Author Topic: Musical Instruments Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के लोक वाद्य यन्त्र  (Read 80686 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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हेम पन्त

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जिले में खुलेगा ढोल सागर प्रशिक्षण केंद्र
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ढोलवादक उत्तम दास ने कहा कि वह जल्द ही सुरसिंगधार में ढोल सागर प्रशिक्षण केंद्र खोलेंगे।

चम्बा प्रखण्ड के साबली गांव के रहने वाले उत्तम दास ने शुक्रवार को पत्रकारों से बातचीत में बताया कि इस विधा व ढोल दमाऊ की संस्कृति को जिंदा रखने के लिए उन्होंने केन्द्र खोलने का निर्णय लिया। ओम शिव ढोल सागर सांस्कृतिक प्रशिक्षण केन्द्र नई टिहरी के सुरसिंगधार में शीघ्र खोला जाएगा। उन्होंने कहा कि केन्द्र को चलाने के लिए भवन का निर्माण पूर्ण होने को है और लगभग एक माह के अंदर केन्द्र कार्य करना शुरू कर देगा। इसमें ढोल दमाऊ को एक साथ बजाने के अलावा उसके विभिन्न तालों की जानकारी दी जाएगी। इसके संचालक व प्रशिक्षक खुद उत्तम दास हैं। उन्होंने बताया कि बहुत से लोग हैं जो इसे सीखना चाहते हैं तथा अब तक 65 युवक प्रवेश के लिए आवेदन कर चुके हैं।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7653086.html

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विनोद सिंह गढ़िया

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सात समंदर पार दे रहे गढ़वाली संस्कृति की शिक्षा


मसूरी। यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी के एथनॉम्यूजिकोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर स्टीफन फियॉल को उत्तराखंड के लोक वाद्य यंत्र और यहां की संस्कृति इस कदर भायी कि उन्होंने इस पर शोध करने का ही मन बना लिया। वह सिनसिनाटी यूनिवसिर्टी में अमेरिकी बच्चों को गढ़वाली लोक संस्कृति, वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। फियॉल अभी तक आधा दर्जन ढोल, दमाऊ, हुड़का और मशकबीन के जोड़े अमेरिका ले जा चुके हैं।अमेरिका के यह युवा प्रोफेसर वर्ष 2002 से उत्तराखंड़ के संगीत और वाद्य यंत्रों पर शोध कर रहे हैं। फर्राटे से गढ़वाली बोलने वाले फियॉल ने अमर उजाला से बातचीत में कहा, उत्तराखंड की संस्कृति बेहद समृद्ध है। उत्तराखंड के संगीत के पुराने रिद्म से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए लेकिन, समय के हिसाब से बदलाव समय की जरूरत होती है।लोक संस्कृति, बोली-भाषा और रीति-रिवाज से युवाओं के घटते रुझान पर चिंता व्यक्त करते हुए फियॉल बताते हैं कि यदि हालात नहीं बदले तो संस्कृति मिटने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।ट्रेकिंग का शौक पूरा करने के लिए अमेरिका से उत्तराखंड आए फियॉल केदार घाटी भ्रमण के दौरान गढ़वाली लोक संस्कृति, वाद्य यंत्रों पर मोहित हुए और जौनपुर-रवाईं, जौनसार के अलावा टिहरी, पौड़ी के दर्जनों गांवों का भ्रमण किया। ढोल-दमाऊ बजाने वालों के साथ विवाह समारोह में गए। इस दौरान उन्होंने उत्तराखंड की बोली-भाषा, रीति-रिवाज, खान-पान को स़ीखा। लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण को अपना आदर्श मानने वाले फियॉल कहते हैं कि गढ़वाल की संस्कृति दुनिया में अनूठी है और इसे बचाए रखने की जरूरत है। इस मौके पर संगीतकार संजय कुमोला, एमपीएस के प्रधानाचार्य मुकेश लाल, डीएस रावत आदि शामिल रहे।



[/color]http://www.amarujala.com/city/Dehardun/Dehardun-20745-11.html

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ढोल दमाऊं का प्यार लाया सात समंदर पार

  



फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला सात समंदर पार का कोई गोरा अगर गढ़वाली बोले, गढ़वाली गीत गाए और ढोल-दमाऊं बजाए तो हर कोई आश्चर्यचकित होगा ही। टिहरी के पुजार गांव में इन दिनों यह नजारा देखा जा रहा है। अमेरिका का एक प्रोफेसर गांव वालों के बीच रहकर न सिर्फ उनकी बोली बोलता है, बल्कि गायन और वादन से उनका मनोरंजन भी करता है। ढोल-दमाऊं  का प्यार ही उसे सात समंदर पार से भारत खींच लाता है।


हम बात कर रहे हैं अमेरिका की सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के एथनोम्युजिकोलजी विभाग के प्रोफेसर स्टीफन फियोल की। विवि का यह विभाग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के लोक संगीत का मानव विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करता है। स्टीफन भी उत्तराखंड के लोक संगीत का यहां के लोगों पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। वर्ष 2000 में पहली बार वह घूमने के उद्देश्य से एक साल के लिए भारत आया।


 इस दौरान उन्होंने वाराणसी में सितार सीखने के साथ ही मसूरी में दो माह हिंदी बोलने का प्रशिक्षण भी लिया। 2003 में दो माह के लिए भारत आने पर वह पहली बार उत्तराखंड पहुंचे। यहां की प्राकृतिक सुंदरता, संस्कृति, संगीत व लोक कलाओं को देखकर वह अंत्यंत प्रभावित हुए।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8076302.html

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स्टीफन भी बोले दैणा हूंया खो8ी का गणेशा.
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 विश्वास नहीं होता कि एक अमेरिकी मूल का नागरिक पराए वाद्य यंत्र को गले डाल नृत्य के लिए विवश कर दे, लेकिन यही सच है। ओड्डा के चौक पर स्टीफन ने 'दैणा हूंया खो8ी का गणेशा..नौछमी नारैणा' गीत गाने के साथ ही जैसे ही ढोल पर थाप दी, उपस्थित समुदाय ताली बजाता हुआ स्वागत करने लगा। चारों ओर से नजर उन पर टिक गई। वाह! शाबाश ! यही शब्द सुनाई दिए।

ढोल-दमाऊ अब सिर्फ औजी समाज तक ही नहीं सिमटा रहेगा बल्कि इसे अब गले में डालना गर्व समझा जाएगा। अमेरिकी मूल के स्टीफन फ्योल ने शनिवार को ओड्डा के चौक में चौंकाने का कार्य किया है। स्पर्धा में आए औजी समाज की प्रस्तुति समाप्त होने के बाद प्रणाम करते हुए स्टीफन ने ढोल कंधे में रखा और फिर पहली थाम के साथ धूंया8 बजाते हुए गुरु की वंदना की। उनके गुरु सोहन लाल स्टीफन के सुर में सुर मिलाते हुए गाने लगे तो सुकारू दास दमाऊ पर संगत करते रहे।


गुरु को प्रमाण करने के बाद स्टीफन पांडव नृत्य की थाप देने लगे और फिर प्रसिद्ध लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी, निर्देशक अनिल बिष्ट, बीएस रावत, अनुसूया प्रसाद सुंदरियाल समेत अन्य ग्रामीण भी नृत्य करने लगे। स्टीफन ने यह संदेश तो दे ही दिया कि अमेरिका मूल का नागरिक जब ढोल को गले लगा सकता है

तो फिर उत्तराखंड के लोगों को इसे गले से परहेज नही होना चाहिए। स्टीफन ने ढोल की थाप बंद की ही थी कि जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण ने अपने भाई सुरतम के साथ ढोल गले में डाल दिया और जागर की प्रस्तुति के साथ लोगों को जमकर नृत्य किया। ढोल-दमाऊ की इस संस्कृति गंगा में चौक पर उपस्थिति हर व्यक्ति सराबोर नजर आया।


http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6246786.html

   

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ढोल को दिलाई नई पहचान
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जिस ढोल को एक दौर में उत्तराखंडी समाज हेय दृष्टि से देखता था, वही आज राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड के सम्मान का प्रतीक बन गया है। भारत ही नहीं, आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक इस सदियों पुरानी कला के संरक्षण को कार्य हो रहे हैं।

 लेकिन, ढोल एवं ढोलियों को समाज की मुख्यधारा की तरफ लाने वाले प्रो.दाताराम पुरोहित इससे संतुष्ट नहीं है। वह ढोल एवं ढोलियों को वह सम्मान एवं रुतबा दिलाना चाहते हैं, जिसके वे वास्तव में हकदार हैं।


हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर में अंग्रेजी के प्राध्यापक प्रो.पुरोहित को कला-संस्कृति के प्रति आगाध श्रद्धा है। वर्ष 1987 में उन्होंने ढोल एवं उसके वादन का डाक्यूमेंटेशन करने के लिए साथी कला प्रेमियों के साथ 'हिमालय ताल वाद्य वृंद' की शुरुआत की। साथ ही भुवनेश्वरी महिला आश्रम के सहयोग से 'ढोल, ढोली और ढोल वादन' किताब भी लिखी। वर्ष 2000 में देहरादून की 'रीच' संस्था का समन्वयक रहने के दौरान उन्होंने ढोल के अभिलेखीकरण का कार्य आरंभ किया।


इसके लिए छह राज्यों से ढोली बुलाए गए और विशेषज्ञों की एक टीम ने उसका अभिलेखीकरण किया। टीम में कुमाऊं विवि के संगीत विशेषज्ञ प्रो.विजय कृष्ण, लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी, आस्ट्रेलियाई संगीत विशेषज्ञ एंड्रयू आल्टर और गुजरात के तबला विशेषज्ञ राजेश जोशी व निखिल मोले शामिल थे। बाद में लोकगायक नेगी के निर्देशन में इससे 'हिमालयी नाद' की रचना हुई, जिसमें अलग-अलग बीस पारंपरिक वाद्यों का समावेश था।

एसबीएमए के सहयोग से उन्होंने सोहनलाल व सुकारु दास को पहला गढ़वाली आर्केस्ट्रा बनाने के लिए प्रेरित किया। साथ ही इस टोली को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहचान भी दिलाई। श्रीनगर बैकुंठ चतुर्दशी मेले में पहली बार औजियों की कला का प्रदर्शन उन्हीं के प्रयासों से हो पाया। ढोल सागर की प्रस्तुति में उन्होंने सोहनलाल की टीम के साथ पंडित की भूमिका निभाई।

 न्यू इंग्लैंड यूनिवर्सिटी से ढोल पर पीएचडी कर रहे आस्ट्रेलियाई नागरिक एंड्रयू ऑल्टर और यूनिवर्सिटी ऑफ इलेनऑय से पीएचडी कर रहे अमेरिकी नागरिक स्टीफन फियोल ने भी उनके साथ रहकर ढोल की बारीकियां सीखीं।

Source Dainik Jagran

हेम पन्त

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