हरिद्वार। धर्मनगरी गुरुवार को 'श्रीहरि-शंभो' की मधुर स्वरलहरियों से गूंजती रही। ज्योतिष एवं द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की शाही सवारी जहां से भी गुजरी, हजारों शीश श्रद्धा में झुक गए। कनखल से लेकर चंडी द्वीप तक कोई भी स्थान ऐसा नहीं था, जहां शंकराचार्य के दर्शनों की आतुरता न दिखाई दे रही हो। भाव की भूख और दर्शनों की चाह, ऐसा दृश्य साकार कर रही थी, जिसे कोई भी हृदय में बसा लेना चाहेगा।
विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना के बाद कनखल स्थित भगवान वाल्मीकि आश्रम से शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की पेशवाई ने शिविर के लिए कूच किया। साथ में दंडी स्वामियों, अखाड़ों के महामंडलेश्वरों, महंत-श्रीमहंतों, अनुयायियों, श्रद्धालु-भक्तों का पूरा काफिला था। धर्मध्वजों के पीछे चल रही शंकराचार्य की शाही सवारी के साथ करीब दो दर्जन रजत आसनों पर विराजमान संत धर्मनगरी की आभा बढ़ा रहे थे। सिद्धपीठ भूमा निकेतन के स्वामी अच्युतानंद तीर्थ महाराज के शिष्यों की भजन मंडली और जंगम साधुओं का 'हरे कृष्णा-हरे रामा' का अखंड जाप मधुर बैंड ध्वनियों के बीच माहौल में भक्ति का रस घोल रहा था। श्रद्धा का भाव देखिए, पेशवाई में 'श्रीहरि-शंभो' की जय-जयकार गूंजती और हजारों हाथ स्वचालित-से आकाश की ओर उठ जाते। भगवान आशुतोष की ससुराल से लेकर धर्मनगरी के सभी प्रमुख स्थानों से पेशवाई गुजरी और हर स्थान पर स्थानीय निवासियों ने हृदय की गहराईयों से उसका अभिनंदन किया।
आद्य गुरु शंकराचार्य के प्रतिनिधि के रूप में ज्योतिष एवं द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर की यह पेशवाई इक्कीसवीं सदी के प्रथम कुंभपर्व की अनूठी पेशवाई थी। शंकराचार्य का स्थान अखाड़ों से ऊपर हैं, इसलिए संन्यासियों के सभी सात अखाड़ों के प्रतिनिधि उनकी पेशवाई में भागीदार बने। श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा व अग्नि अखाड़ा की धर्मध्वजाओं ने तो बाकायदा पेशवाई की अगुवाई की। ज्योतिष एवं द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर ने देर शाम अपने शिविर में प्रवेश किया, जहां उनके दर्शनों को श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ा हुआ था। वेद मंत्रोच्चार के बीच विधि-विधान से शंकराचार्य को गद्दी पर विराजमान कराया गया और चारों दिशाएं भगवान बदरी विशाल व 'हर-हर महादेव' के उद्घोष से गूंज उठीं। बताते चलें कि धर्मनगरी में अब तक संन्यासी व वैरागी अखाड़ों की लगभग दर्जनभर पेशवाईयां निकल चुकी हैं, फिर भी पेशवाईयों के प्रति लोगों के आकर्षण और श्रद्धालुओं की आतुरता में जरा भी कमी नजर नहीं आती। 'न जाने किस रूप में नारायण मिल जाएं' का भाव उन्हें चुंबक की तरह पेशवाईयों के दर्शन को खींच लाता है।