चन्द्र नगर गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के लिए जनता में एक बार फिर सुगबुगाहट शुरू हो गई हैा यह कोई अचानक आई प्रतिक्रिया नहीं है आठ साल, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढाये गये राजधानी चयन आयोग के कार्यकाल के बाद जो फैसला आया है असल में वह यहां की जनता को चिढाने वाला हैाा चन्द्रनगर गैरसैंण को लेकर लंबे समय से चले जनता के आंदोलन को किसी न किसी रूप से कुचलने या दमन करने या लोगों का ध्यान बंटाने की साजिशें होती रही हैंा जब भी इसके पक्ष में जनगोलाबंदी शुरू हुई राष्टीय राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ अपनी साजिशें शुरू कर दी और इसी बहाने नये कुतर्क गढ्ने शुरू कर दियेा राजधानी के बारे में वे लोग भी अपना मत देने लगे जिन्हें यहां का भूगोल भी मालूम नहीं हैा जिन लोगों ने कभी गैरसैंण देखा भी नहीं वह उसके विरोध में बयान देने लगेा राजधानी के मामाले में एक जनपक्षीय सोच आने के बजाय कुतर्कों को गढ्ना पहाड के हित में नहीं हैा गैरसैंण, चन्द्रनगर को राजधानी बनाना इसिलए जरूरी है क्योंकि विकास के विकेन्द्रीकरण की शुरूआत राजधानी से ही होनी चाहिएा पहली बात तो यह है कि गैरसैंण राजधानी क्यों बनेा गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए आंदोलित जनता का राजधानी के लिए न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्तित्व, अस्मिता और विकास के विकेन्द्रीकरण की मांग भी हैा जो लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने की बजाय विकास पर जोर देने की बात करते हैं उन्हें पहले तो विकास का चरित्र मालूम नहीं है या वह जानबूझकर लोगों का ध्यान मूल बात से हटाना चाहते हैंा यह पहाड विरोधी राष्टीय राजनीतिक दलों और उनके उन समर्थकों की साजिश है जो पहाड से बाहर बैठकर इन दलों की दलाली में लग कर अपने स्वार्थों की सिद्वि में लगे रहते हैा जहां तक राजधानी का सवाल है आज भी पहाड की 70 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में हैा 1994 में बनी कौशिक ने अपनी सिफारिश में कहा कि राज्य की 68 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी चाहती हेा इसमें मैदानी क्षेत्र की जनता भी शामिल रहीा 2000 में जब राज्य बना तो भाजपा की अंतिरम सरकार ने जनभावनाओं को रौंदते हुये उस पर एक आयोग बैठा दिया जो पिछले आठ सालों में जनता के सवालों को उलझााता रहा और भाजपा एवं कांग्रेस के एजेण्ट के रूप में काम करता रहाा भाजपा जो सुविधाभोगी राजनीति की उपज है और जिसका पहाड के हितों से कभी कोई लेना देना नही रहा उसने जनमत के परीक्षण के लिए आयोग बनाकर अलोकतांत्रिक काम कियाा कांग्रेस ने अपने शासन में इस आयोग को पुनर्जीवित कर देहरादून को राजधानी बनाने की अपनी मंशा साफ कर दीा असल में ये राजनीतिक दल देहरादून या मैदानी क्षेत्र में राजधानी बनाने का माहौल इसिलए तैयार कर रहे हैं क्योंकि जनता के पैसे पर ऐश करने की राजनेताओं और नौकरशाहों की मनमानी चलती रहेा जो लोग राजधानी के सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण विकास के सवाल को मानते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि राजधानी और विकास एक दूसरे के पूरक हैंा राजधानी का सवाल इसिलए भी हल होना चाहिए कि देहरादून से संचालित होने वाले राजनेता, नौकरशाही और माफिया का गठजोड ने जनिवरोधी जो रवैया अपनाया है उससे राज्य की जनता आहत हैा गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने में जिन दिक्कतों को बताया जा रहा है वास्तव में वह काल्पिनक हैंा सही बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद पहाड में नये शहरों का निमार्ण नहीं हुआ और न ही शहरों को विकसित किया गयाा अंग्रेजों ने जिन शहरों को अपने एशो आराम के लिए विकिसत कियाा आजादी के बाद नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, लैंसडाउन और देहरादून जैसे शहर नोकरशाहों के ऐशगाह बने रहेा इसके अलावा अन्य शहरों के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गयाा इसका दुष्पिरणाम यह हुआ कि विकास का केन्द्रीकरण हुआा विकास की किरण आम आदमी तक नहीं पहुंचीा उत्तरांचल का यह दुर्भाग्य रहा कि यहां एक नया शहर नई टिहरी के रूप में अस्तित्व में आया जिसके लिए एक संस्क़ित, इतिहास और सभ्यता की बिल देनी पडी विकास के नाम पर जिस तरह का छलावा हुआ वह आज पहाड के लिए सबसे बडे नासूर के रूप में सामने हैा नई टिहरी का बनना विकास का के दौर की शुरूआत नहीं बिल्क यह पहाड में बोधों के माध्यम से विनाश का नया रास्ता खोलता हैा इस पर सभी की सहमित रहीा अब जब विकास के रास्ते पर चलने के लिए जनता एक शहर को बसाने की बात कह रही है तो सबको यह अच्छा नहीं लग रहा हैा इससे साफ है कि राजनेताओं की नीयत में भारी खोट हैा इतिहास भी इस बात का गवाह है कि शहरों का निमार्ण विकास के लिए और नई जीवन शैली को विकिसत करने वाला रहा हैा कत्यूरों, चंदों और पंवार वंश के समय में रंगीली बैराट, बैजनाथ, श्रीनगर, जोशीमठ, बोगश्वर, चंपावत, अलमोडा, रूद्रपुर, काशीपुर के अलावा कई छोट बडे शहरों का निमार्ण हुआा इसी का परिणाम था कि यह जगहें सामाजिक, सांसक़ितक और आर्थिक संपन्नता में अग्रणी रहेा इन शहरों को बसाने के पीछे विकास का व्यापक सोच भी रहाा गैरसैंण को नये शहर के रूप में विकसित करने के पीछे विकास का यही दर्शन रहा हैा उत्तराखंड क्रान्ति दल ने जुलाई 1992 में पेशावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिह गढवाली के नाम से इसका नामकरण चन्द्रनगर के नाम से कियाा यहां उनकी आदमकद मूर्ति लगाकर इसे राजधानी भी घाषित कर दियाा इसके पीछे यह सोच भी प्रभावी ढंग से रखा गया कि यह शहर भावनाओं से ज्यादा विकास पर केन्द्रित होगाा
आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्जन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है। जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मोंगे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत@एनजीओ, 15 संगठनात्मक@पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी “ाामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी “ाामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्Q 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढंूगी, हेमपुर, काजीपुर, भीमताल, श्रीनगर, “यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृ’िट से सवेदन’ाील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्र्ह नदियों पर बन रहे 200 से अधिाक विनाजकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधाी रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माॅडल की मांग के साथ “ाुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दजक की संघर्’ा यात्र में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। रा’ट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और रा’ट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्र्ीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढंूढा। तीन दजकों के सतत संघर्’ा, 42 लोगों की “ाहादत और लोकतान्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोधा कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सQल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंउ की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधाानी के लिए भी साजिज की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधाीज वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधाानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाQ काम करना “ाुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधाानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाQ कुतर्क ढंूढ़े गये। इस बीच राजधाानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्’ा करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी ‘ाहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काQी है।
जहां तक राज्य की राजधाानी का सवाल है, यह राज्य आंदोलन के दौरान निर्विवाद रूप से तय थी। गैरसैंण को राजधाानी बनाने का मुद्दा भावनì