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Do you feel that the Capital of Uttarakhand should be shifted Gairsain ?

Yes
97 (70.8%)
No
26 (19%)
Yes But at later stage
9 (6.6%)
Can't say
5 (3.6%)

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Voting closed: March 21, 2024, 12:04:57 PM

Author Topic: Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?  (Read 349083 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चारू दा,

जैसे की आप उत्तराखंड राज्य से निर्माण मे आपने बढ चढ़ हिस्सा लिया था और राजधानी मुद्दे पर आपके पास काफी तथ्य एव एक्सक्लूसिव जानकारिया है !

हम आपके विचारो से पूरी दंग से सहमत है !



चन्‍द्र नगर गैरसैंण को स्‍थाई राजधानी बनाने के लिए जनता में एक बार फिर सुगबुगाहट शुरू हो गई हैा यह कोई अचानक आई प्रतिक्रिया नहीं है आठ साल, चार मुख्‍यमंत्री और ग्‍यारह बार बढाये गये राजधानी चयन आयोग के कार्यकाल के बाद जो फैसला आया है असल में वह यहां की जनता को चिढाने वाला हैाा चन्‍द्रनगर गैरसैंण को लेकर लंबे समय से चले जनता के आंदोलन को किसी न किसी रूप से कुचलने या दमन करने या लोगों का ध्‍यान बंटाने की साजिशें होती रही हैंा जब भी इसके पक्ष में जनगोलाबंदी शुरू हुई राष्‍टीय राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ अपनी साजिशें शुरू कर दी और इसी बहाने नये कुतर्क गढ्ने शुरू कर दियेा राजधानी के बारे में वे लोग भी अपना मत देने लगे जिन्‍हें यहां का भूगोल भी मालूम नहीं हैा जिन लोगों ने कभी गैरसैंण देखा भी नहीं वह उसके विरोध में बयान देने लगेा राजधानी के मामाले में एक जनपक्षीय सोच आने के बजाय कुतर्कों को गढ्ना पहाड के हित में नहीं हैा    गैरसैंण, चन्‍द्रनगर को राजधानी बनाना इसिलए जरूरी है क्‍योंकि विकास के विकेन्‍द्रीकरण की शुरूआत राजधानी से ही होनी चाहिएा पहली बात तो यह है कि गैरसैंण राजधानी क्‍यों बनेा गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए आंदोलित जनता का राजधानी के लिए न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्‍तित्‍व, अस्‍मिता और विकास के विकेन्‍द्रीकरण की मांग भी हैा    जो लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने की बजाय विकास पर जोर देने की बात करते हैं उन्‍हें पहले तो विकास का चरित्र मालूम नहीं है या वह जानबूझकर लोगों का ध्‍यान मूल बात से हटाना चाहते हैंा यह पहाड विरोधी राष्‍टीय राजनीतिक दलों और उनके उन समर्थकों की साजिश है जो पहाड से बाहर बैठकर इन दलों की दलाली में लग कर अपने स्‍वार्थों की सिद्वि में लगे रहते हैा जहां तक राजधानी का सवाल है आज भी पहाड की 70 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में हैा  1994 में बनी कौशिक ने अपनी सिफारिश में कहा कि राज्‍य की 68 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी चाहती हेा इसमें मैदानी क्षेत्र की जनता भी शामिल रहीा 2000 में जब राज्‍य बना तो भाजपा की अंतिरम सरकार ने जनभावनाओं को रौंदते हुये उस पर एक आयोग बैठा दिया जो पिछले आठ सालों में जनता के सवालों को उलझााता रहा और भाजपा एवं कांग्रेस के एजेण्‍ट के रूप में काम करता रहाा भाजपा जो सुविधाभोगी राजनीति की उपज है और जिसका पहाड के हितों से कभी कोई लेना देना नही रहा उसने जनमत के परीक्षण के लिए आयोग बनाकर अलोकतांत्रिक काम कियाा कांग्रेस ने अपने शासन में इस आयोग को पुनर्जीवित कर देहरादून को राजधानी बनाने की अपनी मंशा साफ कर दीा  असल में  ये राजनीतिक दल देहरादून या मैदानी क्षेत्र में राजधानी बनाने का माहौल इसिलए तैयार कर रहे हैं क्‍योंकि जनता के पैसे पर ऐश करने की राजनेताओं और नौकरशाहों की मनमानी चलती रहेा जो लोग राजधानी के सवाल से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण विकास के सवाल को मानते हैं उन्‍हें यह समझना चाहिए कि राजधानी और विकास एक दूसरे के पूरक हैंा राजधानी का सवाल इसिलए भी हल होना चाहिए कि देहरादून से संचालित होने वाले राजनेता, नौकरशाही और माफिया का गठजोड ने जनिवरोधी जो रवैया अपनाया है उससे राज्‍य की जनता आहत हैा    गैरसैंण को स्‍थायी राजधानी बनाने में जिन दिक्‍कतों को बताया जा रहा है वास्‍तव में वह काल्‍पिनक हैंा सही बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद पहाड में नये शहरों का निमार्ण नहीं हुआ और न ही शहरों को विकसित किया गयाा अंग्रेजों ने जिन शहरों को अपने एशो आराम के लिए विकिसत कियाा आजादी के बाद नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, लैंसडाउन और देहरादून जैसे शहर नोकरशाहों के ऐशगाह बने रहेा इसके अलावा अन्‍य शहरों के विकास की ओर कोई ध्‍यान नहीं दिया गयाा इसका दुष्‍पिरणाम यह हुआ कि विकास का केन्‍द्रीकरण हुआा विकास की किरण आम आदमी तक नहीं पहुंचीा उत्‍तरांचल का यह दुर्भाग्‍य रहा कि यहां एक नया शहर नई टिहरी के रूप में अस्‍तित्‍व में आया जिसके लिए एक संस्‍क़ित, इतिहास और सभ्‍यता की बिल देनी पडी विकास के नाम पर जिस तरह का छलावा हुआ वह आज पहाड के लिए सबसे बडे नासूर के रूप में सामने हैा नई टिहरी का बनना विकास का के दौर की शुरूआत नहीं बिल्‍क यह पहाड में बोधों के माध्‍यम से विनाश का नया रास्‍ता खोलता हैा इस पर सभी की सहमित रहीा अब जब विकास के रास्‍ते पर चलने के लिए जनता एक शहर को बसाने की बात कह रही है तो सबको यह अच्‍छा नहीं लग रहा हैा इससे साफ है कि राजनेताओं की नीयत में भारी खोट हैा इतिहास भी इस बात का गवाह है कि शहरों का निमार्ण विकास के लिए और नई जीवन शैली को विकिसत करने वाला रहा हैा कत्‍यूरों, चंदों और पंवार वंश के समय में रंगीली बैराट, बैजनाथ, श्रीनगर, जोशीमठ, बोगश्‍वर, चंपावत, अलमोडा, रूद्रपुर, काशीपुर के अलावा कई छोट बडे शहरों का निमार्ण हुआा इसी का परिणाम था कि यह जगहें सामाजिक, सांसक़ितक और आर्थिक संपन्‍नता में अग्रणी रहेा  इन शहरों को बसाने के पीछे विकास का व्‍यापक सोच भी रहाा गैरसैंण को नये शहर के रूप में विकसित करने के पीछे  विकास का यही दर्शन रहा हैा उत्‍तराखंड क्रान्‍ति दल ने जुलाई 1992 में पेशावर कांड के नायक वीर चन्‍द्र सिह गढवाली के नाम से इसका नामकरण चन्‍द्रनगर के नाम से कियाा यहां उनकी आदमकद मूर्ति लगाकर इसे राजधानी भी घाषित कर दियाा इसके पीछे यह सोच भी प्रभावी ढंग से रखा गया कि यह शहर भावनाओं से ज्‍यादा विकास पर केन्‍द्रित होगाा
आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्जन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है।   जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मोंगे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत@एनजीओ, 15 संगठनात्मक@पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी “ाामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी “ाामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्Q 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढंूगी, हेमपुर, काजीपुर, भीमताल, श्रीनगर, “यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
   फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृ’िट से सवेदन’ाील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्र्ह नदियों पर बन रहे 200 से अधिाक विनाजकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधाी रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
   सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माॅडल की मांग के साथ “ाुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दजक की संघर्’ा यात्र में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। रा’ट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और रा’ट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्र्ीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढंूढा। तीन दजकों के सतत संघर्’ा, 42 लोगों की “ाहादत और लोकतान्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोधा कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सQल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंउ की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधाानी के लिए भी साजिज की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधाीज वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधाानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाQ काम करना “ाुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधाानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाQ कुतर्क ढंूढ़े गये। इस बीच राजधाानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्’ा करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी ‘ाहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो  एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काQी है।
   जहां तक राज्य की राजधाानी का सवाल है, यह राज्य आंदोलन के दौरान निर्विवाद रूप से तय थी। गैरसैंण को राजधाानी बनाने का मुद्दा भावनì

हेम पन्त

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चारु दा द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि रमाशंकर आयोग व दीक्षित आयोग के सामने जनता ने जितने भी सुझाव दिये उसमें गैरसैण को बहुमत मिला. फिर भी दीक्षित आयोग ने कई तरह के कुतर्क सामने रखकर गैरसैंण की मांग को झुठलाने की साजिश रची.

इस मुद्दे पर एक जनजागरण का अभियान चलाया जाना चाहिये जिसमें राज्य के सभी हिस्सों के लोगों को एक मंच पर लाकर गैर-पहाड़ी दलों की इस साजिश को असफल किया जा सके.

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Charu Da ke vicharon ka koi jawaab Dikhshit aayog ke paas nahi hai. Logon ko bhulave main rakh kar matbhed paida karna hi raajnitik dalon ki aadat ban gai hai.

हुक्का बू

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आज दिनांक 17 जुलाई को 4:54 बजे उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के युवा प्रकोष्ठ के नेता श्री जयप्रकाश उपाध्याय ने उत्तराखण्ड विधानसभा की विशिष्ट (राज्यपाल) दीर्घा से  दीक्षित आयोग धोखा है, पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में हो, उत्तराखण्ड की स्थाई राजधानी गैरसैंण-गैरसैंण, स्थाई राजधानी गैरसैंण घोषित करो और उत्तराखण्ड क्रान्ति दल जिन्दाबाद के नारे लगाते हुये कुछ पर्चे सदन में उछाले। जिसे विधानसभा के मार्शल ने अपनी अभिरक्षा में ले लिया, सदन ने इस विषय पर विचार करने के बाद उस युवक को माफ करते हुये सायं 7:15 पर रिहा कर दिया।
       मेरा पहाड़ इस युवक की बहादुरी को सलाम करता है और उत्तराखण्ड के जनप्रतिनिधियों के जमीर को झकझोरने का प्रयास करता है कि जनभावनाओं को अपने आक्रोश के माध्यम से व्यक्त करने वाले इस युवक को सदन के सत्ता और विपक्ष के अधिकांश सदस्य कठोर दण्ड देने की बात कर रहे थे।
       इसमें विचारणीय विषय यह है कि क्या उत्तराखण्ड के निर्वाचित प्रतिनिधि उस दिन का इंतजार कर रहे हैं कि आक्रोशित जनता जूते, चप्पल और झाडू लेकर जनता के पैसे और जनता के लिए चलने वाले इस वातानुकूलित सदन में आयें और  इन सब पर अपने गुस्से का इजहार करके जांये। ??? विचारणीय विषय है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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दीक्षित आयोग ने देहरादून को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी के लिए बेहद उपयुक्त शहर बताया है।
स्थायी राजधानी के चयन के लिए वीएन दीक्षित आयोग का गठन किया गया था। इस एक-सदस्यीय आयोग ने संभाव्यता अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी जिसे आज सार्वजनिक कर दिया गया।
9 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड के गठन के वक्त देहरादून को अंतरिम राजधानी बनाया गया। दीक्षित आयोग द्वारा तैयार की गई 80 पृष्ठ की निर्णायक रिपोर्ट के मुताबिक राजधानी के चयन में देहरादून ने अन्य चार शहरों - काशीपुर, रामनगर, गैरसैण और आईडीपीएल ऋषिकेश- को पीछे छोड़ दिया है।
संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत ने रिपोर्ट को सदन में प्रस्तुत किया। स्थायी राजधानी के तौर पर देहरादून को विकसित किए जाने के लिए 1315 करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत होगी जो काशीपुर की तुलना में काफी कम है। काशीपुर को राजधानी की दौड़ में दूसरे श्रेष्ठ स्थान के रूप में चुना गया था।
महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि आयोग को यह रिपोर्ट तैयार करने में आठ साल लगे। आयोग ने स्थायी राजधानी के लिए गैरसैण को उसकी कठिन भौगोलिक परिस्थिति, भूकंपीय आंकड़ों और अन्य कारकों के आधार पर ठुकरा दिया। प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) ने गैरसैण को राज्य की स्थायी राजधानी बनाए जाने के लिए जबरदस्त मुहिम छेड़ी थी।
इसी तरह आयोग ने रामनगर और आईडीपीएल ऋषिकेश जैसे अन्य स्थानों को भी अस्वीकार कर दिया। स्थायी राजधानी के लिए देहरादून को उपयुक्त घोषित किए जाने के पीछे रिपोर्ट में भौगोलिक दशा, आबादी घनत्व, पहुंच, कनेक्टिविटी, भूकंपीय आंकड़े, प्राकृतिक आपदा, जलवायु और विस्तार उद्देश्य के लिए भूमि की उपलब्धता आदि कारण प्रमुख बताए गए हैं।
इधर गैरसैण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग करने वाले उत्तराखंड क्रांति दल ने राजधानी आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ स्थानीय गांधी पार्क में धरना दिया और बाद में जिला मुख्यालय पहुंच कर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के नाम से संबोधित एक ज्ञापन भी दिया

Devbhoomi,Uttarakhand

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जैसा कि आप सब जानते हैं कि लोक सभा चुनाव होने हैं, आजादी को साठ बरस से ज्यादा हो गए हैं और इन साठ बरसों में हमने कितनी ही सरकारें बनती और गिरती देखी हैं पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर डॉक्टर मन मोहन सिंह तक सभी प्रधान मंत्रियों को आप सबने देखा है.  इन साठ सालों में हमें क्या मिला, भरष्टाचार, गुंडा गर्दी ( अब तो नेताओं और गुंडों में फर्क करना भी मुश्किल है), असुरक्षा और कमर तोड़ महंगाई.  समझ नहीं आता कि किसे वोट दें और किसे न दें, सब के सब एक से बढ कर एक.  अपने उत्तराखंड को ही लें हमने पहले कौंग्रेस और अब भाजपा दोनों को ही देख लिया किसी को भी उत्तराखंड से कोई मतलब नहीं है.उदाहरण के लिए दस साल होने को हैं लेकिन राजधानी का मसला अभी तक वहीं का वहीं है.  अभी तक इस बारें में कोई भी अंतिम फैसला नहीं हो सका है.  बातें तो लगातार हो रही हें कि राजधानी गैरसैण बननी चाहिए लेकिन आप अपने दिल पर हाथ रख कर कहिये कि क्या आपको यकीन है कि कभी गैरसैण राजधानी बन पाएगी,  कभी नहीं क्योंकि जब हर साल करोडों रुपये देहरादून में विकास के नाम पर फूंके जा रहे हैं और गैरसैण की तरफ देखने की किसी भी नेता को फुर्सत ही नहीं है. प्राइवेट स्कूलों की मनमानी से कौन से माता पिता आज परेशान नहीं हैं.  कौंग्रेस के राज  में उत्तराखंड में ख़ास तौर पर मैदानी इलाकों में जमीनों को ले कर कैसी मारा मारी मची कि जो उत्तराखंड के लोग थे उनके लिए एक अदद घर के लिए जमीन खरीदना असंभव हो गया था.  भू माफियों ने नेताओं से सांठ गाँठ का रातोंरात लाखों ही नहीं बल्कि करोडों रुपये अंटी कर लिए और बेचारी उत्तराखंड की जनता देखती ही रहगयी.   दोस्तों क्या क्या गिनाएं इन नेताओं की कारगुजारियां.  इस लिए मित्रों अबकी बार वोट जरूर डालना हैं और किसी पार्टी के नाम पर नहीं बल्कि उस उम्मीदवार को जो सबसे कम भरष्ट हो जिसकी छवि सबसे कम खराब हो.  क्योंकि हमें ज्यादा खराब और कम खराब में से ही किसी को चुनना होगा.  बेदाग़ छवि वाला नेता तो आज कोई है ही नहीं.  इस तरह हम बेहद भरष्ट और आपराधिक नेताओं को अपना सन्देश भी दे पायेंगे.     

Devbhoomi,Uttarakhand

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राजधानी वो बला है जो कि एक बार अंगद की तरह पैर जमा दे तो उसे फिर मोहम्द तुगलक जैसे पागल बादषाह ही दिल्ली से तुगलकाबाद खिसका सकते हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी ने भी देहरादून में पांव जमा ही दिये हैं और उसे गैरसैंण ले जाने वाला तुगलक अब षायद ही पैदा हो। राजधानियां एक जगह से दूसरी जगह खिसकाना इतना आसान होता तो हिमाचल की राजधानी कब की षिमला से पालमपुर आ जाती और हरियाणा के लोग दूसरा चण्डीगढ़ बसा देते। जिस तरह पाकिस्तान के लिये कष्मीर स्थाई राजनीति का बहाना है उसी तरह गैरसैंण भी उत्तराखण्ड क्रांति दल जैसे कई दलों के लिये राजनीतिक रोजी का जरिया बनने जा रहा है। यह बात दीगर है कि सत्ता में आते ही उक्रांद के नेताओं का गैरसैंण राग ठण्डा पड़ जाता है। वास्तविकता यह है कि राजधानी के लिये एक नया षहर बसाना आसान नहीं है। जो सरकारें बसे बसाये देहरादून का मास्टर प्लान तक नहीं बना पा रही हैं उनसे इतना बड़ा षहर बसाने की उम्मीद रखना ही फिजूल है। इतने बड़े शहर के लिये हजारों करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी और यह बिना केन्द्रीय मदद के सम्भव नहीं है। केन्द्र सरकार अगर मदद देने वाली होती तो उत्तराखण्ड से पहले हरियाणा को अपनी अलग राजधानी मिलती। नित्यानन्द स्वामी के नेतृत्व में उत्तराखण्ड की पहली सरकार द्वारा 11 जनवरी 2001 को गठित वीरेन्द्र दीक्षित आयोग ने स्थाई राजधानी के बारे में अन्ततः अपनी रिपोर्ट दे ही दी। अगर हाइ कोर्ट बीच में हस्तक्षेप नहीं करता तो पता नहीं कब तक यह आयोग चलता रहता और सूबे में बनने वाली सरकारें अपने सिर की बला आयोग पर डालती रहती। फिर भी आयोग का कार्यकाल राज्य सरकार को 11 बार बढ़ाना पड़ा। हालांकि रिपोर्ट अभी गोपनीय है,क्योंकि इसे विधानसभा में रखा जाना है।यह भी अनिष्चित है कि रिपोर्ट का जिन्न कभी सरकार की आलमारी से बाहर आयेगा भी या नहीं। लेकिन सत्ता के गलियारों से जो सूचनाऐं छन कर आ रही हैं उनके अनुसार दीक्षित आयोग ने भी किसी एक स्थान के बारे में सिफारिष करने के बजाय चारों स्थानों के गुण दोष बता कर निर्णय फिर सरकार पर छोड़ दिया। दरअसल उत्तराखण्ड की जनता के साथ 9 नवम्बर 200 को उस समय ही छलावा हो गया था जब तत्कालीन सरकार ने दो अन्य नये राज्यों के साथ उत्तरांचल राज्य के गठन की घोषणा की थी। उस समय की सरकार ने छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की राजधानियों की तो घोषणा कर दी मगर उत्तराखण्डियों को बिना राजधानी का राज्य थमा दिया। अगर उस समय की केन्द्र सरकार जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैण को भावी राजधानी भी घोषित कर देती तो कम से कम गैरसैण पर सैद्धान्तिक सहमति मिल जाती और इस नये राज्य की भावी सरकारों को केन्द्र से राजधानी के लिये धन मांगने का यह आधार मिल जाता कि गैरसैंण या कहीं और भी राजधानी बनाने का वायदा आखिर केन्द्र ने ही किया था। लेकिन उस समय की बाजपेयी सरकार जनता के साथ राजनीति खेल गयी और उसने उत्तराखण्डियों के गले में सदा के लिये यह मामला लटका दिया। बाजपेयी सरकार ने हरिद्वार को उत्तराखण्ड में मिला कर दूसरा छल किया और इसका नाम उत्तरांचल रख कर पहाड़ के लोगों पर तीसरी चपत मारी। यह सही है कि आज की तारीख में देहरादून से अंगद का यह पांव खिसकाना लगभग नामुमकिन हो गया है। कांग्रेस या फिर भाजपा की सरकारें चाहे जो बहाना बनायें मगर हकीकत यह है कि देहरादून में ही राजधानी रम गयी है और उसकी सारी अवसंरचना यहीं जुटाई जा रही है। नयी विधानसभा और सचिवालय विस्तार के लिये राजपुर रोड पर जमीन का अधिग्रहण तक हो चुका था मगर मामला अदालत में चला गया। इसी दौरान देहरादून में विधायक होस्टल बन गया। सचिवालय का नया भवन भी चालू हो गया।सर्किट हाउस परिसर में ही नया राजभवन बन कर पूर्ण होने वाला है। मुख्यमंत्री खण्डूड़ी ने पहले तो सर्किट हाउस परिसर में पुराने मुख्यमंत्री आवास पर जाने के बजाय वहीं तोड़ फोड़ करा कर नया ढांचा बनवाया और अब दूसरे आलीषान निवास के लिये 15 करोड़ का ठेका दे दिया। मुख्यमंत्री का निवास राजधानी में ही होता है और जब राज करने वाले ने देहरादून में ही रहना है तो राजधानी कैसे बाहर जा सकती है। दरअसल न तो सरकार के पास जनता को सच्चाई बताने की हिम्मत है और ना ही गैरसैंण समर्थक दल सच्चाई जानने को इच्छुक हैं। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने यह सच्चाई बताने की कोषिष की तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा और अन्ततः वह भी चुप हो गये। उत्तराखण्ड क्रांति दल(उक्रांद) स्वयं को गैरसैंण का अकेला झण्डाबरदार बताता है लेकिन यह सच होता तो जिस दिन खण्डूड़ी ने नये मुख्यमंत्री निवास का षिलान्यास किया था उसी दिन सरकार में बैठे उक्रांद मंत्री दिवाकर भट्ट का इस्तीफा हो जाता। इस्तीफा देना तो रहा दूर अब दिवाकर और उनके समर्थक दूसरे बहानों से मामले पर लीपा पोती कर रहे हैं। यही नहीं एक बार तो दिवाकर ने यहां तक कह दिया था कि अगर गैरसैंण वालों को ही राजधानी की जरूरत होती तो वहां से विधानसभा चुनाव में उक्रंाद की जमानत जब्त नहीं होती और उसके प्रत्याषी को मात्र एक हजार वोट नहीं मिलते। यही नहीं एक बार उक्रांद नेताओं ने यह भी चलाया कि राजधानी गैरसैंण के 50 कि.मी. के दायरे में कहीं भी हो सकती है। जबकि उक्रांद गैरसैंण में राजधानी का प्रतीकात्मक षिलान्यास कर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर से उसका नामकरण भी कर चुका है। वास्तव में गैरसैंण का मामला भावनात्मक अधिक है। लोगों की आम धारणा यह है कि पहाड़ की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिये। इसके पीछे सोच यह है कि मैदानी क्षेत्र की राजधानी में पहाड़ के लोगों की भावनाओं को उपेक्षा होगी और सत्ता पर मैदान के धन्ना सेठांे या फिर माफिया का कब्जा रहेगा। इस सम्बन्ध में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि उत्तराखण्ड आन्दोलन के पीछे आर्थिक और भौगोलिक कारणेंा के अलावा सांस्कृतिक पहचान का भी सवाल था। लोग इसे ठेठ पहाड़ी राज्य बनाना चाहते थे जिसमंे वे अपना अक्स देख सकें। देखा जाय तो वास्तव में उत्तराखण्ड के लोग देहरादून में अपने सपनों के राज्य की तस्बीर नहीं देख पा रहे हैं। दीक्षित आयोग के समक्ष आये प्रतिवेदनों में से आधे से अधिक गैरसैंण के पक्ष में हैं। जोकि यह साबित करता है कि आज भी जन भावना गैरसैंण के ही पक्ष में है। राजधानी आयोग ने गैरसैंण के अलावा देहरादून, रामनगर और आई.डी.पी.एल. ऋषिकेष के विकल्पों पर अध्ययन किया था। इसमें उसने दिल्ली स्कूल आफ प्लानिंग एण्ड आर्किटैक्चर की मदद लेने के अलावा भूगर्व विभाग से भी सलाह ली। इसके अलावा आयोग ने जनता के बीच जाकर जनता से भी राय मांगी। दीक्षित आयोग ने कनैक्टिविटी के लिहाज से स्थलीय स्थिति, भौतिक संरचना, आर्थिक सामाजिक पहलू और पर्यावरणीय आइने में इन चार स्थानों का अध्ययन किया। इनमें अत्यधिक उपयुक्त के लिये 100 में से 60 अंक उपयुक्त के लिये 45 से 59 कम उपयुक्त के लिये 35 से 44 तथा अनुपयुक्त के लिये 35 से कम अंक का मानक तय किया था। आयोग ने राजधानी के लिये 360 से लेकर 500 हैक्टेअर जमीन की जरूरत बताई थी। ऐसा नहीं कि गैरसैंण के साथ केवल भावनाओं का सवाल हो। इसके पीछे वही सेाच है जोकि पृथक राज्य की मांग के पीछे थी। लोग सोचते थे कि जिस तरह पहाड़ से मिट्टी और पानी के साथ जवानी भी बह कर मैदान में आ रही है, उसी तरह संसाधन और तरक्की के साधन भी नीचे आ रहे हैं। इसलिये अगर पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो तो तरक्की के सभी साधन वापस पहाड़ में आ जायेंगे। जो धन बह कर नीचे आ रहा है वह वापस आ जायेगा। हिमाचल उत्तराखण्डियों के लिये एक उदाहरण था। वहां सबका रुख पहाड़ पर बने षिमला की और होता है। अगर वहां साधन नहीं हैं तो वे वहीं जुटाये जा सकते हैं। सड़क नहीं है या रेल नहीं है तो इन सधनों को वहां पंहुंचाया जा सकता है। राजधानी पहाड़ में होने से लोगों का पलायन रुकता। हरिद्वार में जनसंख्या का घनत्व 600 के करीब है जबकि जोषीमठ जैसे सीमान्त ब्लाक में यह 25 से कम है जो कि सामरिक दृष्टि से भी खतरनाक है। बहरहाल दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंप दी है और गेंद पूरी तरह खण्डूड़ी सरकार के पाले में है। अब देखना यह है कि रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डालने के लिये क्या उपाय पैदा होता है। लेकिन इतना तो तय मान लेना चाहिये कि इस मामले में कभी फैसला होने वाला नहीं है। उत्तराखण्ड के नेता अभी मैदान के इतने प्रभाव में हैं आगे पहाड़ से विधायकों की 9 सीटें कम हो रही हैं और पलायन नहीं रुकने से पहाड़ों को अभी और निर्जन होना है और नीचे मैदान के हाथ सत्ता की कुंजी लगनी है। उस हालत में पहाड़ की राजघानी पहाड़ ले जाना असम्भव हो जायेगा। इसलिये सरकार का दायित्व है कि वह केवल सच्चाई बयां करे।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Devbhoomi Ji.

Thanks a lot for your detailed views. Today again, there is sound from each corner of UK that Capital must be shifted to Gairsain.

राजधानी वो बला है जो कि एक बार अंगद की तरह पैर जमा दे तो उसे फिर मोहम्द तुगलक जैसे पागल बादषाह ही दिल्ली से तुगलकाबाद खिसका सकते हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी ने भी देहरादून में पांव जमा ही दिये हैं और उसे गैरसैंण ले जाने वाला तुगलक अब षायद ही पैदा हो। राजधानियां एक जगह से दूसरी जगह खिसकाना इतना आसान होता तो हिमाचल की राजधानी कब की षिमला से पालमपुर आ जाती और हरियाणा के लोग दूसरा चण्डीगढ़ बसा देते। जिस तरह पाकिस्तान के लिये कष्मीर स्थाई राजनीति का बहाना है उसी तरह गैरसैंण भी उत्तराखण्ड क्रांति दल जैसे कई दलों के लिये राजनीतिक रोजी का जरिया बनने जा रहा है। यह बात दीगर है कि सत्ता में आते ही उक्रांद के नेताओं का गैरसैंण राग ठण्डा पड़ जाता है। वास्तविकता यह है कि राजधानी के लिये एक नया षहर बसाना आसान नहीं है। जो सरकारें बसे बसाये देहरादून का मास्टर प्लान तक नहीं बना पा रही हैं उनसे इतना बड़ा षहर बसाने की उम्मीद रखना ही फिजूल है। इतने बड़े शहर के लिये हजारों करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी और यह बिना केन्द्रीय मदद के सम्भव नहीं है। केन्द्र सरकार अगर मदद देने वाली होती तो उत्तराखण्ड से पहले हरियाणा को अपनी अलग राजधानी मिलती। नित्यानन्द स्वामी के नेतृत्व में उत्तराखण्ड की पहली सरकार द्वारा 11 जनवरी 2001 को गठित वीरेन्द्र दीक्षित आयोग ने स्थाई राजधानी के बारे में अन्ततः अपनी रिपोर्ट दे ही दी। अगर हाइ कोर्ट बीच में हस्तक्षेप नहीं करता तो पता नहीं कब तक यह आयोग चलता रहता और सूबे में बनने वाली सरकारें अपने सिर की बला आयोग पर डालती रहती। फिर भी आयोग का कार्यकाल राज्य सरकार को 11 बार बढ़ाना पड़ा। हालांकि रिपोर्ट अभी गोपनीय है,क्योंकि इसे विधानसभा में रखा जाना है।यह भी अनिष्चित है कि रिपोर्ट का जिन्न कभी सरकार की आलमारी से बाहर आयेगा भी या नहीं। लेकिन सत्ता के गलियारों से जो सूचनाऐं छन कर आ रही हैं उनके अनुसार दीक्षित आयोग ने भी किसी एक स्थान के बारे में सिफारिष करने के बजाय चारों स्थानों के गुण दोष बता कर निर्णय फिर सरकार पर छोड़ दिया। दरअसल उत्तराखण्ड की जनता के साथ 9 नवम्बर 200 को उस समय ही छलावा हो गया था जब तत्कालीन सरकार ने दो अन्य नये राज्यों के साथ उत्तरांचल राज्य के गठन की घोषणा की थी। उस समय की सरकार ने छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की राजधानियों की तो घोषणा कर दी मगर उत्तराखण्डियों को बिना राजधानी का राज्य थमा दिया। अगर उस समय की केन्द्र सरकार जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैण को भावी राजधानी भी घोषित कर देती तो कम से कम गैरसैण पर सैद्धान्तिक सहमति मिल जाती और इस नये राज्य की भावी सरकारों को केन्द्र से राजधानी के लिये धन मांगने का यह आधार मिल जाता कि गैरसैंण या कहीं और भी राजधानी बनाने का वायदा आखिर केन्द्र ने ही किया था। लेकिन उस समय की बाजपेयी सरकार जनता के साथ राजनीति खेल गयी और उसने उत्तराखण्डियों के गले में सदा के लिये यह मामला लटका दिया। बाजपेयी सरकार ने हरिद्वार को उत्तराखण्ड में मिला कर दूसरा छल किया और इसका नाम उत्तरांचल रख कर पहाड़ के लोगों पर तीसरी चपत मारी। यह सही है कि आज की तारीख में देहरादून से अंगद का यह पांव खिसकाना लगभग नामुमकिन हो गया है। कांग्रेस या फिर भाजपा की सरकारें चाहे जो बहाना बनायें मगर हकीकत यह है कि देहरादून में ही राजधानी रम गयी है और उसकी सारी अवसंरचना यहीं जुटाई जा रही है। नयी विधानसभा और सचिवालय विस्तार के लिये राजपुर रोड पर जमीन का अधिग्रहण तक हो चुका था मगर मामला अदालत में चला गया। इसी दौरान देहरादून में विधायक होस्टल बन गया। सचिवालय का नया भवन भी चालू हो गया।सर्किट हाउस परिसर में ही नया राजभवन बन कर पूर्ण होने वाला है। मुख्यमंत्री खण्डूड़ी ने पहले तो सर्किट हाउस परिसर में पुराने मुख्यमंत्री आवास पर जाने के बजाय वहीं तोड़ फोड़ करा कर नया ढांचा बनवाया और अब दूसरे आलीषान निवास के लिये 15 करोड़ का ठेका दे दिया। मुख्यमंत्री का निवास राजधानी में ही होता है और जब राज करने वाले ने देहरादून में ही रहना है तो राजधानी कैसे बाहर जा सकती है। दरअसल न तो सरकार के पास जनता को सच्चाई बताने की हिम्मत है और ना ही गैरसैंण समर्थक दल सच्चाई जानने को इच्छुक हैं। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने यह सच्चाई बताने की कोषिष की तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा और अन्ततः वह भी चुप हो गये। उत्तराखण्ड क्रांति दल(उक्रांद) स्वयं को गैरसैंण का अकेला झण्डाबरदार बताता है लेकिन यह सच होता तो जिस दिन खण्डूड़ी ने नये मुख्यमंत्री निवास का षिलान्यास किया था उसी दिन सरकार में बैठे उक्रांद मंत्री दिवाकर भट्ट का इस्तीफा हो जाता। इस्तीफा देना तो रहा दूर अब दिवाकर और उनके समर्थक दूसरे बहानों से मामले पर लीपा पोती कर रहे हैं। यही नहीं एक बार तो दिवाकर ने यहां तक कह दिया था कि अगर गैरसैंण वालों को ही राजधानी की जरूरत होती तो वहां से विधानसभा चुनाव में उक्रंाद की जमानत जब्त नहीं होती और उसके प्रत्याषी को मात्र एक हजार वोट नहीं मिलते। यही नहीं एक बार उक्रांद नेताओं ने यह भी चलाया कि राजधानी गैरसैंण के 50 कि.मी. के दायरे में कहीं भी हो सकती है। जबकि उक्रांद गैरसैंण में राजधानी का प्रतीकात्मक षिलान्यास कर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर से उसका नामकरण भी कर चुका है। वास्तव में गैरसैंण का मामला भावनात्मक अधिक है। लोगों की आम धारणा यह है कि पहाड़ की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिये। इसके पीछे सोच यह है कि मैदानी क्षेत्र की राजधानी में पहाड़ के लोगों की भावनाओं को उपेक्षा होगी और सत्ता पर मैदान के धन्ना सेठांे या फिर माफिया का कब्जा रहेगा। इस सम्बन्ध में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि उत्तराखण्ड आन्दोलन के पीछे आर्थिक और भौगोलिक कारणेंा के अलावा सांस्कृतिक पहचान का भी सवाल था। लोग इसे ठेठ पहाड़ी राज्य बनाना चाहते थे जिसमंे वे अपना अक्स देख सकें। देखा जाय तो वास्तव में उत्तराखण्ड के लोग देहरादून में अपने सपनों के राज्य की तस्बीर नहीं देख पा रहे हैं। दीक्षित आयोग के समक्ष आये प्रतिवेदनों में से आधे से अधिक गैरसैंण के पक्ष में हैं। जोकि यह साबित करता है कि आज भी जन भावना गैरसैंण के ही पक्ष में है। राजधानी आयोग ने गैरसैंण के अलावा देहरादून, रामनगर और आई.डी.पी.एल. ऋषिकेष के विकल्पों पर अध्ययन किया था। इसमें उसने दिल्ली स्कूल आफ प्लानिंग एण्ड आर्किटैक्चर की मदद लेने के अलावा भूगर्व विभाग से भी सलाह ली। इसके अलावा आयोग ने जनता के बीच जाकर जनता से भी राय मांगी। दीक्षित आयोग ने कनैक्टिविटी के लिहाज से स्थलीय स्थिति, भौतिक संरचना, आर्थिक सामाजिक पहलू और पर्यावरणीय आइने में इन चार स्थानों का अध्ययन किया। इनमें अत्यधिक उपयुक्त के लिये 100 में से 60 अंक उपयुक्त के लिये 45 से 59 कम उपयुक्त के लिये 35 से 44 तथा अनुपयुक्त के लिये 35 से कम अंक का मानक तय किया था। आयोग ने राजधानी के लिये 360 से लेकर 500 हैक्टेअर जमीन की जरूरत बताई थी। ऐसा नहीं कि गैरसैंण के साथ केवल भावनाओं का सवाल हो। इसके पीछे वही सेाच है जोकि पृथक राज्य की मांग के पीछे थी। लोग सोचते थे कि जिस तरह पहाड़ से मिट्टी और पानी के साथ जवानी भी बह कर मैदान में आ रही है, उसी तरह संसाधन और तरक्की के साधन भी नीचे आ रहे हैं। इसलिये अगर पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो तो तरक्की के सभी साधन वापस पहाड़ में आ जायेंगे। जो धन बह कर नीचे आ रहा है वह वापस आ जायेगा। हिमाचल उत्तराखण्डियों के लिये एक उदाहरण था। वहां सबका रुख पहाड़ पर बने षिमला की और होता है। अगर वहां साधन नहीं हैं तो वे वहीं जुटाये जा सकते हैं। सड़क नहीं है या रेल नहीं है तो इन सधनों को वहां पंहुंचाया जा सकता है। राजधानी पहाड़ में होने से लोगों का पलायन रुकता। हरिद्वार में जनसंख्या का घनत्व 600 के करीब है जबकि जोषीमठ जैसे सीमान्त ब्लाक में यह 25 से कम है जो कि सामरिक दृष्टि से भी खतरनाक है। बहरहाल दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंप दी है और गेंद पूरी तरह खण्डूड़ी सरकार के पाले में है। अब देखना यह है कि रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डालने के लिये क्या उपाय पैदा होता है। लेकिन इतना तो तय मान लेना चाहिये कि इस मामले में कभी फैसला होने वाला नहीं है। उत्तराखण्ड के नेता अभी मैदान के इतने प्रभाव में हैं आगे पहाड़ से विधायकों की 9 सीटें कम हो रही हैं और पलायन नहीं रुकने से पहाड़ों को अभी और निर्जन होना है और नीचे मैदान के हाथ सत्ता की कुंजी लगनी है। उस हालत में पहाड़ की राजघानी पहाड़ ले जाना असम्भव हो जायेगा। इसलिये सरकार का दायित्व है कि वह केवल सच्चाई बयां करे।

हेम पन्त

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UKD worker held for raising slogans in Assembly
« Reply #278 on: July 18, 2009, 11:26:03 AM »
Source : PTI

Dehra Dun, Jul 17 (PTI) A UKD worker was today arrested for throwing pamphlets and raising slogans in the Uttarakhand assembly in support of his party's demand of making Gairsain as the permanent capital of Uttarakhand.

When the House reassembled for the post-lunch session, Jaiprakash Upadhyay, who was watching the proceedings from the gallary, threw pamphlets and raised slogans.

He was immediately taken into the police custody.

Later, Parliamentary Affairs Minister Prakash Pant urged members to exercise precaution while recommending names for issuance of passes for Vidhan Sabha so that such incidents should not recur.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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POST FROM GAURVA PANDEY
====================


gaurav pande <reachgauravpande@yahoo.com>    hide details  11:34 pm (5 hours ago) 
 reply-to  kumaoni-garhwali@yahoogroups.com   
 to  kumaoni-garhwali@yahoogroups.com   
 date  Jul 18, 2009 11:34 PM   
 subject  Re: [Kumauni-Garhwali] UTTARAKHAND CAPITAL ISSUE   
 signed-by  yahoogroups.com   
 mailed-by  returns.groups.yahoo.com   

 jai uttrakhand

bhai ;logo capital emotion is good but capital must that connectivity is must. pehle tempory capital us ke bad capital yeh kuch nahi lal pheeta sahi ka paisha kamane ka tareeka hai jis she commetie pe connete ban te rahe aur un ka kam chalta rahe aur kuch nahi
uttrakhand mein berojgari ek aham mooda hai jo hamesha se najarandaj keya gaya hai us par kishi ka dhayan nahi gaya aur kitne kam hai jo karne chaiye

i think dehradun is best connectivity in the point o f developemt
there is no need of change
thanks
try to remove berojgari first and come to profitable budget session 

 

 

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