दाएं या बाएं: एक गांव का सच
नवभारत टाइम्स 29 October 2010, 09:37am IST
नई फिल्म : दाएं या बाएं
कलाकार : दीपक डोबिलयाल , भावना भट्ट , बदरूल इस्लाम , मानव कौल , प्रत्युष
निर्माता : सुनील दोषी
स्क्रीन प्ले , संवाद , डायरेक्टर : बेला नेगी
कैमरामैन : अमलान दता
सेंसर सर्टिफिकेट : यू
अवधि : 114 मिनट

स्मॉल स्क्रीन पर मालगुडी डेज सहित कई चर्चित सीरियलों से अपनी पहचान बना चुकी बेला नेगी उत्तराखंड से जुड़ी हैं। बेला लंबे अर्से से पहाड़ों पर दम तोड़ती जिंदगी और यहां विकास के नाम पर हो रही बेतहाशा जंगलों की कटाई जैसे संवेदनशील मुद्दों पर फिल्म बनाना चाहती थीं। आखिरकार , वह अपने मकसद में कामयाब तो हुई , लेकिन उनकी इस फिल्म को आम मुंबइया फिल्मों के साथ जोड़ना न्याय नहीं होगा , बेहद सीमित साधनों के बीच ऐसी कास्ट को लेकर फिल्म बनाना आसान नहीं , जिसने कभी कैमरा फेस ना किया हो। बेला ने करीब दो महीने तक उत्तराखंड के ऐसे गांव में रहकर फिल्म बनाई जहां पूरे दिन में सिर्फ एक बस आती है , यहां की महिलाएं खेती करती हैं और पुरुष दारू पीकर शहर जाने का सपना देखते हुए उम्र गुजार देते हैं।
इस फिल्म को हम उन मुंबइया फिल्मों के साथ नहीं जोड़ सकते जिनमें टिकट खिड़की को ध्यान में रखकर हर मसाला फिट किया जाता है। सीमित बजट और साधनों के अभाव में बेला इस फिल्म के साथ किसी नामी स्टार को नहीं जोड़ सकी। फिल्म में केवल विशाल भारद्वाज की ओंकारा में नजर आया दीपक डोबिलयाल ऐसा चेहरा है जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके अलावा इस फिल्म में उसी गांव के लोगों ने ऐक्टिंग की है जहां शूटिंग की गई। दीपक इसलिए फिल्म से जुड़े क्योंकि उनका रिश्ता पहाड़ों से है। ऐसे में यह फिल्म टिकट उस क्लास की फिल्म नहीं है जिनके लिए सिनेमा सिर्फ मौज मस्ती का साधन है।
कहानी : मुंबई से अपने गांव लौटकर आए रमेश मजीला ( दीपक डोबिलयाल ) का सपना है कि गांव में ही कुछ किया जाए। उधर गांव में उसकी पत्नी ( भारती भट्ट ) और बेटा ( प्रत्युष ) नहीं चाहते कि वह गांव में आकर बस जाए। दरअसल , रमेश की पत्नी मुंबई में बसने का सपना संजोए बैठी है। वहीं पहाड़ों के बीच बसे रमेश के छोटे से गांव में सुविधाओं के नाम पर बस सरकार ने बिजली दे रखी है। गांव के स्कूल में कंप्यूटर आ गए हैं लेकिन इन्हें चलाना किसी टीचर को भी नहीं आता। गांव का हर युवक शहर जाने का सपना देख रहा है। ऐसे में गांव लौटकर आए रमेश को भी यही समझाया जाता है कि कुछ करना है तो शहर लौट जाए , लेकिन रमेश गांव वालों की बातों को नजरअंदाज करके गांव के स्कूल में अंग्रेजी टीचर बन जाता है। इस बीच रमेश एक टीवी कॉन्टेस्ट में एक मंहगी कार जीत जाता है। शहर से कंपनी वाले रमेश को कार सौंपने गांव आते हैं। रमेश कार तो जीत जाता है लेकिन परेशानी यह है कि उसके घर तक सड़क नहीं जाती और ऐसे में कार घर तक कैसे पहुंचे। तो कार दूर मेन रोड पर चाय की दुकान के पास खड़ी होती है और हर कोई कार की चौकीदारी में लग जाता है। गांव का हर शख्स अपनी कार समझता है पर रमेश की परेशानियां बढ़ने लगती हैं। रमेश जब गांव में कला केंद्र स्थापित करने के मकसद से अपने दोस्त सुंदर के साथ शहर में चीफ मिनिस्टर से मिलने जाने की तैयारी करता है तो सारा गांव उन्हें बिदाई देने आता है पर तभी एक ऐक्सिडेंट होता है और कार की टक्कर हो जाती है।
ऐक्टिंग : दीपक खुद पहाड़ी पृष्ठभूमि से जुडे़ हैं , ऐसे में रमेश मजीला के रोल में उनका अभिनय स्वाभाविक लगता है। पूरी फिल्म में दीपक छाए हुए हैं। वहीं पहली बार कैमरा फेस कर रहे गांववालों से बेला ने अच्छा काम लिया है। रमेश की पत्नी के रोल में भारती भट्ट और बेटे के रोल में प्रत्यूष जमे हैं।
डायरेक्शन : बॉक्स ऑफिस की परवाह किए बिना बेला ने इस फिल्म को बनाया और अपनी लिखी स्क्रिप्ट के साथ पूरा इंसाफ किया। फिल्म की गति कुछ सुस्त है , लेकिन इसके बावजूद फिल्म अपने मकसद में कामयाब है।
क्यों देखें : उत्तराखंड के एक छोटे से गांव की रीयल लोकेशन पर फिल्माई गई ऐसी फिल्म , जिसमें आपको कहीं भी बनावट का नहीं मिलेगी। मसाला ऐक्शन और कॉमिडी फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्म में कुछ नहीं , हां अगर आप शाइनिंग इंडिया के इस दौर में किसी गांव को नजदीक से पूरी सचाई के साथ देखना चाहते हैं तो फिल्म बेशक आपके लिए है।
http://navbharattimes.indiatimes.com/moviereview/6829853.cms