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देवप्रयाग का सबसे बड़े संप्रदाय, तिलंग भट्ट ब्राह्मणों का आगमन दक्षिण भारत से हुआ और देवप्रयाग उनका शीतकालीन घर है। वे वर्तमान आठवीं सदी में आदी शंकराचार्य के साथ यहां आये थे। कहा जाता है कि वे बद्रीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं और गर्मियों के महीने में बद्रीनाथ में ही रहते है जब मंदिर का कपाट खुल जाता है।
चीनी यात्री ह्वेन्सांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी माना है। इस प्रकार वर्तमान सातवीं सदी में इसे ब्रह्म तीर्थ तथा श्रीखंड नगर के विभिन्न नामों से जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ अरावल ग्रंथ में इसे कंडवेणुकटि नगरम माना गया है।
लगभग वर्तमान 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश द्वारा शासित था जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाया। वर्ष 1803 में क्षेत्र की एक तिहाई आबादी को मृत्यु से ग्रसित करने वाले विध्वंशक भूकम्प से लाभ उठाते हुए गोरखों ने गढ़वाल की ओर कूच किया। उस समय प्रद्युम्न शाह वहां के राजा थे। युद्ध में प्रद्युम्न शाह मारे गये और गोरखों ने गढ़वाल पर कब्जा कर लिया।
वर्ष 1815 में प्रद्युम्न शाह के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से अपना राज्य वापस छीन लिया। अंग्रेजों ने रवाईन और देहरादून को छोड़कर अलकनंदा से पश्चिम गढ़वाल का संपूर्ण क्षेत्र मार्च 4, 1815 को सुदर्शन शाह को दे दिया। उसके बाद उसने अपनी राजधानी टिहरी बनायी क्योंकि पुरानी राजधानी श्रीनगर जिस भूमि पर बसी थी, वह ब्रिटीश गढ़वाल में चली गयी।
पंवार वंश के राजाओं का देवप्रयाग से निकटता का संबंध था तथा वे ही रघुनाथ मंदिर को चलाने एवं रख-रखाव के लिए उत्तरदायी थे। उन्होंने 26 गांव मंदिर को दान कर दिये और उसी की आय से मंदिर चलाया जाता था। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्र पात्रानुसार पंवार वंश के 37वें वंशज, अभय पाल ने इन गांवों का दान मंदिर को दिया था साथ ही तिलंग भट्टों को बद्रीनाथ का तीर्थ पुरोहित का कार्य करने का अधिकार भी दिया, जिस पेशे में वे आज भी नियोजित हैं।