पहाड़ी गांवों में बहु बेटियों के अकेलेपन के साथी हैं लोकगीत. वे गीत इस तरह ज़िंदा हैं. उनमें उन स्त्रियों की ख़ुशियां, अवसाद और तक़लीफ़ें हैं. वे करुण गीत पहाड़ी स्त्री की आत्मा की पुकार हैं. ऐसा ही एक लोकगीत ये हैः
रात घनघोर मांजी!
रात घनघोर मांजी रात घनघोर,
बेटी नी बेवौण मांजी दीप डांडा पोर !
आयूं च खायूं च, आयूं च खायूं च,
जा बेटी सौरयास तेरो जवैं आयूं च !
पेइ च सराब मांजी , पेइ च सराब ,
सैसर नी जाण मांजी,जवैं च खराब !
दली जाली दाल मांजी, दली जाली दाल,
जवैं क्या बोन्न मांजी ,मेरो आयूं च काल !
मारीत मलेउ मांजी, मारीत मलेउ,
सैसर नी जाण मांजी,न बणौ कलेउ
कोठारी का खाना मांजी , कोठारी का खाना,
इननी मरी जाण मांजी, नणदू का बाना!
गुलैरी की गारी मांजी, गुलैरी की गारी,
सासुजीन पकड़ी मांजी,जिठाणीन मारी!
घोड़ी की कमर मांजी, घोड़ी की कमर,
कसीकी बितौलू मांजी,लौंडिया उमर
पाणी को गिलास मांजी, पाणी को गिलास,
तुमू दरु ह्वैगे मांजी,मैं लगदी निसास!
सुखी न संपत्ति नी मांजी, रात घनघोर,
वियोणू नी आइ मांजी, दीप डांडा पोर!
(हिंदी भावार्थः रात घनघोर है। हे मां दीप डांडे के पार बेटी को न ब्याहना। ओ बेटी! ससुराल जा, तेरा पति आया हुआ है। मां! मैं ससुराल नहीं जाऊंगी वह खराब है,उसने शराब पी है। क्या कहूं मां मेरा तो काल आया है।मैं ससुराल नहीं जाऊंगी, मां!मेरा कलेवा मत बना। ननदों के कारण मैं किसी दिन मर जाऊंगीं, सास मुझे पकड़े रहती है और जेठानी मारती है। तुम तो दूर हो, मां! मुझे तुम्हारी याद आती है। न सुख है ,न संपत्ति। रात घनघोर है, अभी तक दीप डांडे के पार से सुबह का तारा नहीं निकला।)
उपरोक्त लोकगीत गोविंद चातक की पुस्तक गढ़वाली लोकगीत से साभार
(Source-hilwani.com)