केदारनाथ
कालान्तर द्वापर युग में महाभारत युद्ध के उपरान्त गोत्र हत्या के पाप से पाण्डव अत्यन्त दुःखी हुए और वेदव्यासजी की आज्ञा से केदारक्षेत्र में भगवान शंकर के दर्शनार्थ आये। शिव गोत्रघाती पाण्डवों को प्रत्यक्ष दर्शन नही देना चाहते थे। अतएव वे मायामय महिष का रूप धारण कर केदार अंचल में विचरण करने लगे, बुद्धि योग से पाण्डवों ने जाना कि यही शिव है। तो वे मायावी महिष रूप धारी भगवान शिव का पीछा करने लगे, महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवो ने दौडकर महिष की पूंछ पकड ली और अति आर्तवाणी से भगवान शिव की स्तुति करने लगे। पाण्डवो की स्तुति से प्रसन्न होकर उसी महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं भूमि में विलीन भगवान का श्रीमुख नेपाल में पशुपतिनाथ के रूप में प्रकट हुआ -
तद्रूपेण स्थित स्तत्र भक्तवत्सल नाम भाक
नयपाले शिरोभाग गतस्तद्रूपतस्थितः(शि0पु0)
आकाशवाणी हुई कि हे पाण्डवों मेरे इसी स्वरूप की पूजा से तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे। तदन्तर पाण्डवों ने इसी स्वरूप की विधिवत पूजा की, तथा गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए और भगवान केदारनाथजी के विशाल एवं भव्य मन्दिर का निर्माण किया। तबसे भगवान आशुतोष केदारनाथ में दिव्य ज्योर्तिलिंग के रूप में आसीन हो गये। वर्तमान में भी उनका केदारक्षेत्र में वास है