Author Topic: Chardham In Uttarakhand - देवभूमि के चारधाम और अन्य मंदिरों,पहाडों की झांकियां  (Read 134638 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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देवभूमि उत्तराखंड के आस्था एवं पर्यटन के लिए विख्यात गंगोत्री यमुनोत्री, बद्री-केदारनाथ चार-धाम यात्रा की यात्रा सनातन धर्म को मानने वाले करोड़ों हिंदुओं में मोक्ष धाम के रूप में मान्यता प्राप्त है. इन चार धाम यात्रा के मंदिरों के कपाट को जगत गुरू शंकराचार्य द्वारा शुरू की गई परंपरा के अनुरूप मात्र छ: माह के लिए खोले जाते हैं. चारों धामों में देश के कोने-कोने से श्रद्धालुओं की भारी संख्या पावन धाम में स्थित देवालयों के देवी-देवताओं का दर्शन करने को पहुंचती है. इसके साथ ही हज़ारों देशी-विदेशी पर्यटक भी गंगा-यमुना के उद्गम स्थल के साथ हिमालय के यादगार स्थलों का आनंद लेने विभिन्न यात्रा साधनों से यहां पहुंचते हैं. यहां आने वाले अनेक पर्यटक हिमालय की प्राकृतिक वैभव का आनंद उठाने केदार एवं बद्रीनाथ धाम भी पहुंचते हैं.

केदारनाथ


मंदिर का अस्तित्व पहले भी था क्योंकि स्वयं भगवान शिव ने भी यहां तप किया था। केदारनाथ के बारे में अधिक हाल की किंबदन्ती पांडवों से संबंधित है जो महाकाव्य महाभारत के नायक थे तथा भगवान शिव जो रूद्रप्रयाग तथा चमोली जिलों के इर्द-गिर्द संपूर्ण केदारनाथ क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करता है।
यह समय महाभारत का उत्तरकाल है। पांडव विजयी हुए हैं, पर वे सगे संबंधियों से युद्ध कर उदास हैं इसलिए अपने भाईयों को मारने के पाप से मुक्ति पाने के लिए वे ऋषि वेदव्यास के पास जाते है। व्यास उन्हें भगवान शिव के पास भेजते हैं क्योंकि केवल वे ही क्षमा दान दे सकते हैं और केदारेश्वर के बिना मुक्ति या छुटकारा पाना संभव नहीं है। इसलिए पांडव शिव की खोज करते है। भावु शिव उन्हें क्षमा करने को तैयार नहीं हैं पर चूंकि वे ना भी नहीं कह सकते इसलिए भागे फिर रहे है और उनके सामने आना नहीं चाहते।
परंतु पांडवों को उन्हें ढूंढना ही था और इस प्रकार वे उनके पीछे-पीछे चलते रहे। शिव आगे-आगे और पांडव उनके पीछे-पीछे यत्र, तत्र, सर्वत्र चलते रहे। जब भगवान शिव काशी पहुंचे तो पांडवों ने उन्हें देख लिया और फिर शिव विलीन होकर गुप्तकाशी में प्रकट हुए। इस प्रकार गढ़वाल हिमालय में इस जगह का नाम ऐसा पड़ा तथा कुछ समय तक भगवान शिव इस निर्जनता में वेश बदलकर खुशी-खुशी रहे। परंतु कुछ समय बाद ही पांडवों को उनका सुराग मिल गया और फिर महाभाग-दौड़ शुरू हुआ।
अंत में भगवान शिव केदार घाटी पहुंच गये। जो एक चालाक विकल्प नहीं हो सकता था क्योंकि इसके और आगे कोई रास्ता नहीं था और केवल बर्फीली चोटियां क्षेत्र उनके लिए बाधा नहीं हो सकते थे। संभवतः उन्होंने तय कर लिया था कि पांडवों की काफी परीक्षा हो चुकी है।
केदारघाटी में प्रवेश एवं बाहर आने का एक ही रास्ता है, पांडवों को भान हुआ कि वे भगवान शिव के पहुंच के करीब हैं। पर शिव ने अभी भी सोचा या ऐसा बहाना किया कि वे खेल जारी रखना चाहते हैं। चूंकि उच्च पर्वतों पर कई चारागाह थे इसलिए शिव बैल का रूप धारण मवेशियों के साथ मिल गये ताकि उन्हें पहचाना नहीं जाय और इस प्रकार पांडवों के लिए यह इतना निकट पर कितने दूर साबित हो।
इतनी दूर आने के बाद पांडव इसे छोड़ देने को तैयार नहीं थे। निश्चित ही नहीं। शीघ्र ही उन्होंने भगवान शिव को फंसाने की कार्य योजना बनायी। भीम अपनी काया को विशाल बनाकर प्रवेश द्वार पर खड़े हो गये जिससे घाटी का रास्ता अवरूद्ध हो गया। पांडवों के अन्य भाईयों ने मवेशियों को हांकना शुरू किया। विचार यह था कि मवेशी तो भीम के फैले पैर के बीच से निकल जांयेंगे पर भगवान होने के नाते शिव ऐसा नहीं करेंगे और उन्हें जानकर वे पकड़ लेगें। भगवान शिव ने इस योजना को भांप लिया तथा अंतिम प्रयास के रूप में उन्होंने अपना सिर पृथ्वी में घुसा दिया। विशाल भीम को इसका भान हुआ तथा वे शीघ्र उस जगह पहुंचे। तब तक बैल कमर तक पृथ्वी में समा चुका था और केवल दोनों पीछे के पैर और पूछ ही जमीन के ऊपर थी। भीम ने पूछ पकड़ ली और उसे जाने नहीं दिया। उस क्षण शिव मान गये। वे अपने मूल रूप मे आकर पांडवों के समक्ष प्रकट हुए तथा उन्हें अपने सगे-संबंधियों की गोत्र हत्या से मुक्ति दे दी। जमीन के ऊपर बैल के पिछले भाग की पूजा करने उनके साथ वे भी शामिल हो गये और इस प्रकार वे केदारनाथ के प्रथम पूजक बने और उन्होंने ही केदारनाथ का मूल मंदिर बनवाया जिसके बाद मानव-भक्तों ने इसे बनवाया।
पृथ्वी के अंदर का धसा भाग विभिन्न जगहों पर फिर प्रकट हुआ जो नेपाल में पशुपतिनाथ तथा गढ़वाल के कपलेश्वर या कल्पनाथ में बाल, रूद्रनाथ में चेहरा (मुंह) तुंगनाथ में छाती तथा वाहे एवं मध-माहेश्वर में मध्य भाग या नाभि-क्षेत्र है और इसलिए इन जगहों पर शिव के लिंग की पूजा नहीं होती है उनके अन्य अंगों की पूजा होती है।






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उत्तराखंड में हिमालय पर्वत की गोद में  केदारनाथ मंदिर स्थित है. बारह ज्योतिर्लिंगों में सम्मिलित होने के साथ यह चार  धाम और पंच केदार में से भी एक है। उत्तराखंड में बद्रीनाथ और केदारनाथ ये दो  प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों  का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ  के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है।  केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन मात्र  से समस्त पापों का नाश हो जाता है


माना जाता है भगवान विष्णु के नर नारायण नामक नामक  दो अवतार हैं। वे भारत वर्ष के बद्रीकाश्रम तीर्थ में तपस्या करते हैं। उन दोनो ने  पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसमे स्थित हो पूजा ग्रहण करने के लिये भगवान शम्भु से प्रार्थना की। शिवजी भक्तों के अधीन होने के कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिव  लिंग में पूजित होने के लिये आया करते थे। जब उन दोनो के पार्थिव पूजन करते बहुत दिन बीत  गये, तब एक समय  परमेश्वर शिव ने प्रसन्न होकर दोनों से वर मांगने को कहा।

 दोनो ने लोगो के हित की  कामना से कहा- देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न है और यदि आप वर देना चाहते हैं तो अपने  स्वरुप से पूजा ग्रहण करने के लिये यही स्थित हो जाइये तभी से भगवान शिव भक्तों को  दर्शन देने के लिये स्वयं केदारेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो वहा रहते हैं।  केदारेश्वर में पूजन तथा दर्शन करने वाले भक्तों को भगवान शिव अभिष्ट वस्तु प्रदान  करते हैं तथा उनके लिये  स्वप्न में भी दुःख दुर्लभ हो जाता है।





 

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