उत्तरांचल के हिमालयी क्षेत्रों में ढोल नेगी जी की गूंजती आवाज वादन की बहुत पुरानी और समृद्ध परंपरा रही है लेकिन समय के साथ ढोल का शास्त्र और इसे बजानेवाले कलाकार हाशिये पर जाने लगे थे.ऐसे में कुछ संस्कृतिकर्मियों और लोककलाकारों ने ढोल और सोलह ठेठ पहाड़ी साज़ों को मिलाकर अनूठा ऑर्केस्ट्रा तैयार किया है.अब तक इन साज़ों को अलग-अलग ही बजाया जाता था या ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन साज की जुगलबंदी होती थी.लेकिन पहली बार एक दर्जन से अधिक लोकवाद्यों को एक साथ एक जगह रख दिया गया है
ये गाना भी काफी पुराना है
रीधी कु सुमिरो,सीधी कु सुमिरो,सुमिरो सारदा माई,
अर् सुमिरो गुरु अभिनासी को,सुमिरो किशन कनाई!
सदा अमर या धरती नि रैन्दि,मेघ पड़े शुखी जाई,
अमर नि रैंदा,चन्द्र सूरज चुचा,गर्हण लगे छुपी जाई!
माता रोये जनम-जनम को,बहिन रोये छै मासा,
तिरिया रोये डेड घडी को,आन करे घर वासा!
ना घर तेरा न घर मेरा,चिडिया रैन बसेरा,
अस्ति घोड़ा कुटुंब कबीला रै चला-चली का फेरा!
रीधी कु सुमिरो सीधी कु सुमिरो,सुमिरो सारदा माई ,
सुन ले बेटा गोपीचंद जी बात सुनों चितलाई,
झूटी तेरी माया ममता,मति कैसी भरमाई!
कागज पटरी सब कोई बांचे करम न बांचे कोई,
राज घरों को राज कुवंर चुचा करणी जोग रमाई !
रीधी कु सुमिरो सीधी कु सुमिरो सुमिरो सारदा माई.
अर् सुमिरो गुरु अभिनासी कु सुमिरो किशन कनाई !