जब पहाड़ में अकाल पड़ा था, तब के दौर का दर्द बताता "गुमानी जी" का यह गीत
हलिया हाथ पड़ो कठिन लै, है गैछ दिन-दोफरी,
बांयो बल्द मिलो छ, एक दिन्यू को कांजू में दैणा हुणी?
माणो एक गुरुंश को, खिचड़ी सूं पैंछो ल्यिछु नी मिलो!
मैं ढ़वाला छूं हाय काल हराणों कांजू? कि धाना करुं?
आटा का अनचालिया खसखसा रोटा, बड़ा बाकला,
फानो भट्ट, गुरुंश औ गहत को डुबका बिना लूण का!
कालो शाग जिनो बिना भुटण को, पिंडाअलू को नौल को!
ज्यों-त्यों पेट भरी अकाल कटनी गंगावली रौणिया!