सावन ,सुराज ,स्वतंत्रता और सपने ….
August 4, 2013 at 3:21am
सावन जो कभी दो टकिया की नौकरी के सामने लाखों का होता था … काले मेघ जो कालिदास की नायिका का दूत बन विरह की पीड़ा का बोझ नहीं उठा पाते थे …. खेत जो आसमान को ताकते- ताकते बिवाई की तरह फट जाते थे …. किसान जिसकी धडकनें बदलियों के मूड पर पर घटती बढती थी …. धरती ,चर- अचर धानी चुनरी ओढ़ कर आनंद की छटायें बिखेरते थे …एहसास क्यों बदलते जा रहे हैं ...? क्या समय ,उम्र , और माहौल 'है' को "था "में बदल रहे हैं … शायद … अनुभूतियों के स्तर पर सब कुछ सापेक्ष है … सबकी अपनी अपनी … पर बहुत कुछ तेजी से बदल रहा है …. मानता हूँ यही प्रकृति का नियम है पर दिशा -दशा देवाधीन हो गई है … और हम संघर्ष रत होकर भी क्यों इतने लाचार …?
देवता जो हमसे ऊपर हैं …हमारे रक्षक हैं … जिनका हमारे जीवन पर नियंत्रण है … हमसे बलिष्ठ हैं … हमने जब यह महसूस किया तब से आज तक उनके आगे नतमस्तक हैं ,इस झूठी दिलासा के साथ कि कभी वे हमें उठा कर गले लगायेंगे …. यह जानते हुये भी कि उनका अस्तित्व सिर्फ तभी तक है, जब तक हम नतमस्तक हैं …. कभी इन्हीं देवताओं के वीर्य से नये देवता जन्म लेते हैं और हमारी आत्मायें उनकी जय-जय कार से फूली नहीं समातीं ….
कहने को स्वराज और स्वतंत्रता की ६७ वीं वर्ष गाँठ की परम्परा का निर्वाह होगा … झंडे वही फहरायेंगे ,हम सिर्फ तालियाँ बजायेंगे …..
कुछ पेट थोड़े रुपयों में भरेंगे …कुछ खूब खा कर भी भूखे रहेंगे … कमी उनकी भी नहीं है जो मुफ्त रामरोटी से जीवन गुजार देते हैं। झंडे फहराने वाले स्वराज ,सुराज और स्वतंत्रता की दुहाई देते रहेंगे … जिनकी शहादतों पर पैर रख कर सत्ता उस ओर से इस ओर आई उन्हें अब भूलना होगा ,क्योंकि वह अब पुरानी बात हो गई है और नए शहीदों ,नायकों और देवताओं के लिए भी तो जगह बनानी है ना …आखिर कब तक लकीरों को पीटते रहेंगे …?
शिक्षा और चिकित्सा व्यापारियों को सौंप कर हम इनमें शुचिता और समर्पण की अपेक्षा करते हैं …. आँखों के सामने बहते काले धन की नदियों में हमें बाढ़ नहीं दिखाई देती पर लोटे से छलके पानी से हम गीले हो रहे हैं ….
आत्मकेंद्रित प्रवृत्तियों और स्वहित तक सीमित इकाइयों के समाज में कानून और और तंत्र की लाचारी हाथ बाँधे खड़ी है और नासमझ भीड़ को रिझा रही है जबकि लुटेरे उद्धारक के बाने में "सब कुछ"लूट रहे हैं और हम उनकी शरण में हैं … इस प्रजातंत्र में हम तंत्र की प्रजा हो गये हैं …. सामाजिक हितों से हमारे हित टकराने लगे हैं … इसीलिए शायद हम खुद नहीं चाहते कि व्यवस्था बदले …
घोंघे की तरह अपनी खोल में छुपे हुये हम जिस संकट के टल जाने उम्मीद में हैं … यह बताने कि, वह भी हर वक़्त हमारी ताक में है और हमारे जमीरों को जगाने कोई अवतार , क्या फिर आयेगा ? आखिर हम …. कब … आज़ाद होंगे …?
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-ललित मोहन पन्त
३. ३३ प्रातः
०४। ०७। २०१३