धाद....! यानि कि आवाज लगाकर लोगों को चेताना। वर्ष १९९२ में उत्तराखण्ड के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने इस संस्था (Drive for himalyas anthropocentric devlopement- DHAD) की स्थापना की थी। धाद की स्थापना मुख्य रुप से हिमालय को समझने और उसके विकास के लिये लोगों को जागरुक करने के उद्देश्य से की गई थी। हिमालयी क्षेत्र से पलायन, आर्थिकी की समझ का अभाव, समाज में पारस्परिक संवाद की कमी, संस्कृति और सामाजिक संरचना का अभाव, समकालीन सामाजिक चेतना का अभाव, रचनात्मक वातावरण का अभाव और किसी भी संदर्भ में आवश्यक पहल और जोखिम की कमी, मुख्य कारण और कारक थे, जिन्होंने धाद की आवश्कता की जरुरत समझी गई।
इन्हीं समस्याओं के समाधानो को खोजने का कार्य धाद १९९२ स निरन्तर कर रही है। धाद संस्था ने उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान विभिन्न पोस्टर जारी किये, नुक्कड़ नाटकों, कविता पोस्टरों और जुलूसों का आयोजन किया, जिससे निश्चित रुप से आन्दोलन को एक नई गति मिली।
वर्तमान में भी धाद निरन्तर रचनात्मक कार्य करता रहता है, उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति और धरोहरों को बचाने के लिये यह संस्था निस्वार्थ कार्य कर रही है। धाद प्रकाशन के तहत उत्तराखण्ड की भाषा के संरक्षण के लिये किया जा रहा कार्य अत्यन्त ही सराहनीय और अनुकरणीय है।