Author Topic: Uttarakhand Suffering From Disaster - दैवीय आपदाओं से जूझता उत्तराखण्ड  (Read 70128 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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बाबूजी धीरे चलना, जर्जर है पुल



  रुद्रप्रयाग, जागरण कार्यालय : जखोली ब्लॉक के मेधनपुर गांव को जिला मुख्यालय से जोड़ने वाले झूला पुल के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। निर्माण के लगभग दो दशक बाद भी मरम्मत न होने से पुल की हालत जर्जर हो चुकी है।



वर्ष 1989-90 में मेधनपुर गांव को रुद्रप्रयाग-गौरीकुंड राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ने के लिए लोक निर्माण विभाग ने भटवाड़ी सैण के समीप मंदाकिनी नदी पर साठ मीटर स्पान के झूला पुल का निर्माण किया। पुल के निर्माण के बाद मेधनपुर वासियों को जिला मुख्यालय आने के लिए सोलह किमी के बजाए मात्र चार किमी का सफर तय करना पड़ता है, परंतु निर्माण के बाद से लेकर अब तक पुल की देखरेख के प्रति लोनिवि की लापरवाही साफ नजर आ रही है।

 मौजूदा समय में यह झूला पुल जर्जर हालत में पड़ा हुआ है। रैलिंग कई जगह पर टूट चुकी हैं। साथ ही पुल का डामर भी पूरी तरह उखड़ चुका है और टिन की चद्दरों के सहारे किसी तरह ग्रामीण रोजाना आवाजाही कर रहे हैं। इस पुल से स्कूली नौनिहाल सहित ग्रामीण रोजाना भारी संख्या में आवाजाही करते हैं।

ऐसे में हर समय दुर्घटना की संभावना बनी रहती है। ग्रामीणों की ओर से पूर्व में समस्या को लेकर विभाग को सूचित किया जा चुका है, लेकिन अभी तक कोई कदम न उठाए जाने से उनमें रोष व्याप्त है

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8216657.html

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            आपदा राहत : ऊंट के मुंह में जीरा





 उत्तरकाशी,  बीते साल आई आपदा के जख्मों को भरने में शायद वर्षो लग जाएं। खासकर उन लोगों को जिन्होंने अपना आशियाना आंखों के सामने आपदा की भेंट चढ़ते देखा। वहीं, प्रशासन से कथित मिली मुआवजे की रकमे से शायद साल भर के दो कमरों का किराया भी पूरा न पड़े।      बीते साल बारिश ने जिले में कहर मचाया था। इसमें सैकड़ों आवासीय भवन ध्वस्त हो गए थे। दर्जनों गांवों को लोगों को पड़ोसियों के घर पनाह लेनी पड़ी थी। चिन्यालीसौड़ प्रखंड के बढेथी गांव में भी बारिश ने कहर बरपाया था।

इससे गांव के 40 से ज्यादा आवासीय भवन पूरी तरह ध्वस्त हो गए, तो दर्जनों जीर्ण शीर्ण अवस्था में आ गए। प्रशासन ने भले ही लोगों को मुआवजे के तौर पर 50 हजार रुपये भी दिए थे, लेकिन शायद ही 50 हजार में कभी रहने लायक भर मकान बन पाए।

हालांकि, लोगों ने इस उम्मीद में किराये के कमरे लेकर रहना शुरू किया की कभी तो प्रशासन से उचित मुआवजा मिलेगा। लंबे इंतजार पर भी जब बात न बनी, तो लोगों को मजबूरन अपने क्षतिग्रस्त भवनों को लौटना पड़ा। यही हाल भटवाड़ी गांव में भी है।



http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8276077.html

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भूधंसाव से इंद्रोला गांव को खतरा
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भिलंगना ब्लॉक में कोटी फैगुल पट्टी के इंद्रोला गांव में भूधंसाव के कारण 100 से ज्यादा परिवारों के आवासीय भवनों में दरारें आ गई हैं। लगातार हो रहे भूधंसाव से ग्रामीण दहशत में हैं और घर छोड़ रहे हैं। प्रशासन की टीम ने मौका-मुआयना कर गांव को विस्थापित करने की रिपोर्ट जिलाधिकारी को भेजी है। ग्रामीणों को अधिक क्षतिग्रस्त मकानों में न रहने की हिदायत भी दी गई है।

दैवीय आपदा के लिहाज से संवेदनशील भिलंगना ब्लॉक के इंद्रोला गांव में दहशत का माहौल है। गांव के 130 में से 100 परिवारों के आवासीय भवनों में दरार आने से ग्रामीण घर छोड़ने को मजबूर हैं। इंद्रोला निवासी सुरेशराम, धूम सिंह, कुशहाल सिंह, राकेश आदि बताते हैं कि कुछ मकानों में बरसात के दौरान ही दरारें आ गई थी, लेकिन पिछले एक सप्ताह से बगैर बारिश के ही पूरे गांव की जमीन तेजी से धंसने लगी है। गांव के 90 फीसदी पक्के मकानों की दीवारों पर मोटी दरार पड़ने लगी है।

मकानों के आसपास की जमीन पर भी पांच से दस फीट चौड़ी दरारें पड़ गई हैं। एक सप्ताह पूर्व भी एक दर्जन से अधिक मकानों में मोटी दरारें पड़ने पर लोग अपने घर छोड़कर छानियों में चले गए थे। ग्राम प्रधान देवेश्वरी देवी ने बताया कि वर्ष 1970 में भी गांव की जमीन कई फीट धंस गई थी। तब भू-सर्वेक्षण में गांव की जमीन को अस्थाई कैचमेंट एरिया बताते हुए आगे भी भूधंसाव की आशंका व्यक्त की गई, लेकिन मामला ठंडे बस्ते में चला गया। अब फिर से पूरा गांव खतरे की जद में है। लिहाजा, जल्द गांव का विस्थापन किया जाना चाहिए।

'राजस्व टीम के साथ पूरे गांव का सर्वे किया गया है। गांव की जमीन धंस रही है, जिससे कभी भी बड़ी घटना हो सकती है। गांव की वीडियोग्राफी करवाकर रिपोर्ट जिलाधिकारी को भेजी जा रही है।'

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8281345.html

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पहाड़ धंसने से अस्कोट-कर्णप्रयाग मार्ग बंद
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बरार जल विद्युत परियोजना के टनल का पानी रिसने से अस्कोट-कर्णप्रयाग मोटर मार्ग में थल के निकट पहाड़ धंस गया। इससे विशाल बोल्डर सड़क पर आ गए जिससे मार्ग बंद हो गया है। मार्ग बंद होने से इस समय मुनस्यारी जा रहे सौ से अधिक बंगाली पर्यटक फंसे हुए हैं। मार्ग के बुधवार को ही खुलने की संभावना है।

बरार माइक्रोहाइडिल की नहर का पानी कई दिनों से रिस रहा था। विभाग द्वारा इसकी मरम्मत नहीं की गयी। मंगलवार अपराह्न को बरार परियोजना के निकट भारी मात्रा में मलबा सड़क पर आ गया। मलबे के साथ विशाल बोल्डर सड़क में आ गये। जिससे मार्ग बंद हो गया है। मार्ग बंद होने से बेरीनाग-धारचूला, डीडीहाट, मुनस्यारी और पिथौरागढ़ के लिये आवाजाही ठप हो गई है। अचानक मार्ग बंद होने से सौ से अधिक बंगाली पर्यटक फंसे हुए हैं।

उल्लेखनीय है कि इस समय जिले के मुनस्यारी और चौकोड़ी में बंगाली पर्यटक आते हैं। मंगलवार को अल्मोड़ा से मुनस्यारी जा रहे और मुनस्यारी से चौकोड़ी जा रहे पर्यटक मार्ग बंद होने से फंस गये।

देर सायं तक मार्ग नहीं खुलने पर चौकोड़ी जा रहे पर्यटक वापस थल लौट चुके हैं वहीं मुनस्यारी आ रहे पर्यटक बेरीनाग और चौकोड़ी लौट रहे हैं। थल में होटलों की संख्या काफी कम होने तथा यहां के पर्यटक आवास गृह अभी शुरू नहीं होने से पर्यटकों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8373528.html

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आपदा प्रभावित गांवों को भूल गई है सरकार

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दैवीय आपदा से प्रभावित परिवारों के विस्थापन में हो रही लेट-लतीफी पर उत्तराखंड क्रांति दल युवा प्रकोष्ठ ने नाराजगी व्यक्त करते हुए आरोप लगाया कि सरकार प्रभावित को भूल गई है। विस्थापन के लिए अभी तक कोई ठोस कदम न उठाया जाना सरकार के लापरवाह रवैये को दर्शाता है।

उक्रांद यूथ प्रकोष्ठ की बैठक में वक्ताओं ने कहा कि राज्य सरकार दैवीय आपदा प्रभावितों के प्रति गंभीर नहीं है, जिसके चलते आज भी कई परिवार आज भी खतरे के साए में जीने को मजबूर हैं। कहा कि गत वर्ष तथा इस वर्ष बरसात के सीजन में जिले के कई गांव दैवीय से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। सैकड़ों परिवारों को आज भी आपदा खतरा बना हुआ है, जिनका विस्थापन किया जाना आवश्यक है, लेकिन अभी तक सरकारी स्तर से ठोस कदम नहीं उठाया गया


इस मौके पर केन्द्रीय महामंत्री अरविंद नौटियाल एवं जिलाध्यक्ष जीतार सिंह जगवाण ने कहा कि राज्य सरकार रुद्रप्रयाग जिले के आपदा प्रभावितों के प्रति गंभीर नहीं है। उन्होंने नाराजगी जताई की रुद्रप्रयाग जिले के प्रति सरकार का रवैया उदासीन दिख रहा है।


 वर्ष 1999 में भी आए विनाशकारी भूकम्प से प्रभावित सैकड़ों परिवारों का भी आज तक विस्थापन नहीं हो पाया है। बैठक में गढ़वाल विवि के उपाध्यक्ष आशीष नौटियाल, यूएसएफ के केन्द्रीय महामंत्री ओंकार ओम, रवि बहुगुणा, रवीन्द्र नेगी, मनोज श्रीकोटी व प्रवीन नेगी सहित कई कार्यकर्ता मौजूद थे।


SOurce dainik jagran

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दैवीय आपदा में ढाल बनेंगे देववृक्ष
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मध्य हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरणीय व पारिस्थितिक तंत्र को बचाए रखने के लिए वन महकमे ने अब विज्ञान से आध्यात्म की ओर रुख किया है। इसकी शुरुआत अल्मोड़ा रेंज के सिमतोला टॉप में 'नक्षत्र जोन' (वाटिका) विकसित कर की जाएगी। खास बात है, इसमें देवताओं के ऐसे प्रिय पौधे लगाए जाएंगे, जो न केवल ग्रह-नक्षत्रों से जुड़े हैं, बल्कि औषधीय गुणों से लबरेज ये पेड़-पौधे प्राकृतिक प्रकोप से बचाने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। अहम पहलू यह कि अल्मोड़ा के 'शीतोष्ण' क्षेत्र में विकसित होने वाले यह देवभूमि के पहले नक्षत्र जोन होंगे।

दरअसल, जीवन से जुड़े 27 नक्षत्र होते हैं जबकि राशियां 12 होती हैं। ढाई नक्षत्र की एक राशि मानी गई है। इन राशियों से रत्‍‌न ही नहीं पर्यावरण व मानव जीवन में अहम पेड़-पौधों का भी गहरा संबंध होता है। जो सकारात्मक गुणों में वृद्धि कर विपरीत कारकों को कम करने का काम करते हैं। इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है।

इधर मध्य हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरणीय व पारिस्थितिक संतुलन को कायम रखने के लिए वन महकमा विज्ञानी सोच से इतर शीतोष्ण क्षेत्र के उन पेड़-पौधों के नक्षत्र जोन तैयार करने जा रहा है, जिनका केवल ग्रहों से ही नहीं बल्कि देवताओं से भी गहरा संबंध है।

Source Dainik jagran

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उत्तरकाशी। 68 करोड़ रुपये के ट्रीटमेंट प्लान और 105.5 लाख के वानस्पतिक उपचार के बाद भी
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वरुणावत भूस्खलन का वानस्पतिक उपचार कर तैयार किया गया जैविक सुरक्षा घेरा टूटने लगा है। हालात यह हैं कि न तो तांबाखानी, मस्जिद मुहल्ला और पेट्रोल पंप क्षेत्र में भूस्खलन पूरी तरह रुक पाया है और न ही बरसात में शीर्ष से बाजार में घुसने वाले पानी को रोकने के पुख्ता इंतजाम हो पाए हैं। ऐसे में राहगीर जान का जोखिम उठाने को मजबूर हैं।

 वन विभाग की ओर से शीर्ष पर छिड़के 2.5 कुंतल डिडोनिया, चमलाई, सनई, भंडीर, उतीस के बीज की हरियाली के साथ 54 लाख रुपये खर्च कर 80 हेक्टेयर में देवदार और बांज के पौधरोपण की असफलता पर भी सवाल                उठने लगे हैं।

वन विभाग ने वरुणावत पर्वत के शीर्ष पर वानस्पतिक उपचार के नाम पर बीज छिड़काव, पौधारोपण के लिए गड्ढा खुदान, तारबाड़, पौध, वनीकरण और अनुरक्षण आदि कार्य पर 91.89 लाख रुपये खर्च किए। 13.26 लाख रुपये तो एफआरआई को इस प्रोजेक्ट में मदद के लिए भुगतान किया गया है। जबकि सिविल कार्यों पर करीब 68 करोड़ रुपये खर्च किए जा                  चुके हैं। पैसा खर्च के बाद कुछ भी होता नजर नहीं आ रहा है।करोड़ाें ख्‍ार्च करने के बावजूद स्थिति यह है कि नगर क्षेत्र में ज्ञानसू से कलक्ट्रेट के बीच तांबाखानी क्षेत्र में राहगीरों को जान हथेली पर रखकर पत्थरों की बौछारों के बीच सड़क का 300 मीटर हिस्सा पार करना पड़ता है। यहां बनी सुरंग पहाड़ी से रिस रहे पानी और कीचड़ से सनी होने के कारण लोग इसमें आवाजाही से               कतराते हैं। ऐसे में जान का जोखिम उठाकर कौन यहां तक जाने की हिम्‍मत जुटाएगा। बांज के पेड़ रोपने की कोशिश कामयाब हो सकती थी लेकिन वो भी असफल रही।वानस्पतिक उपचार सफल होने का दावाडीएफओ डा. आईपी सिंह ने दावा किया कि एफआरआई के वैज्ञानिकों ने उन्हें और प्रशासन को सौंपी अपनी रिपोर्ट में वानस्पतिक उपचार को सफल बताया है। 80 हेक्टेयर में देवदार और बांज के वनीकरण को पनपने में कुछ समय जरूर लगेगा।जोखिम रहित नहीं हो पाया वरूणावत कई वनस्पतियों के बीज छिड़कने के बाद भी नहीं दिख रही हरियाली


Amarujala
 

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आपदाओं से निपटने के इंतजाम अधूरे

उत्तरकाशी। आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तरकाशी जनपद में बरसाती सीजन के बाद अब भारी बर्फबारी ने भी जिले में आपदा प्रबंधन की पोल खोलकर रख दी है। बिना बजट, स्टाफ और अधिकारी वाला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण महज सूचना केंद्र बन कर रह गया है। राज्य बनने के 11 साल बाद भी जिले में आपदा प्रबंधन के इंतजाम नहीं हो पाए हैं। इसके चलते आपदा के समय प्राधिकरण दूसरे विभागों से मदद मांगने को मजबूर है। राज्य सरकार विधानसभा चुनाव इस माह 30 जनवरी को कराने के लिए भले ही निर्वाचन आयोग को खलनायक मानती हो लेकिन वो खुद बर्फबारी जैसी स्थिति से निपटने के लिए तैयार नहीं है। इसी का परिणाम है कि यमुनोत्री राजमार्ग के राड़ी टॉप और उत्तरकाशी-लंबगांव मोटर मार्ग के चौरंगीखाल में लोग बर्फ में फंसे रहे। यही नहीं मोरी और गंगोत्री घाटी का उपला टकनौर क्षेत्र बिजली, संचार और सड़क सुविधा ठप होने के              कारण देश दुनिया से अलग -थलग पड़ा हुआ है और जिला        का आपदा प्रबंधन तंत्र बीआरओ और लोनिवि के मजदूरों का मुंह ताकने के अलावा और कुछ नहीं कर पा रहा है। चुनाव तैयारी में जुटे प्रशासन       को भी बीआरओ और लोनिवि से बर्फ में जाम सड़कें खुलवाने में खासी मशक्कत करनी पड़                  रही है। ऐसे मे निहत्थे                  आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और प्रशासन को सड़क खुलवाने के लिए बीआरओ के ब्रिगेडियर और शासन स्तर पर पत्राचार करना पड़ रहा है।आपदा प्रबंधन का ढांचा ही तैयार नहींआपदा प्रबंधन अधिकारी देवेंद्र पटवाल ने स्वीकार किया कि विभाग अभी समन्वयक और सूचना केंद्र तक ही खड़ा हो पाया है। बर्फ से दबी सड़कें हो या इसमें फंसे लोग वे सड़क से संबंधित विभागों को पत्र भेजने तक ही सीमित हैं। उनके पास न तो संसाधन हैं और न ही अधिकार। पर्याप्त स्टाफ तक नहीं है। यदि विभाग सड़क खुलने की गलत सूचना दें तो उन्हें उसी पर भरोसा करना पड़ता है।चमोली में रुक-रुककर होता रहा हिमपातगोपेश्वर। सीमांत चमोली जनपद में मंगलवार को मौसम का मिजाज बदलता रहा।  जनपद में निचले क्षेत्रों में दोपहर तक चटख धूप खिली रही, लेकिन ऊंची चोटियों में रुक-रुककर हिमपात होता रहा। शाम होते ही आसमान में  बादल घुमड़ने से जनपद ठंड का प्रकोप बढ़ गया। पोखरी के मोहनखाल क्षेत्र में अभी भी दो फुट तक बर्फ जमी होने से जनजीवन प्रभावित हो गया है। जनपद में मौसम में सुधार के कोई आसार नजर नहीं आने से जिला निर्वाचन विभाग भी परेशान है। आठ घंटे बाद खुला बदरीनाथ हाईवेगोपेश्वर। पिछले दो दिनों से हो रही बारिश और बर्फवारी के चलते सोमवार को देर रात बिरही के पास चट्टान टूटने से बदरीनाथ राष्ट्र्ीय  राजमार्ग  आठ घंटे तक अवरुद्ध रहा। मार्ग पर बड़ी मात्रा में मलबे के साथ बोल्डर जमा हो गए थे, जिन्हें बीआरओ ने कड़ी मशक्कत के बाद हटाया। बदरीनाथ हाईवे पर बिरही में बारिश के चलतेे लूज रॉक का मलबा सड़क पर पसर गया था। जिससे मंगलवार को दोपहर तक वाहनों की आवाजाही ठप रही। बीआरओ के द्वितीय कमान अधिकारी संदीप तड़ागी ने बताया कि बारिश के चलते चट्टान टूटने से मलबा सड़क पर आ गया था।  सुबह साढ़े दस बजे सड़क खोल दी गई थी, किंतु फिर मलबा आने से  मार्ग बंद हो गया, जिसे दोपहर बाद खोल दिया गया।विद्युत और दूरसंचार सेवाएं ठपमहज सूचना केंद्र बना है आपदा प्रबंधन प्राधिकरणदिन में धूप और शाम को बारिश, बर्फबारी  अमर उजाला ब्यूरोउत्तरकाशी। दिन में चटक धूप और शाम को बारिश व बर्फबारी का दौर फिर शुरू हो जाने से जनपदवासियों को बर्फानी थपेड़ों से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। मंगलवार को चौरंगीखाल और जरमोला में तो सड़क खोल ली गईं, लेकिन यमुनोत्री राजमार्ग पर राड़ी टॉप व सयानाचट्टी तथा गंगोत्री राजमार्ग पर गंगनानी सुक्की से आगे यातायात पर ब्रेक लगा रहा। मोरी ब्लाक में तो सांकरी, तालुका, जखोल, दोणी, भीतरी क्षेत्र के अधिकांश गांव 3 से 4 फिट बर्फ        में घिरे हैं।जनपदवासी जब तक मंगलवार सुबह खिली धूप का आनंद उठा पाते कि दोपहर बाद फिर से बारिश व बर्फबारी का दौर शुरू होने से कड़ाके की ठंड का सामना करना पड़ गया। बीआरओ, लोनिवि व राजमार्ग खंड भी बर्फबारी से अवरुद्ध सड़कों पर यातायात बहाल करने में जुटे रहे। चौरंगी व जरमोला में तो सड़क खोलने में सफलता मिल गई, लेकिन शेष सड़कें अभी तक अवरुद्ध ही हैं। सीमावर्ती हर्षिल क्षेत्र तथा हिमाचल की सीमा से लगे मोरी ब्लाक के ग्रामीण क्षेत्रों का संपर्क अभी देश-दुनिया से कटा हुआ है।मोरी प्रखंड में लुद्राला के प्रधान विक्रम सिंह तथा लिवाड़ी-फिताड़ी में एक प्रत्याशी के प्रचार से लौटे सांकरी के चंद्रमणी ने बताया कि उनके गांव 4 फिट बर्फ से घिरे                  हैं। सोमवार को चौरंगी खाल में एक पूरी बारात ही फंस गई। लोनिवि द्वारा यहां भारी मशक्कत कर बर्फ हटाकर यातायात बहाल किया गया।उत्तरकाशी। बर्फबारी से जिले में विद्युत और दूरसंचार सेवाएं चरमरा गई हैं। मोरी, हनुमानचट्टी और भटवाड़ी के 33 केवीए सबस्टेशन कई जगह पोल उखड़ने से ठप पड़े हुए हैं। बिजली न आने से टेलीफोन एक्सचेंज और मोबाइल फोन टावर भी बंद हैं जिससे 80 से ज्यादा गांव अलग-थलग पड़े हुए हैं। भटवाड़ी में एनटीपीसी कार्यालय के पास बिजली का पोल गिरने से पूरे सीमावर्ती क्षेत्र के गांव अंधेरे में हैं।  हालांकि गंगोत्री घाटी में हर्षिल, मुखबा और धराली गांव के लिए 200 किलोवाट की लघु जल विद्युत परियोजना है, लेकिन ठंड से पावर चैनल जमने के कारण वहां भी उत्पादन ठप पड़ा हुआ है। मोरी में 33 केवीए सब स्टेशन भी बिना बिजली के हैं। यहां लाइन क्षतिग्रस्त होने से पूरा मोरी ब्लाक अंधेरे में डूबा है। हनुमानचट्टी सब स्टेशन बंद होने के कारण यमुनोत्री घाटी में गीठ पट्टी के गांवों में अंधेरा पसरा है। विद्युत व्यवस्था चरमराने से इन क्षेत्रों की दूरसंचार सेवाएं भी ठप हो गई हैं।



Sorce Amarujala
 

lalit.pilakhwal

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दिल्ली से रानीखेत की तरफ जाते पहाड़ के गांवों की दीवार पर लिखी इन पंक्तियों ने कई बार ध्यान खींचा। हर बार जेहन में यही सवाल उठा कि जो इलाके पेड़-जंगलों से घिरे हैं, जहां पहाड़ों की पूरी कतार है। वहां इन पंक्तियो के लिखे होने का मतलब कहीं भविष्य के संकट के एहसास के होने का तो नहीं है। क्योंकि समूचा उत्तर भारत जब लू के थपेड़ों से जूझता है, तब राहत के लिये उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके ही एसी का काम करते हैं। पहाड़ पर मई-जून में भी मौसम गुलाबी ठंड सरीखा होता है, तो इसे महसूस करने बडी तादाद में लोगों का हुजुम वहां पहुंचता है। यही हुजुम पहाड़ की अर्थव्यवस्था को रोजगार में ढाल कर बिना नरेगा भी न्यूनतम जरुरत पूरा करने में समाजवादी भूमिका निभाता है। सामान ढोने से लेकर जंगली फलों को बेचने और होटलों में सेवा देने वालों से लेकर जंगलों में रास्ता दिखाने वालो की बन पडती है। सिलाई-कढाई से लेकर जंगली लकड़ी पर नक्कशी तक का हर वह हुनर जो महिलाओ के श्रम के साथ जुडता है, वह भी बाजारों में खूब बिकता है, और गरमियो का मौसम पहाड़ के लिये सुकुन और रोजगारपरक होकर कुछ यूं आता है कि पहाड़ का मुश्किल जीवन भी जमीन से जुड़ सा जाता है और अक्सर पहाड़ के लोग यही महसूस करते है कि जमीन पर आय चाहे ज्यादा है लेकिन सुकुन पहाड़ पर ज्यादा है। क्योंकि सुकुन की कीमत चुकाने में ही पहाड़ की रोजी रोटी मजे से चल जाती है।

लेकिन जमीन पर अगर आय असमान तरीके से बढ़े और सिर्फ एक तबके की बढ़े तो खतरा कितना बड़ा है, इसका एहसास जमीन पर रहते हुये चाहे थ्योरी के लिहाज से यही समझ में आता है कि देश के 10 से 15 करोड़ लोग अगर महीने में लाख रुपये से ज्यादा उड़ा देते हैं तो देश के 70 से 80 करोड़ लोगों की सालाना आय दस हजार रुपये भी नहीं है। करोड़ों परिवार के लिये एक रुपये का सिक्का भी जरुरत है और देश के पांच फीसदी लोगों के लिये दस-बीस रुपये का नोट भी चलन से बाहर हो चुका है। दिल्ली के किसी मंदिर पर भिखारी को एक रुपया देना अपनी फजीहत कराना है, पहाड पर एक रुपया किसी भी गरीब के पेट को राहत देने वाला है। लेकिन प्रैक्टिकल तौर पर पहाड़ में इसकी समझ पहली बार यही समझ में आयी कि जिस एक छोटे से तबके के लिये दस-बीस रुपये मायने नही रखते, वही छोटा सा तबका अपनी सुविधा के लिये जिस तरह जमीन पर सबकुछ हड़पने को आमादा है वैसे ही पहाड़ पर भी अपने सुकून के लिये वह सबकुछ हड़पने को तैयार हो चुका है और जो गर्मियां पहाड़ के लिये जीवनदायनी का काम करती हैं, चंद बरस में वही गरमी पहाड़ को भी गरम कर देगी और फिर पहाड़ का जीवन भी जमीन सरीखा हो जायेगा।

इसकी पहली आहट सबसे गर्म साल के उस दिन {18 मई 2010 } मुझे महसूस हुई जब दिल्ली का तापमान सौ बरस का रिकार्ड पार कर रहा था और कमोवेश हर न्यूज चैनल से लेकर हर अखबार पर भेजा-फ्राई शब्द के साथ गर्मी-लू की रिकार्ड जानकारी दी जा रही थी। इस दिन रानीखेत की सड़कों पर भी कर्फ्यू सरीखा माहौल था। तापमान 33 डिग्री पार कर चुका था। पेड़ों की पत्तियां भी खामोश थीं। चीड़-देवदार के पेड़ों की छांव भी उमस से जुझ रही थी । बाजार खाली थे। सालों साल स्वेटर बेच कर जीवन चलाने वालो की दुकानों पर ताले पड़े थे। कपडे पर महीन कारीगरी कर कुरते बना कर बेचने वाली महिलायें के जड़े-बूटे देखने वाला कोई नही था। और तो और दुनिया के सबसे बेहतरीन गोल्फ कोर्स में से एक रानीखेत का गोल्फ कोर्स शाम सात बजे तक भी सूनसान पड़ा था। और यह सब इसलिये कहीं ज्यादा महसूस हुआ क्योंकि रानीखेत अभी भी खुद को रानीखेत ही मानता है, जहां गर्मियों में होने का मतलब है खुशनुमा धूप। ठंडी बयार। गुलाबी शाम । और इन सब के बीच घरो में कही कोई पंखा नहीं। घर ही नहीं होटल और सराय में भी पंखों की कोई जगह नहीं। वहां की छतें आज भी खाली ही रहती हैं। छतों की दीवारो की ऊंचाई जरुर आठ फीट से बठकर दस फीट तक पहुंची है। लेकिन कोई इस शहर में मानता ही नहीं कि प्रकृतिक हवा कभी तकनीकी हवा के सामने कमजोर पड़ेंगी या मशीनी हवा पर शहर को टिकना पडेगा।

लेकिन पहली बार बीच मई के महिने में अगर रानीखेत ने गर्मियो के आगे घुटने टेके और पहली बार यहां के बहुसंख्य लोगों की आय डगमगाती नजर आयी तो चिंता की लकीर माथे पर उभरी कि रानीखेत का मौसम अगर इसी तरह हो गया तो उनका जीवन कैसे चलेगा। पहली बार इसी रानीखेत में यह भी नजर आया कि जमीन पर अपनी सुविधा के लिये मौसम बिगाड़ चुका देश का छोटा सा समूह, जो सबसे ताकतवर है,प्रभावी है, किसी भी बहुसंख्यक समाज पर भारी पडता है, अब पहाड़ को भी अपनी हद में लेने पर आमादा है। कॉरपोरेट सेक्टर के घनाड्य ही नही बल्कि सत्ता की राजनीति करने वाले सत्ता-धारियों और विपक्ष की राजनीति करने वालो की पूरी फौज ही पहाड़ों को खरीद रही है। सिर्फ रानीखेत में ही तीन हजार से ज्यादा छोटे बडे कॉटेज हैं जिन पर मालिकाना हक और किसी की नहीं बल्कि उसी समूह का है, जो ग्लोबल वार्मिग को लेकर सबसे ज्यादा हल्ला करता है। पहाड़ पर नाजायज तरीके से जमीन खरीद कर अपने लिये सुविधाओं को कैद में रखने वालो में रिटायर्ड भ्रष्ट नौकरशाहों से शुरु हुआ यह सिलसिला अब के प्रभावी नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों और बिचौलियों की भूमिका निभाकर करोड़ों बनाने वाले से होते हुये तमाम कारपोरेट सेक्टर के प्रभावी लोगो तक जा पहुंचा है। बाहर का व्यक्ति पहाड़ पर सिर्फ सवा नाल जमीन ही खरीद सकता है। जिसकी कीमत तीन साल में दस गुना बढकर 20-25 लाख रुपये हो चुकी है। लेकिन यहां रईसों के औसतन काटेज की जमीन पांच से आठ नाल तक की है। यानी जमीन ही करोड़ों की। चूंकि प्रकृति के बीच में काटेज के इर्द-गिर्द प्रकृतिक जंगल बनाने को ही पूंजी लुटाने का असल हुनर माना जाता है तो कॉटेज की इर्द-गिर्द जमीन पर प्रकृति का जितना दोहन होता है, उसका असर यही हुआ है कि रानीखेत में बीते पांच साल में जितना क्रंकीट निर्माण के लिये पहुंचा है, उतना आजादी के बाद के पचपन सालों में नहीं पहुंचा। इन कॉटेजो के चारों तरफ औसतन 75 से लेकर 160 पेड़ तक काटे गये। और कॉटेज जंगल और हरियाली के बीच दिखायी दे, इसके लिये औसतन 15 से 25 पेड़ तक लगाये गये । अगर इसी अनुपात में सिर्फ रानीकेत को ही देखे तो करीब दस लाख पेड काटकर पैंतालिस हजार पेड लगाये गये। लेकिन पहाड़ों को रईस तबका जिस तेजी से हड़पना चाह रहा है, उसका नया असर पेड़ों का काटने से ज्यादा आसान पूरे जंगल में आग लगाकर पेड खत्म करने पर आ टिका है। खासकर चीड के पेड़ों से निकलने वाले तेल को निकाल कर पेडो को खोखला बनाकर आग लगाने का ठेका समूचे कुमायूं में जिस तेजी से फैला है, उसका असर यही हुआ है कि बीते तीन साल में छोटे-बडे सवा सौ पहाड़ बिक चुके हैं और पहाड़ों को पेड़ों से मुक्त करने के ठेके से लेकर पहाड़ों के अंदर आने वाले सैकड़ों परिवारों को जमीन बेचने के लिये मनाने के ठेके को सबसे मुनाफे का सौदा अब माना जाने लगा है। रईसो के निजी कॉटेज से शुरु हुआ सिलसिला अब पहाड़ों के बीच काटेज बनाकर बेचने के सिलसिले तक जा पहुंचा है।

बिल्डरो की जो फौज जमीन पर घरों का सपना दिखाकर मध्यम तबके के जीवन में खटास ला चुकी है, अब वह भी पहाड़ों पर शिरकत कर रइसों के सपनों को हर कीमत पर हकीकत का जामा पहनाने में जुटा है। और पहाड़ के समाज को तहस-नहस करने पर आ तुला है। जिस तरह सेज के लिये जमीन हथियाने का सिलसिला जमीन पर देखने में या और सैकड़ों सेज परियोजना को लाइसेंस मिलता चला गया, कुछ इसी तर्ज पर पहाड़ों पर बिल्डरों की योजनाओं को मान्यता मिलने लगी है। और पहाड़ी लोगों को मनमाफिक कीमत दी जा रही है, लेकिन इस मनमाफिक रकम की उम्र किसानी और जमीन मालिक होने का हक खत्म कर मजदूर में तब्दील करती जा रही है। सैकड़ों कॉटेज की रखवाली अब वही पहाड़ी परिवार बतौर नौकर कर रहे हैं, जिस जमीन के कभी वो मालिक होते थे । रानीखेत से 40 किलोमीटर दूर भीमताल के करीब एक बिल्डर ने अगर समूचा पहाड़ खरीद कर सवा-सवा करोड के करीब पचास कॉटेज बेचने का सपना पैदा किया है तो अल्मोडा के करीब एक बिल्डर का सपना हेलीकाप्टर से काटेज तक पहुंचाने का है। यानी जहां सड़क न पहुंच सके, उस इलाके के एक पहाड को खरीद कर अपने तरीके से कॉटेज बना कर सवा दो करोड में एक कॉटेज बेचने का सपना भी यहीं बसाया जा रहा है। लेकिन वर्तमान का सच रइसों की सुविधा तले कितने खतरनाक तरीके से पहाड़ों के साथ जीवन को भी खत्म कर रहा है, यह पहाड़ पर कब्जे और काटेज की सुविधा को साल में एक बार भोगने से समझा जा सकता है, जहां कॉटेज का मतलब है दो से तीन लोगों के रोजगार का आसरा बनना और औसतन 25 से 50 लोगों का रोजगार छीनना।

पहाड़ के रईसों के इस जीवन का नया सच यह भी है कि इन काटेज में पंखे भी है और एसी भी। यानी पहाड़ पर जमीन सरीखा जीवन जीने की इस अद्भभुत लालसा का आखिरी सच यह भी है कि पहाड का सुकुन अगर जमीन पर ना मिले तो भी पहाड पर जमीन सरीखा जीवन जीने में हर्ज क्या है। लेकिन संकट पहाड़ को भी जमीन में तब्दील करने पर आ टिका है जो मौत के एक नये सिलसिले को शुरु कर रहा है। क्योंकि पहाड़ पर गर्मी का मतलब जमीन पर आकर रोजगार तलाशना भर नहीं है बल्कि पारंपरिक जीवन खत्म होने पर मरना भी है। पहाड़ पर औसतन जीने की जो उम्र अस्सी पार रहती थी अब वह घटकर सत्तर पर आ टिकी है और बीते साल साठ पार में मरने वाले पहाड़ियों में 18 फीसदी का इजाफा हुआ है। इन परिस्थितियों में आर्थिक सुधार की थ्योरी नयी पीढियों के जरीये अब बुजुर्ग पहाड़ियों की सोच पर आन पड़ी है, जहा पहाड़ी भी मानने लगा है कि सबकुछ खरीदना और मुनाफा बनाना ही महत्वपूर्ण है। त्रासदी यह भी है कि पहाड़ों पर अब जिक्र वाकई दो ही स्लोगन का होता है। पहला , जब सोनिया गांधी कौसानी में अपना काटेज बना सकती है, तो दूसरे क्यों नहीं। और जब सरकार पेड़ काट कर विकास का सवाल उठा सकती है तो जंगल जला कर दुसरे क्यों नहीं। लेकिन पहाड़ों पर बारह महीने सालो साल रहने वाले अब एक ही स्लोगन लिखते है, पेडो को रखे आस-पास,तो ही रहेगी मानसून की आस।

Posted by Punya Prasun Bajpai
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आपदा से निपटने को तैयारियां शुरू

दैवीय आपदा का सामना करने के लिए जिला प्रशासन ने सरकारी महकमों को चुस्त दुरुस्त करना शुरू कर दिया है। ताकि आपातकाल में प्रभावित क्षेत्र में त्वरित मदद की जा सके।

इसी क्रम में आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र देहरादून ने 5 सदस्यीय खोज एवं बचाव दल की नियुक्ति कर दी गई है। यह जानकारी जिला अधिकारी अक्षत गुप्ता ने जिला कार्यालय में हुई एक बैठक में दी। उन्होंने बताया कि यह दल जिले के विभिन्न संवेदनशील स्थानों पर 3-3 दिन का प्रशिक्षण देगा।

बैठक में मौजूद जिले के सभी उप जिलाधिकारियों को निर्देशित किया कि उन स्थानों की सूची तैयार करें जहां पिछले वर्षो में आपदा की घटनाएं हुई थी। यह भी कहा है कि आपदा के दौरान आवश्यकता पड़ने पर सड़क बंद होने की दशा में किन साधनों से घटना स्थल पर पहुंचा जा सकता है इसका ब्योरा भी तैयार कर लें। डीएम ने स्वयंसेवी संस्थाओं की सूची तैयार करने को कहा।

28 जून को आपदा से निपटने कि लिए मॉक ड्रिल का आयोजन भैंसवाड़ा फार्म में किया जाएगा। मॉक ड्रिल में राजस्व विभाग के कर्मचारी, प्रांतीय रक्षक दल, होमगार्ड के जवान व रेडक्रास से जुड़े कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया जाएगा।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_9409623.html

 

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