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Author Topic: Uttarakhand now one Decade Old- दस साल का हुआ उत्तराखण्ड, आइये करें आंकलन  (Read 28641 times)

पंकज सिंह महर

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उत्‍तराखंड : निराशा के निर्माण का दशक
Sunday, 07 November 2010 18:28 दीपक आजाद
 
नीड़ नहीं, निराशा के निर्माण का दशक, यह कहना है 15 अगस्त, 1947 को मुल्क की आजादी के संग अपना सफर शुरू करने वाले युगवाणी पत्र का। साप्ताहिक से मासिक पत्र के रूप में अपने दस साल पूरे करने जा रही इस पत्रिका ने एक राज्य के रूप में उत्तराखंड की दस वर्ष की यात्रा का विश्लेषण इस तरह किया है। कुछ ऐसा ही तहलका ने भी निराशा के भाव प्रकट किए हैं।

ये बताते हैं, जिन उम्मीदों की रोशनी लिये यह राज्य बना था, वह विवेकहीन राजनीतिकों का अखाड़ा बनकर रह गया है। सीमित संसाधनों से चलने वाले इन पत्रों का यह आकलन उन बड़े़ मीडिया घरानों की गुलाबी तस्वीरों से जुदा है, जो वे अपने पन्नों पर साया करते हैं।

देहरादून से प्रकाशित युगवाणी अपने संपादकीय में कहता है,‘ उत्तराखंड अपने जन्म की दसवीं वर्षगांठ मना रहा है। अपने सपनों के राज्य से कहीं बहुत दूर। एक खतरा और बढ़ गया है। बांध निर्माण के बहाने नये मालिक भीतर आ गए हैं। नागरिकों को अपनी जमीन पर बुनियादी हक हासिल  नहीं हो पाते हैं और उद्योग के नाम पर बड़े उद्योग घराने आराम से हर कहीं कानून से उपर उठकर काबिज हो जाते हैं।'

'नीड़ नहीं, निराशा के निर्माण का दशक' शीर्षक से पत्रिका के मुख्य आलेख में वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश चंद्र जुगरान कहते हैं, 'इन दस सालों में हम  अपनी उद्यमी छवि नहीं गढ़ पाए और अविभाजित उत्तर प्रदेश की कार्बन कॉपी बनकर रह गए। अब तक का तजुर्बा तो यही कह रहा है कि हमने नए राज्य में नेतृत्व नहीं, सिर्फ नेता तैयार किए और उसी अनुपात में उनके भ्रष्ट चाटुकारों की एक पूरी फौज। इन गारे-घंतरों से पटी कच्ची नींव पर किले का ख्वाब देखें तो भला कैसे?'

राज्य आंदोलनकारी पत्रकार जय प्रकाश उत्तराखंडी बताते हैं, कैसे एक के बाद एक सरकारों ने चपरासी व क्लर्की की कुर्सी थमाकर जनता की बेहतरी के लिए मरने-खपने को तैयार रहने वाले आंदोलनकारी ताकतों को भिखारी बना दिया। ऐसे लोग सरकारी नौकरी बजा रहे हैं और जनता की आवाज कहीं गुम सी हो गई है। जगमोहन रातैला, योजनाकारों के विवेक पर सवाल खड़ा करते हैं तो रजपाल बिष्ट एक दशक बाद भी गैरसैंण को राज्य की राजधानी न बनाए जाने पर पृथक राज्य की अवधारणा के नेपथ्य में धकेले जाने को इंगित करते हैं। पत्रिका के संपादक संजय कोठियाल हैं। उत्तराखंड को समझने के लिए यह एक जरूरी पत्रिका है। हालांकि कुछ किन्तु-परंतु की गुजाइश हर कहीं होती है।

अपनी जनसरोकारी पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले 'तहलका' ने भी दस साल के इस राज्य की विभिन्न पहलुओं से पड़ताल की है। तहलका कहता है, ''राज्य के दस साल की यात्रा को कतई आशाजनक नहीं कहा जा सकता है। इन दस साल में सरकारों और उसके तंत्र को चलाने वालों पर आम आदमी का भरोसा कम होता गया है। राज्य में एक विशिष्ट शासक वर्ग पैदा हो गया है, जो अब आम जन की नाराजगियों के लिए संवेदनहीनता की सीमा को पार कर 'जनता की कौन परवाह करता है' या 'जनता तो कहती है रहती है' की बेशर्मी तक पहुंच चुका है। यह बेशर्मी जारी रही तो राज्य को ले डूबेगी।''

नेतृत्व व नौकरशाही के सवाल पर तहलका में ही पृथक राज्य गठन का आधार बनी कौशिक कमेटी के सचिव रहे और बाद में राज्य के मुख्य सचिव से होते हुए मुख्य सूचना आयुक्त के पद से मुक्त हुए डॉ आर एस टोलिया जो कहते हैं उस पर गौर करने की कई वजहें हैं। जैसे वे राज्य के अहम ओहदों पर रहे और वे इस पृथक राज्य के उस हिस्से पिथारौगढ़ के मूल निवासी हैं, जिसके लिए आज भी देहरादून की यात्रा उतनी ही मुश्किल है, जितनी लखनऊ या दिल्ली की। टोलिया कहते हैं, 'यदि पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा को नए राज्य के गठन का आधार माना जाय तो ये दस साल एक बड़ी सीमा तक असपफलता के ही वर्ष कहे जाएंगे।' डॉ टोलिया राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच गंभीर संवादहीनता व आने वाले दिनों में गंभीर वित्तीय संकट की ओर इशारा करते हैं।
जागरण समूह का टेबलायड अखबार 'आई नेक्स्ट' के कुणाल वर्मा राज्य में पॉवर प्रोजेक्ट को लेकर हो रही राजनीति पर सवाल उठाते हुए एक रिपोर्ट में कहते हैं, 'यह विकास की कड़वी सच्चाई है, जिसमें ख्वाबों के आशियानों के उजड़ने का दर्द है। पलायन की राह है। बर्बादी का दंश है। सरकार की अदूरदर्शिता और पर्यावरण संरक्षण की राजनीति है। साथ ही एक ऐसा सवाल जो उत्तराखंड की युवा पीढ़ी सरकार से पूछ रही है। क्या यही विकास का सच है?‘

इन निराशाजनक कतरनों से सवाल उठता है क्या इन दस वर्षों में उत्तराखंड अपनी राह भटक गया है? जैसे कुछ लोग इसके गठन के समय ही आशंकाएं जाहिर कर रहे थे। और क्या अपनी विषम भौगोलिकता के चलते यह हिमालयी राज्य भविष्य में दिल्ली के लिए नई चुनौती बनने जा रहा है?

बड़े अखबारों से इतर इस हिमालयी राज्य में क्या कुछ लिखा और सोचा जा रहा है, उससे उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर लोगों को समझना जरूरी है। यह उन समूहों के लिए भी उतना ही जरूरी है जो तेलंगाना से लेकर गोरखालैंड व बुंदेलखंड तक अलग राज्य की लड़ाई लड़ रहे हैं। ताकि पता चल सके कि छोटे राज्य जरूरी नहीं कि विकास की गारंटी लिए ही पैदा होते हैं।

लेखक दीपक आजाद हाल-फिलहाल तक दैनिक जागरण, देहरादून में कार्यरत थे. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.

साभार- http://bhadas4media.com/print/7264-2010-11-07-12-58-20.html

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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हे राम...

राज्य का हाल तो खस्ता है मुख्य मंत्री जनाब निशक साब अपनी उपलब्धियों को गिनाने के लिए राष्टीय न्यूज़ चैनेलो में विज्ञापन चला रहे है!

कहते है प्रति व्यक्ति आमदनी २ से बड़कर ९ तक चली गयी है! भाई साब को कैसे.. इन आकड़ो में किसो बेकूफ बना रहे है! जनता एव भगवान् दोनों जानती है अभी उत्तराखंड में मनी आर्डर से ही लोगो के घरो तक पैसे आते है, राज्य में आमदनी के कैसे कौन से साधन है भला जिसे प्रति व्यक्ति आय बड गयी है !

आपको अगली बार मुख्या मंत्री तो बनाना नहीं है यह जनता ने भी ठान ली !

आपके कई विभागों में कर्मचारियों को अभी तक वेतन नहीं मिला और आप करोड़ो रूपये के विज्ञापन छाप रहे है !

वाह वाह . निशंक साब... विकास पुरुष

भावी नोबेल पुरुष्कार के दावेदार ! खूब

पंकज सिंह महर

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राज्य का वास्तविक चित्रण करता शेफाली पाण्डे जी का एक लेख-

दस साल चढ़े अढाई कोस .....शेफाली

शीर्षक पर चौकें  नहीं क्यूंकि  व्यंग्यकारों को यह सुविधा होती है कि वे कहावतों और मुहावरों को अपनी आवश्यकतानुसार किसी भी रूप में तोड़ मरोड़ सकते हैं | कल यानि ९ नवम्बर को उत्तराखंड राज्य को बने पूरे दस साल हो गए | राज्य के विकास संबंधी कई काम हुए, जिनकी चर्चा पोस्टरों में अधिक और अखबारों में  सबसे अधिक हुई | 
 
राज्य ने  दस साल में दसमुखी विकास किया | राज्य की सबसे बड़ी उपलब्धि पाँच दूनी दस की रही  | दस साल में पाँच मुख्यमंत्री बने | बड़ी मुश्किल से बच्चों को मार - पीट कर माननीय  जी का नाम याद करवाया | उनका नाम याद हो सका तो मुख्यमंत्री बदल गए | देश  ने पहले राज्य के लिए आम आदमी का अदभुद आन्दोलन देखा  फिर कुर्सी के लिए  नेताओं की अभूतपूर्व जंग देखी |
 
राज्य में खूब पैदावार हुई | नेताओं की इतनी रिकोर्ड़तोड़ लहलहाती फसल पिछले  कई दशकों  में भी नहीं देखी गई | चप्पे - चप्पे पर कोई न कोई भूतपूर्व और  वर्तमान नेता उगा हुआ है |  जहाँ जगह छूटी है वहाँ भविष्य की फसल के बीज बोए जा चुके हैं | आने वाले वर्षों में भी पैदावार अच्छे होने की पूरी संभावना है |
 
कुछ ख़ास नहीं करने वालों या कुछ नहीं करने वालों के पास सब कुछ ख़ास है | ख़ास गाड़ियां, खास जगहों पर ज़मीनें, ख़ास डिज़ाइन के बंगले, खासमखास बीबियाँ, ख़ास स्कूलों में पढ़ते बच्चे | सिर से लेकर पैर तक सब कुछ ख़ास |
 
राज्य में उद्योग धंधों का बहुत विकास हुआ | सरकारी विभागों में  स्थानांतरण  ने एक उद्योग का रूप ले लिया है | हर जगह के दाम फिक्स | कोई सौदेबाजी की संभावना नहीं, किसी भी प्रकार की कोई सिफारिश मान्य नहीं  |
 
सिडकुल बने | कई कम्पनियां सब्सिडी हजम कर गायब हो गई | कई कागजों में ही बन पाईं | कुछ बची  रह गई जिनमें कुछ  स्थानीय लोगों को भी रोज़गार मिला | जिन्हें नहीं मिला वे कंपनियों के बाहर अनशन पर बैठ गए | अनशन से उठने का मुआवजा वसूला गया | रोज़गार मिलने पर काम करना पड़ता है | आठ - दस लोगों को लेकर गेट  पर बैठना अधिक  सुविधाजनक उद्योग सिद्ध हुआ  |
 
पहाड़ की प्रतिभाओं ने अपनी छिपी हुई योग्यताओं को पहचानना सीखा | प्रतिभा  पहले से थी, उचित अवसर नहीं थे | राज्य बनने के बाद ये प्रतिभाएं पल्लवित और पुष्पित हुईं |
जिन पहाड़ों ने कभी पुलिस नहीं देखी थी, वहाँ चोरी, लूट पाट, मार - काट, हत्याएं, डकैतियां, अपहरण, बलात्कार,  सब कुछ होने लगा | पहाड़ की प्रतिभाओं ने विदेशों में तक नाम कमाया |

सबसे ज़्यादा  प्रगति पर्यटन उद्योग में हुई क्यूंकि पहाड़ों  की अधिकाँश अर्थव्यवस्था पर्यटन पर टिकी होती है  | खेती करके दो रोटी  चैन से खाने वालों ने अपनी ज़मीनों को कौड़ियों के भाव महानगरों में बसे उद्योगपतियों और रईसों को बेच दी |  ये साल में बस  दस - पंद्रह दिन के लिए आते हैं | बाप - दादाओं  ने बहुत केयर  से जिस ज़मीन को पाला - पोसा,  इस पीढ़ी के लोग उन पर बने बंगलों और रिसोर्टों  के केयर टेकर हो गए | 
 
राज्य का निर्माण एक बहुत बड़े आन्दोलन के फलस्वरूप हुआ  | राज्य बनने के साथ ही रोज़गार की उम्मीदें भी जगीं | जिन्होंने आन्दोलन के दौरान लाठियां खाईं या जो जेल गए, उन्हें सरकारी नौकरियां मिलीं | जो जेल का सर्टिफिकेट नहीं बनवा पाए, उन्हें रोज़गार नहीं मिला | ये लोग जोर - शोर से कहा करते थे कि हम  लेकिन अपने राज्य में आलू - मूली का पानी पीकर और सूखी रोटी खाकर रह लेंगे लेकिन यू . पी के साथ नहीं रहेंगे   |  इस प्रकार  से हताश युवा शक्ति ने  राज्य गठन के एक साल बाद ही यह घोषणा कर दी कि राज्य का निर्माण गलत हो गया | इससे तो यू. पी. के साथ ही भले थे | अब ये यू. पी. वाले ही बता सकते है कि वे वहाँ कितना भला महसूस करते हैं |     
 
नवनिर्मित राज्य में अपार संभावनाएं छिपी हुई थीं, जिन्हें ढूंढ - ढूंढ कर निकाला गया | इस समय आयात  - निर्यात अपने चरम  पर पहुँच चुका है | दुर्लभ जड़ी - बूटियाँ, शराब, लीसा, लकड़ी, लड़कियाँ, जानवरों की खालें, कब्ज़े, अवैध खनन, सब में व्यापार की अपार  संभावनाएं निकल आईं  |
 
निर्माण कार्य भी द्रुत गति से हुआ | बाढ़ नहीं  आई होती तो और भी द्रुत गति से होता | विगत कई वर्षों से बाढ़ ने नई - नवेली सड़कों और बड़े - बड़े पुलों की पोल ना खुल जाए इस वजह से आना छोड़ दिया था | सत्ता से दूर पार्टी वाले यह मानते हैं कि उत्तराखंड में बाढ़ से जितना नुकसान नहीं हुआ, उसी कई गुना मदद माँगी गई | यह बाढ़ उनके शासनकाल में आई होती तो वे बाढ़ से हुए नुकसान का सही आंकलन करते | पैसा अवमुक्त ना होने पाए इसके लिए हड़ताल, मौन प्रदर्शन, काली पट्टियां, घेराव सब कुछ करेंगे | विधान सभा नहीं चलने देंगे | उन्हें मन ही मन यह गम है कि उनके शासन  काल  में ना ऐसी बाढ़ आई न  सूखा पड़ा | प्रकृति ने भी उनके साथ अन्याय किया | 
 
शानदार गाड़ियों में लाल बत्तियां और छोटी - मोटी कारों में लाल पट्टियां जिन पर कोई ना कोई पार्टी का पद अंकित होता है, सड़कों पर फर्राटे से दौडती दिखती  हैं | कारों के मॉडल  से ज्यादा अहमियत इन पट्टिओं  को मिलने लगी | पत्ती या बत्ती देखते ही आम आदमी रास्ता छोड़ देता है |
 
प्रतिभा पलायन बंद हो गया | जो प्रतिभाएं राज्य बनने से पहले सड़कों पर आवारा घूमा करतीं थीं, हर जुलूस में शामिल होकर नारे लगाती थी | पथराव करने का एक भी अवसर नहीं गंवातीं थी, अब बड़े बड़े पोस्टरों पर शान से मुस्कुराते हुए नज़र आती है | इन प्रतिभाओं को अपने ऊपर इतना भरोसा है कि अब ये जनता के आगे हाथ जोड़ने की तक जहमत नहीं उठाती |
 
मातृ  शक्ति  के उत्थान के लिए भी बहुत सी योजनाएं बनाईं  गईं | कई जगह  आरक्षण दिया गया | पंचायतों में महिलाओं के स्थान पर फलाने - फलाने की  पत्नियों को इस आरक्षण का सर्वाधिक लाभ मिला | दबंगों की विधवाओं ने भी सिर पर पल्लू रखकर कई महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा किया |

 शरीर में शक्ति ना होने के कारण और अपने पतियों के रात - दिन शराब पीने के कारण आम मातृ शक्ति पेड़ों से गिरती रहीं, मरती रहीं  | कई खुले में शौच को गईं तो वापिस नहीं आईं | देश ने दिन -रात बाघों के बचाने के विज्ञापन  दिखाए | उन बचे हुए बाघों ने पहाड़ की औरतो,  बच्चों और जानवरों को निवाला बनाया |

जहाँ सड़कें जातीं थीं वहाँ एक सौ  आठ वरदान सिद्ध हुई | जहाँ नहीं जातीं वहाँ से सड़क तक आने से  पहले मौत आ जाती है |
 
कुल मिलाकर इन दस सालों में राज्य ने बहुत प्रगति की |
 
साभार- http://shefalipande.blogspot.com/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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If we go through the result of poll, majority of people are not happy with the  progress. However, some of the people in opinion that state is new it will take time to the development work.

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Anil Arya / अनिल आर्य

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   उत्तराखंड के 10 वे स्थापना दिवस पर सभी उत्तरखंडीयो को मेरी हार्दिक शुभकामनायै.शहीदो को मेरा नमन और साथ ही श्री G.B. पंत जी और श्री H.N. बहुगुना जी को भी मेरा नमन्. क्योंकि आप हमारे प्रदेश्, देश और विदेश की पहचान है. हमारा रज्य एक धर्मिक राज...्य के रूप मैं भी जाना जाता है. साथियो मैं सरकारी आकडो मैं बिस्वास नही करता. ये तो एक ट्रिक है. उदाहरण के तौर पर एक बेरोजगार की अगर नौकरी लगती है तो एक दिन मैं उसकि प्रगति अनंत आंकी जायेगी. दस साल का बच्चा नही है उत्तराखंड्. ये तो उत्तर प्रदेश के सौतेले ब्यवहार से तमाम प्र्यासो से अलग राज्य बनाय गया है. लेकिन अब अपने राज्य मैं भी सौतेला ब्यवहार हो रहा है. तीन जिले विकास कर रहे है. दस जिले ज्यो के त्यो है. मेरी चिंता उन जिलो के लिये बड गयी है जो कि कयी कारणो से उपेक्सित किये जा रहे है. सभी विद्वानो की पिछ्ली टिप्पडिया मुझे बहुत अच्छी लगी !

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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अनिल जी स्वागत है आपका मेरापहाड़ पोर्टल में,

मै आपके विचारों से बिलकुल सहमत हूँ! हमारा राज्य इन दस सालो में आशा के अनुरूप विकास नहीं कर पाया!

उसके पीछे, भ्रष्टचार, दिशाहीन विकास, कुर्सी की राजनीती भी अहम् भूमिका रही है!


Anil Arya / अनिल आर्य

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धन्यवाद Himalayan Warrior जी !

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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हमने उत्तराखंड सरकार की और से कभी भी पर्यटन का विज्ञापन देश के नेशनल चैनलों पर देखा! पर माननीय निशक साहब, सिरवानी पहले अपनी उपलब्धिया बताते जरुर विज्ञापनों में दिख रहे है!

मानो की इन्होने उत्तराखंड की तस्वीर ही बदल दी हो!

१) रोजगार से तरसता उत्तराखंड
२)  पानी के बूद-२ के तरसते पहाड़ के गाव!
३)  बिजली से गुल पहाड़ के गाव
४)  स्थायीय राजधानी का मुद्दे

बहुत सारे मुद्दे , इन पर सरकार का ध्यान नहीं!

अपने ही गुण गाये जाओ.


४) पलायन की bhari

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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   Here are two Main News   One is related to Migration :   
 
 
  धारचूला (पिथौरागढ़)। सीमा क्षेत्र का विकास किसी भी देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए बहुत जरूरी है। इसी के मद्देनजर चीन ने भारत की सीमा तक नागरिक सुविधाओं में जबर्दस्त विस्तार किया है। पठारों को चीरते हुए तिब्बत सीमा पर लिपुलेख दर्रे तक सड़क बना दी है। इसके उलट भारत में सीमा क्षेत्र के विकास पर आज तक सरकार का ध्यान नहीं गया है। जन सुविधाओं के अभाव में सीमांत इलाके में गांव उजाड़ हो रहे हैं। हाल यह है कि आज भी गर्वाधार से लिपुलेख तक 70 किलोमीटर की पैदल यात्रा दुर्गम रास्ते से होकर करनी पड़ती है।  कैलास मानसरोवर की यात्रा और भारत तिब्बत व्यापार में हिस्सा लेने वाले लोग पिछले एक दशक में चीन की ओर से सीमा पर सुविधाओं के विस्तार पर आश्चर्य प्रकट करते रहे हैं। कैलास मानसरोवर के अलग-अलग जत्थों में गए यात्री सीमा क्षेत्र में चीन की गतिविधियों से हैरान थे। चीन ने न केवल संचार साधनों का विकास किया है, वरन सामरिक नजरिए से भी सीमा को मजबूत किया है। दोनों देशों के सीमावर्ती इलाकों में बड़ा अंतर यह है कि तिब्बत के सीमावर्ती क्षेत्र आबाद हो रहे हैं और भारतीय क्षेत्र के गांवों से पलायन बढ़ रहा है। भारत-तिब्बत व्यापार 2010 में हिस्सा लेकर लौटे व्यापारी लाल सिंह खंपा हों, दौलत सिंह रायपा आदि बताते हैं कि चीन ने लिपुलेख दर्रे से मात्र 500 मीटर की दूरी तक पक्की सड़क बना दी है। दर्रा पार करते ही कुछ दूरी पर चीन के वाहन मिल जाते हैं। वहीं, भारतीय क्षेत्र में 70 किमी का पैदल सफर करना पड़ता है। इस इलाके में संचार सुविधा के नाम पर सैटेलाइट फोन तक नहीं लग पाए हैं। चिकित्सा, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से भारतीय क्षेत्र के इन इलाकों को कई वर्षों तक इंतजार करना पड़ेगा। उच्च हिमालयी क्षेत्रों के इन इलाकों के दो दर्जन गांवों के लोगों को मजबूरी में जाड़ों के मौसम में घाटियों में उतरना पड़ता है। सीमा सड़क संगठन ने गर्वाधार से लिपुलेख तक वर्ष 2012 तक सड़क पहुंचाने का लक्ष्य रखा है, लेकिन यह सपना लगता है, क्योंकि सीमा सड़क संगठन तीन साल के भीतर गर्वाधार से बिंद्राकोटी तक महज तीन किमी सड़क का निर्माण नहीं कर पाया है।   यहां उजड़ने का दंश, वहां हो रहे आबाद  ड्   ड्रैगन ने लिपुलेख दर्रे तक पहुंचाई सड़क  द्     
 
 
 The Second news about Electricity :   
 
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Devbhoomi,Uttarakhand

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रुपये तो बहाए पर हुआ कुछ नहीं
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जिन उद्देश्यों को लेकर सरकारी योजनाओं की रूपरेखा तैयार की जाती है उनका क्रियान्वयन उस तरीके से नही हो पाता है जिससे लोगों को रोजगार भी मिले और गांवों में परिसंपत्तियों का निर्माण भी हो। विभागों को तो बस बजट को ठिकाने लगाना है फिर उसके लिए कोई न कोई तरीका वह निकाल ही लेते हैं। ऐसा ही कुछ हरियाली योजना में हुआ है इसमें पैसे तो खर्च किये गये, लेकिन धरातल पर कहीं कुछ भी नजर नही आ रहा है।

चम्बा ब्लॉक के अन्तर्गत वर्ष 2008 में ब्लॉक से सात ग्राम पंचायतों में हरियाली योजना के तहत जो भी कार्य कराये गये, उनमें भले ही गांवों के चंद लोगों को कुछ दिन का रोजगार मिल गया हो, लेकिन काम क्या हुआ वह कहीं धरातल में नजर नही आ रहा है। योजना में केवल सरकारी धन का प्रयोग दुरूपयोग किया गया। इस योजना में जिन-जिन गांवों में पौधरोपण किया गया वहां एक भी पौधा धरातल में जिंदा नही है। मात्र खानापूर्ति के लिए पौधे रोपे गए, उसके बाद किसी ने इस ओर ध्यान नही दिया। हरियाली योजना में चैकडेम ऐसी जगह या सूखे गदेरों में लगाए गये जहां कभी पानी नही आता है, या कभी भूस्खलन नही होता है। सामाजिक कार्यकर्ता विजय जड़धारी का कहना है कि इस योजना के कामों में विभाग से लेकर जनप्रतिनिधियों ने भी लापरवाही बरती। काम क हां-कहां और क्या होना है, यह ग्रामीणों को नही बताया गया। ग्रामीणों को तो इतना तक पता नही कि बजट कितना था।

ब्लॉक प्रमुख स्वर्ण सिंह स्वयं स्वीकारते हैं कि हरियाली योजना में धन का दुरूपयोग हुआ है। जहां काम होना चाहिए था, वहां नही किया गया। योजना में पारदर्शिता का भी अभाव रहा है क्योंकि योजना की गाइड लाइन के अनुसार जिस ग्राम पंचायत में जो कार्य हुआ तथा जितनी धनराशि खर्च हुई उसका विवरण बोर्ड में अंकित होना चाहिए, साथ ही बोर्ड सार्वजनिक जगह पर लगा होना चाहिए ताकि गांव के हर व्यक्ति को योजना की जानकारी हो। फिलहाल एक भी ऐसा गांव नही है,जहां इस तरह के बोर्ड लगे हों। ऐसे में लोगों का योजना की पारदर्शिता पर सवाल उठाना तो स्वाभाविक ही है।

योजना का उद्देश्य

चम्बा: हरियाली योजना का उद्देश्य गांव में भूकटाव रोककर जलसंरक्षण करना था। इसके लिए बंजर भूमि में पौधरोपण और भूस्खलन वाली जगहों पर चैकडेम का निर्माण किया जाना था। जिन गांवों में योजना चलायी गई उनमें इण्डवाल गांव, जड़धार गांव, स्वाड़ी, कुड़ियाल गांव, स्यूल, देवरी मल्ली, देवरी तल्ली शामिल है।

विभागीय अधिकारियों का तर्क

चम्बा: योजना को लेकर खड विकास अधिकारी मुन्नी कुलियाल का कहना है कि जो क ार्य हुआ वह उनके समय नही हुआ है, लेकिन योजना को लेकर किसी तरह शिकायत प्राप्त होगी तो उसकी जांच की जाएगी।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6903254.html

 

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