Author Topic: Songs On Personalities/Movements - विभिन्न आन्दोलनों/व्यक्ति विशेष पर लिखे गीत  (Read 24849 times)

पंकज सिंह महर

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हीरा सिंह राणा की उत्तराखंड आन्दोलन की लोकप्रिय कविता

लश्का कमर बांधा,हिम्मत का साथा फिर भुला उज्याली होली,
कां लै रौली राता लश्का कमर बांधा.....
य नि हूनो ऊ नि होनो,कै बै नि हूंनो के ,
माछी मन म डर नि हुनि चौमासै हिलै के
कै निबडैनि बाता धर बै हाथ म हाथा, सीर पाणिक वै फुटैली जां मारुलो लाता
लश्का कमर.....
जब झड़नी पाता डाई हैं छ उदासा, एक ऋतु बसंत ऐछ़ पतझडा़ का बाद
लश्का कमर बांधा........

पंकज सिंह महर

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मसूरी काण्ड पर लिखी गयी ह्रदय स्पर्शी कविता
विदा मां ......विदा !!(जगमोहन)


जाते समय झार पर छोड़ आई थी,वह माँ कहकर आई थी अभी आती हूँ
ज...ल्दी बस्स.....तेरे लिए, एक नई जमीन,एक नई हवा, नया पानी ले आऊं ले आऊं
नई फसल, नया सूरज, नई रोटी
अब्बी आई....बस्स पास के गांधी-चारे तक ही तो जाना है,झल्लूस में
चलते समय एक नन्ही हथेली, उठी होगी हवा में- विदा ! मां विदा!!
खुशी दमकी होगी,दोनो के चेहरे पर माथा चूमा होगा मां ने- उन होठो से,
जिनसे निकल रहे थे नारे वह मां सोई पडी़ है सड़क पर पत्थर होंठ है,
पत्थर हाथ पैर पथराई आँखे पहाडों की रानी को, पहाड़ देखता है
अवा्क - चीड़ देवदार, बाँज -बुराँस, खडें है सन्न-
आग लगी है आज.आदमी के दिलो में खूब रोया दिन भर बादल रखकर सिर पहाड़ के कन्धे पर
नही जले चूल्हे, गांव घरो में उठा धुआ उदास है खिलखिलाते बच्चे,
उदास है फूल वह बेटा भी रो-रोकर सो गया है- अभी नही लौटी मां......
लौटेगी तो मैं नही बोलूंगा लौटी क्यों नही अभी तक....!
उसे क्या पता, बहरे लोकतन्त्र में वह लेने गई है,अपने राजा बेटे का भविष्य

पंकज सिंह महर

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भूतपूर्व सैनिकों की उत्तराखण्ड आन्दोलन में शहादत पर

सीमा पर जो नही आ सके अचूक निशाने की जद़ मे
नही आ सके जो मिसाइलों -टैंकों और राँकेटो की रेंज मे,
वे आ गये बिना निशाना सधी गोलियो की चपेट में
जो देश कि सीमा पर मुस्तैदी से रहे तैनात,
मार गिराया जिन्होने न जाने कितने दुश्मनो को,
वो काम आ गये अपनी ही जमीन पर
अपने ही लोगो के बीच निहत्थे थे
अस्मिता की तलाश मे निकले,
मुटिठ्या तनी थी,
जिसमे थी इच्छायें,
इच्छाओ से पटी थी आग,
आग से जले थे शब्द,
और उन शब्दो से डरा हुआ था तानाशांह,
एक जद के खिलाफ निहत्थे खडे़ थे
हजारो के बीच वे तीन या तेरह,
पांच या सात,
और इस जिद के खिलाफगिरते-गिरते भी उन्होने
अपने खून से लिख दिया
ज...य ..उ..त्त..रा...खण्ड

पंकज सिंह महर

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चलना भी आता है पहाडो़ को

पहाड़ केवल , धूप के दरिया नही है
न होते है केवल, बुरांस के फूल
और शाल वक्षों का देश
बेकल आनन्द से भर देने वाले केवल दश्य ही न हीं है पहाड़
न हैं पहाड़ सिर्फ नदियों के आदि स्त्रोत पहाडो़ में बसते है लोग नितान्त एकान्त में
जंगल के नितम्ब से मिकलने वाली तंग तलहटियों के मध्य,
था उत्तेग शिखरो की काली चट्टानो के आसपास,
हाथो में चुनी झोपडियों में पहाडो़ को इतना ठंडा मत समझो
सुलगते हैं भीतर ही भीतर, ज्वालामुखी की तरह, वेशक
मौसम बनाते है इन्हे, सहनशील और धैर्यवान
मत समझो पहाडो़ को बोलना नही आता पहचाने जाते है
पहाड़ यहां बसने वाले लोगो से इसलिए
अब पहाड़ अपने लोगों की मुकम्मल पहचान के लिए लुढ़कना चाहते है,
मैदान की ओर,
मत समझो मत समझो पहाडों को उठकर चलना नही आता,
चलना भी आता है पहाडों को......!

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड..........लडाई (लोकेश नवानी)


जो लोग उस ओर अपनी बंदूकें पोछ रहे है,
बूट उतारकर धूप सैकनें में मस्त,
शान्ति का लिवास पहने ठिठोली करते हुए
तुम्हारे जेहन का डर दूर कर रहे हैं
ताकि तुम सोये रहो, बजाते रहो चैन की बंसी,
असल में तुम्हारे दिमाग निहत्थे किये जा रहे है-लगातार...
इसलिए मत सोने दो दिमाग को,डटे रहो मोर्चे पर,
होने वाले हर हमले के खिलाफ, वजूद के नेस्तानाबूत हो जाने के बजाय,
चुनौती दो, उसकी अस्मिता को भी, लडा़ई को चुपचाप उनके हाथो में सौंप देने से
पहले खबरदार रहो निर्णायक लडाई लडने के लिए, लड़ाई होकर रहेगी

पंकज सिंह महर

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उठा गढ़वालियो ! (सत्य नारायण रतूणी)

अब त समय यो सेण को नी छ.तजा यो मोह निद्रा कू. अजौ तैं जो पडी़ ही छ
अलो! आपण मुलूक की यों छुटावा दीर्घ निद्रा कूँ,सिरा का तुम इनी गहैरी खडा़ माँ जीन गिरा यालै
आहे! तुम भैर त देखा, कभी से लोक जाग्याँ छन,जरा सी आँख त खोला,
कनो अब घाम चमक्यूँ छपुराणा वीर व ऋषियों का भला वतान्त कू देखा,
छयाई उँ बडौ की ही सभी सन्तान तुम भी त,
स्वदेशी गीत कू एक दम गुँजावा स्वर्ग तैं भायों,भला छौंरु कसालू की कभी तुम कू कमी नी छ
बजावा ढोल रणसिंघा,सजावा थौल कू सारा,दिखावा देश वीरत्व भरी पूरी सभा बीच
उठाला देश का देवतौं साणी,बांका भड़ कू भी,पुकारा जोर से भ्यौ घणा मंडाण का बीचकरा प्यारो !
करा तुम त लगा उदोग माँ भायों,किलै तुम सुस्त सा बैठयों छयाई औरक्या नी छ
करा संकल्प कू सच्चा, भरा अब जोश दिल माँ तुम,अखाडा़ माँ बणा तुम सिंह,गर्जा देश का बीच
बजावा सत्य को डंका सबू का द्धार पर जैकभगवा दुःख दारिद्रय करा शिक्षा भली जो छ
अगर चाहयैंत हवै सकदैं धनी विद्धान बलधारी,भली सरकार की छाया मिंजे तुम कू कमी क्या छ
जागो मेरा लाल...!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड के लोक गायक प्रहलाद सिह मेहरा ने विकास की उम्मीद मे पूर्व मुख्यमंत्री  भगत सिह कोश्यारी पर यह गाना लिखा है ( एल्बम का नाम  छिलबिलाट भानुली क )

पहलाद सिह मेहरा.

भगत कोशियारी भगत दा
खोली दे विकास ताली (lock )
तेरी ताली खुलली भगत दा,
गत हमारी सुधरी जाली. ..

कोरस : भगत कोशियारी भगत दा
खोली दे विकास ताली (lock )
तेरी ताली खुलली भगत दा,
गत हमारी सुधरी जाली.

पहलाद सिह मेहरा. : जोड़

हा. हा. हे..

अब बजेली का पूना
घरुवा क मूना
घरुआ घुरण गयो
घुरा मूना ना रूना.

विकास बग्स (बॉक्स) पुजी देहरादून
पूजी गे देहरादून भगत दा खुली दे विकास ताली.
तेरी ताली खुलली भगत दा,
गत हमारी सुधरी जाली.

कोरस : भगत कोशियारी भगत दा
खोली दे विकास ताली (lock )
तेरी ताली खुलली भगत दा,
गत हमारी सुधरी जाली.

पहलाद सिह मेहरा. : जोड़

हा. हा. हे..

नथुली का डोर
जगली क मोर
रागली तिवे बातूनी
सियानी बातूनी शोर

धाग हुना खैछि लियोनी
तवे अपना ओर

तवे आपुन ओर भगत दा
खुली जाली विकास ताई

कोरस : भगत कोशियारी भगत दा
खोली दे विकास ताली (lock )
तेरी ताली खुलली भगत दा,
गत हमारी सुधरी जाली.

पहलाद सिह मेहरा. : जोड़

हा. हा. हे..

हाजिर का फूल सर मा धरुना
रूखी सुखी कहना भगत दा
खुटी तुमर जूना..
जुग जुग भगत दा नाम तुमर लियूना.
तुमर नाम लियोना भगत दा
खुल जाली विकास ताई.

कोरस : भगत कोशियारी भगत दा
खोली दे विकास ताली (lock )
तेरी ताली खुलली भगत दा,
गत हमारी सुधरी जाली.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गोपाल बाबु गोस्वामी का मालू रौतेली एव हरु हीत पर यह गाना. !

यह गाना हरु हीत पर विशेषकर बनाया गया है जब मालू रौतेली से मिलता है !

 मन वसी गियो वो मालू रौतेली त्वी में
 मन वसी गियो.
 
 मन वसी गियो हरु सिह हीत तेरो मन वसी गियो
 जादू का मुलुक तेरो मन वसी गियो

 मन वसी गियो वो मालू रौतेली त्वी में
 मन वसी गियो.

यह गाना छोटे -२ टुकडो मे है जो की गोपाल बाबु गोस्वामी की एल्बम हरु हीत में कहानी के अनुसार सुनने को मिलेगा !

Mukesh Joshi

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एक बहुत सुन्दर रचना नेगी जी की "उत्तराखंड आन्दोलन " एल्बम से
लोगो में  क्या जूनून था पहाड़ के अलग राज्य की माँग के लिए देखिये ............


मथि पहाड़ बटी , निस गंगाडू बटी
स्कूल ,दफतर , गोऊ , बाज़ार बटी
मन्खियु की डार धारू-धारू बटी 
हिटण लगिया छन , हिटण लगिया
हिटण लगिया छन  बैठण लगा नि
बाटा भरा छन सड़क यु मा जगा नि
हे जी कख जाणा ..................
हे जी कख जाणा छा तुम लोग
.co.......उत्तराखंड आन्दोलन मा
सभी कख जाणा छा तुम लोग
 co ........उत्तराखंड आन्दोलन मा
दीदी कख जाणा छा तुम लोग
co ........उत्तराखंड आन्दोलन मा
                         भूख न तीस न डर न फिकर चा
                         मुठ बोटी छन कसी कमर चा
                         हथ म मुछियला आँखों म अंगार
                         खुटा धरती म आकाश नजर चा
                         हिटण लगिया छन , हिटण लगिया
                         हिटण लगिया छन  बैठण लगा नि
                         बाटा भरा छन सड़क यु मा जगा नि
                         हे जी कख जाणा छा तुम लोग
                         .co.......उत्तराखंड आन्दोलन मा
काका भी दादा भी नाती सड़क मा
एक ह्वेनी सभी जाती सड़क मा
माँ बहिनों कू दुःख सड़कों मा
दुखी लाचार बुढाप सड़कों मा
बेरोजगार जवानी सड़कों मा
हिटण लगिया छन , हिटण लगिया
हिटण लगिया छन  बैठण लगा नि
बाटा भरा छन सड़क यु मा जगा नि
हे जी कख जाणा छा तुम लोग
.co.......उत्तराखंड आन्दोलन मा
सभी कख जाणा छा तुम लोग
 co ........उत्तराखंड आन्दोलन मा 
               

पंकज सिंह महर

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राज्य बनने की आठवीं वर्षगांठ पर जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता

तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?


कैसे कह दूं, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहां रुकी,
गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आंखों से लहू रुलाते हैं।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आंखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आंखों का सपना बिखर गया।

यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है।
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आंखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ।

पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठी नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

 

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