसी जगह है जहां पूरे उत्तराखण्ड से मोरी-त्यूनी से लेकर मुनस्यारी, दुग्तू से भी आदमी सुबह गाड़ी में बैठकर शाम को अपने राज्य की राजधानी पहुंच जायेगा।
गैरसैंण में ऐसा नहीं है तहसील के बगल में ही राजधानी बना दी जायेगी। उसके लिये मास्टर प्लान से खाका तैयार होगा....पाण्डुखोली-दूधातोली और गैरसैंण के बीच का जो हिस्सा है वहां पर प्लान्ड वे में राजधानी बनाने का प्रस्ताव है। किसी भी राज्य की राजधानी उसकी पहचान होती है, किसी भी राज्य की विधानसभा उस प्रदेश की झलक होती है ताकि बाहरी राज्यों से आने वाले लोग इसी को देखकर पता कर सकें कि इस राज्य की संस्कृति क्या है। इस सबके लिये एक विस्तृत राजधानी तो हमें बनानी ही पड़ेगी। आप क्या सोच रहे हैं कि आज जहां पर देहरादून में विधानसभा या सचिवालय हैं, वहीं पर रहेंगे? ऐसा नहीं है......अभी तो अस्थाई व्यवस्था के तहत ये सब कुछ है, जिस दिन राजधानी घोषित हो जायेगी, उस दिन ये पूरा सिस्टम...विधानसभा से सचिवालय, राजभवन, डायरेक्ट्रेट के आफिस सब नये सिरे से एक ही जगह पर बनेंगे।
इन सब कार्यालयों के अलग-अलग होने से कितनी परेशानी होती है, शायद आपको मालूम नहीं होगा। मान लीजिये शिक्षा विभाग में कुछ काम है, मंत्री जी विधान सभा भवन बैठते हैं, शिक्षा सचिव सचिवालय में बैठते है और शिक्षा निदेशक सहस्त्र धारा रोड पर बैठते हैं। फाइल इन तीनों तक जायेगी और इसी चेन से काम होगा। आम आदमी की परेशानी सोचिये, शिक्षा मंत्री से आदेश कराने विधानसभा आओ, फिर सचिव का अप्रूवल लेने सचिवालय और आदेश लेने मयूर बिहार, सहस्त्रधारा। अब लगाइये धारचूला से आये सीधे-सादे मास्साब की बस की है ये कवायद।
जो कायदा है राजधानी का, वह यह है कि आम जनता को कोई परेशानी न हो, उसका काम एक ही कैम्पस में हो, इसी सब के लिये राजधानी होती है। इसके लिये जरुरी है कि एक कैम्पस में इन सब को एक न एक दिन लाना होगा, इन ८ सालों में जितना पैसा चपरासी की टी०ए० पर खर्चा हो गया है, उतने में एक निदेशालय की बिल्डिंग बन जाती। देहरादून में एक मुश्त व्यवस्था कहीं नहीं थी, इसलिये छितरा कर अस्थाई काम चलाने की व्यवस्था की गई। अब एक न एक दिन हमें स्थाई व्यवस्था तो करनी होगी। और जब स्थाई व्यवस्था करनी है तो उसमें आम जनमानस की भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिये और इसी भावना का नाम है------गैरसैंण। शायद अब आप हमारी भावनाओं से सहमत होंगे।
सादर।