इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-
(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चैदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।
(2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।
(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।
(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ा है। परंतु ऊपर के प्रम���णों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है।
गुरु मत्स्येंद्रनाथ को शिष्य गोरख की मदद
मूल रूप से शिव के उपासक माने जाते हैं नाथ-सम्प्रदाय के लोग। मराठी संत ज्ञानेश्वर के अनुसार क्षीरसागर में पार्वती के कानों में शिव ने जो ज्ञान दिया, मछली के पेट में निवास कर रहे मत्स्येन्द्रनाथ के कानों तक पहुंच गया। और इसी के साथ ही मत्स्येन्द्रनाथ बाकायदा गुरू हो गये। अब रही चेले की बात। यह घटना अलग है। गोरखपीठ की मान्यता के अनुसार शिव ने ही एक बार धूनी रमाये औघड़ की शक्ल में एक निःसंतान महिला को भभूत देते हुए उसे मंगल का आशीष दिया। लेकिन दूसरी महिलाओं ने उस महिला को भरमा दिया कि इन औघड़ों के चक्कर में मत पड़ो। महिला ने उस भस्म को जमीन में गाड़ दिया। बात खुली तो जमीन खोदी गयी और निकल आये गोरक्षनाथ। इसके बाद से ही साथ हो गया मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का। इन दोनों ने काया, मन और आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रता की जरूरत को समझा और अपने इस संकल्प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नगरों-गांवों की धूल छाननी शुरू कर दी। योग और ध्यान को इसके केंद्र में रखा गया।
गुरू-चेले का यह सम्बन्ध अविच्छिन्न रूप से चल ही रहा था कि अचानक एक राज्य की मैनाकिनी नाम की रानी का करूण रूदन मत्स्येन्द्रनाथ को विचलित कर गया। वह निःसंतान थी और अपने पति के शव पर विलाप कर रही थी। मत्स्येन्द्रनाथ को दया आ गयी। रानी की गोद भरने के लिए वे राजा के शव में प्रवेश कर गय और पुनः जीवित राजा बनकर मैनाकिनी से संभोगरत हो गये। मैनाकिनी की गोद साल भर बाद लहलहा उठी। लेकिन मत्स्येंद्रनाथ कुछ ही दिनों बाद वे अपने कर्तव्यों को ही भूल गये। रास-लीलाओं ने उन्हें घेर लिया। राजमहल में पुरूषों का प्रवेश रोक दिया गया। केवल महिला कर्मचारी या नर्तकियां ही वहां जा सकती थीं। गोरक्षनाथ अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ की इस हालत से विचलित थे। गोरख को किसी तरह गुरू को बचाना था और तरीका सूझ नहीं रहा था। बस एक दिन भभूत लगाया और त्रिशूल उठाकर संकल्प लिया गुरू को बचाने का। नर्तकियों के साथ गोरखनाथ भी तबलावादक बन कर उनके ही वेश में राजमहल में प्रवेश कर गये। रास-रंग और गायन-नर्तन शुरू हुआ।
स्त्री-वेश में अपनी अदायें दिखा रहे गोरखनाथ मृदंग भी बजा रहे थे। पूरा माहौल वाह-वाह से गूंज रहा था। कि अचानक राजा के शरीर में वास कर रहे मत्स्येन्द्रनाथ की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं। गौर से सुना तो पाया कि एक नर्तकी के मृदंग से साफ आवाज आ रही थी कि ...जाग मछन्दर गोरख आया,.... चेत मछन्दर गोरख आया, .....चल मछन्दर गोरख आया। मत्स्येन्द्रनाथ बेहाल हो गये, सिर चकरा गया। गौर से देखा तो सामने चेला खड़ा है। गुरू शर्मसार हो गये। राजविलासिता छोड़कर चलने को तैयार तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि मैनाकिनी के बेटे को नदी पर साफ कर आओ। गोरखनाथ को साफ लगा कि गुरू में मायामोह अभी छूटा नहीं है। उन्होंने राजकुमार को धोबी की तरह पाटा पर पीट-पीट कर छीपा और निचोडकर अलगनी पर टांग दिया। मत्स्येन्द्रनाथ नाराज हुए तो गोरखनाथ ने शर्त रख दी कि माया छोड़ों तो बेटे को जीवित कर दूं। मरता क्या ना करता। भोगविलास ने गुरू की ताकत खत्म कर दी थी। शर्त माननी ही पड़ी। यानी गुरू तो गुड ही रहा मगर चेला शक्कर हो गया। बाद की यह सारी गाथाएं गोरखनाथ की शान में गढ़ी गयीं।
उधर आस्था से अलग तर्कशास्त्रियों के अनुसार ईसा की सातवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी के बीच ही गोरखनाथ का आविर्भाव हुआ। चूंकि यह काल भार�� के लिए काफी संक्रमण का था, इसलिए गोरखनाथ का योगदान देश को एकजुट करने के लिए याद किया जाता है। काया, मन और आत्मा शुद्धि को समाजसेवा और फिर मोक्ष के लिए अनिवार्य साधन बताने का गोरखनाथ का तरीका जन सामान्य ने अपना लिया। गोरखनाथ का कहना था कि साधना के द्वारा ब्रहमरंध्र तक पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई देता है जो वास्तविक सार है। यहीं से ब्रहमानुभूति होती है जिसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। वे राम में रमने को एकमात्र मार्ग बताते हैं जिससे परमनिधान वा ब्रह्मपद प्राप्त होता है। गोरखनाथ ने असम से पेशावर, कश्मीर से नेपाल और महाराष्ट्र तक की यात्राएं कीं। उनकी बनायी गयीं 12 शाखाएं आज भी जीवित हैं जिनमें उडीसा में सत्यनाथ, कच्छ का धर्मनाथ, गंगासागर का कपिलानी, गोरखपुर का रामनाथ, अंबाला का ध्वजनाथ, झेलम का लक्ष्मणनाथ, पुष्कर का बैराग, जोधपुर का माननाथी, गुरूदासपुर का गंगानाथ, बोहर का पागलपंथ समुदाय के अलावा दिनाजपुर के आईपंथ की कमान विमलादेवी सम्भाले हैं, जबकि रावलपिंडी के रावल या नागनाथ पंथ में ज्यादातर मुसलमान योगी ही हैं।
कबीर और रैदास से मुलाकात
गोरखनाथ जी को एक दिवस इच्छा हो गई कि कबीर साहब से मिला जाये !कबीर साहब उस समय मे एक ऐसे संत हुये की उनके पास हिन्दू मुसलमानकोई भी हो सब समान भाव उनमे रखते थे ! और ऐसा ही उस समय केसंत समाज मे भी उनसे हर पंथ , हर सम्प्रदाय का महात्मा उनसे भेंट मुलाकात करके प्रसन्न होता था ! इनके बारे विस्तृत चर्चा फिर कभी करेंगे !अभी हम इस कहानी को आगे बढायेंगे ! अपने प्रोग्राम अनुसार गोरखनाथ कबीरसाहब के पास पहुंच गये।
कबीर ने उनका बडा आदर सत्कार किया और दोनो महात्माओं मे सत्सन्ग चर्चाचलती रही ! इतनी देर मे कमाली जो कि कबीर की बेटी थी वो आ गई ! और कबीर साहब से बोली - मैं तैयार हूं ! अब चले ! कबीर साहब ने कमाली का परिचय गोरख से करवाया और कमाली उनको प्रणाम करके बैठ गई ! गोरखनाथ जी ने पूछा कि आपका कहां जाने का प्रोग्राम था ? तब कबीर साहब ने बताया कि हम संत रैदास जी के पास मिलने जाने वाले थे ! और कबीर साहब यह तो कह नही पाये कि अब आप आगये तो नही जायेंगे , क्योंकी उनका वहां जाना जरुरी था ! अब कबीर साहब बोले - गोरखनाथ जी आप भी हमारे साथ चलें तो बडा अच्छा हो ! रैदास जी बहुत पहुंचे हुये महात्मा हैं !अब गोरख ठहरे कुलीन नाथपंथ के महान सिद्ध योगी ! वो भला मिलने जाये और वो भी रैदास से ? ये भी कोई बात हुई ? अरे गोरख के तो उनको दर्शन भी नही हों !और ये कबीर साहब का दिमाग कुछ चल गया जो हमसे कह रहे हैं कि रैदास सेमिलने चलो ! उनकी क्या जात है ? हम अच्छी तरह से जानते हैं ! पर कबीर साहब ने जब जोर देकर कहा तो गोरख मना नही कर सके ! और तीनों पहुंच गये रैदास के घर पर ! वहां पहुंचते ही रैदास तो बिल्कुल भाव विह्वल हो कर पगला से गये ! साक्षात कबीर, जिसको वो परमात्मा ही मानते थे ! वो उनके घर आया है ? और साथ मे गोरखनाथ जी , ये वो गोरख जिनका आने का तो सपने मे भी रैदास नही सोच सकते थे। आज साक्षात उनके सामने और उनके घर पर आ गये हैं ! क्योंकी कई बार रैदास ने कबीर को कहा भी था कि एक बार मुझे गोरखनाथ जी के दर्शन करवा दो !और आज तो उनकी समस्त इच्छाए पूरी हो रही थी !
जब ये तीनों लोग वहां पहुंचे थे तब रैदास जी अपने नित्य कर्म अनुसार जुते सी रहे थे !और इनके पहुंचते ही उसी अवस्था मे उठ्कर अन्दर गये ! वापसी मे उनके हाथ मे दो गिलास पानी या शर्बत के थे ! उन्होने उसी अवस्था मे एक गिलास कबीर की तरफ बढाया ! कबीर ने वह गिलास तुरन्त गटागट पी लिया ! और दुसरे गिलास को उन्होने गोरखनाथ जी की तरफ बढाया ! गोरखनाथ बोले - नही नही , मुझे प्यास नही है ! मैं अभी २ रास्ते मे पी कर ही आया हूं! जैसे हम लोग किसी को चाय के लिये मना करते हैं उसी अन्दाज मे उन्होंने पानी पीने से मना ��र दिया ! रैदास जी ने बहुत आग्रह किया ! पर गोरख ने मना कर दिया और अब वही गिलास रैदास जी ने कमाली की तरफ बढा दिया ! कमाली ने भी पी कर खाली कर दिया ! असल मे गोरख बहुत बडे सिद्ध योगी थे और वह उस समय के प्रसिद्ध नाथपन्थ के महान योगी थे !
उनके मन मे यह बात आ गई कि यह सीधासाधा चर्मकार, और अभी चमडा सीये हुये हाथों से पानी ले आया ! मैं इसके इन हाथो से पानी कैसे पिऊं ? और वैसे भी नाथ पंथ मे उस समय यह अभिजात्यपन था ! यानी कि हम श्रेष्ठ है जाति के हैं ! खैर साहब अब थोडा बहुत जो भी सत्संग हुआ और फिर सब विदा होकर अपने २ ठिकाने पहुंच गये ! अब इस घटना के बहुत बाद की बात है !
एक रोज गोरख आकाश मार्ग से जा रहे थे ! नीचे से उन्हे एक महिला की आवाज आई-आदेश गुरुजी .. आदेश गुरुजी .. ( यह नाथ पंथ मे प्रणाम करने का शब्द है ) !गुरु गोरख नाथ चौंके ? यह कौन है जो मुझे इस तरह देख पा रहा है ! और वो भी एक औरत ? उन्हे बडा आश्चर्य हुवा ! गुरु गोरखनाथ जी इतने महान सिद्ध थे कि अपनी योगमाया और सिद्धि के बल पर जहां भी हो अपनी मर्जी से आकाश मे विचरते थे और वो भी अद्रष्य होकर ! उनको इतनी सिद्धियां प्राप्त थी कि उनके लिये कुछ भी असम्भव नही था ! इस घटना के समय वो मुल्तान (अब पाकिस्तान मे ) के उपर से जा रहे थे !गोरखनाथ आकाष से नीचे आये और उन्होने उस औरत से पूछा कि - तुमने मुझे देखा कैसे ! मुझे अदृश्य होने के बाद कोई भी नही देख सकता ! ये हुनर या सिद्धि तो नाथपन्थ मे भी किसी के पास नही है ! फिर तू कौन ? औरत बोली - गुरुजी मैं तो आपको जब भी आप इधर से गुजरते हैं ! तब हमेशा ही देखती हूं ! और हमेशा आपको प्रणाम करती हूं। पर आप बहुत तेजी से जा रहे होते हैं !आज आप कम ऊंचाई पर थे तो आपको मेरी प्रणाम सुनाई दे गई ! आप तो मेरे घर चलिये !और मेरा आतिथ्य गृहण किजिये !
अब तो गोरख और भी चक्कर खा गये कि अब ये कौन मुझसे बडा सिद्ध पैदा हो गया ?यहे सिद्धि तो मेरे पास भी नही है कि मैं किसी अदृश्य व्यक्ति को देख सकूं ! उन्होने सोच लिया कि ये महिला में भी कुछ सिद्धि जरुर रखती है ! और आप अपने से छोटे मे तो रूचि नहीं लेते पर बडे को आप यूं ही इग्नोर भी नही करते ! गोरख ने पूछा - माते आपका परिचय दिजिये ! मैं अधीर हो रहा हूं ! वो औरत बोली - गुरुजी आप मुझे नही पहचाने ?
अरे मैं वही कमाली हूं! याद करिये ! आप हमारे घर आये थे ! कबीर साहब के यहां !तब गोरख को याद आया कि अरे हां - यह महिला सही कह रही है ! मैने इसे कबीर के घर देखा था । तब उन्होने पूछा - तुझको यहअदृश्य वस्तुयें कब से दिखाई देती हैं और ये सिद्धि तुमको किसने दी ?कमाली बोली - गुरुजी , मेरे को कोई सिद्धि विद्धि नही दी किसीने ! बस मुझे तो दिखाई देता है ! अब गोरख ने सोचा की शायद कबीर यहे सिद्धि जानते होंगे और उन्होने ही कमाली को यह सिद्धि दी होगी !
अब उन्होने पूछा कि कब से यह वस्तुएं दिखाई दे रही हैं ?कमाली बोली - आपको याद होगा कि आप और कबीर साहब के साथ मैं भी रैदास जी के यहां गई थी और उन्होने एक पानी का गिलास आपको दिया था ! और आपने वोपानी पीने से इनकार कर दिया था ! और वो गिलास रैदास जी ने मुझे दे दिया था !बस तबसे ही मुझे सब अदृश्य चीजे दिखाई देती हैं ! भूत प्रेत, जलचर, नभचर सब कुछ दिखाई देते हैं ! मैं शादी के बाद यहां मुल्तान आ गई ! क्योकी मेरी शादी यहां मुलतान मे हुई है ! और आपको तो मैं अक्सर ही देखती हूं !जब भी आप इधर से आकाश मार्ग से गमन करते हैं ! अब गोरख नाथ के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा ! उनको अब वो रहस्य समझ आया कि क्यो कबीर उनको रैदास के यहां ले गये थे और क्यो रैदास ने उनको इतना आग्रह किया था कि गिलास का सर्बत पी लो !
अब यहां से विदा होकर गोरख तुरन्त कबीर के पास गये और उनसे आग्रह किया कि वो अब रैदास जी के यहां उनको अभी ले चले, मै उनसे पुनः मिलना चाहता हूं! और कबीर तुरन्त ही उनको लेकर रैदास के पास गये ! रैदास जी ने उनको बैठाया और सत्संग की बाते शुरु करदी !अब गोरख का मन सत्संग में क्या लगता ! उन्होने कबीर को इशारा किया कि और कहा कि पानी के लिये बोलो ! और रैदास जी ने आज पानी का नही पूछा ! तब उनकी उत्सुकता भांप कर रैदास बोले - गोरखनाथ जी आप जिस पानी को पीने का सोच कर आय्रे हैं वो पानी तो मुल्तान गया ! हर चीज का एक वक्त , एक मुहुर्त होता है ! अब वो घडी , वो मुहुर्त नही आयेगा ! अब मैं चाह कर भी वो पानी आपको नही पिला सकता ! तभी से ये कहावत पड गई कि ......वो पानी मुलतान गया ! क्योकिं वो पानी पीकर कमाली मुल्तान चली गई !सही है हर काम का एक समय एक मुहुर्त होता है ! उसको हम चूक गये तो अवसर हमारे पास नही आता ! तो इतने सक्षम और सिद्ध संत थे रैदास जी भी कि महान योगी गोरखनाथ भी उनके पास कुछ लेने आये थे ! सही है भक्ति अपने रंगरूप मे अलग ही होती है !सिद्धियां अपनी जगह, भक्ति मे तो सब कुछ समाहित हो जाता है ! और अन्त मे सिद्ध भी भक्त ही बन जाता है ! जैसा गोरखनाथ के बाद के वचनों से मालूम होता है ।