अमृत-कुम्भकी अवधारणा
वर्तमान समय में भी वसुधा के ओर-छोरतक किसी न किसी रुप में अखिल कोटिब्रह्याण्डनायक उस परम प्रभु की व्यापक शासन-शक्ति धर्मरुप से निर्बाध दृष्टिगोचर हो रही है। वर्णा श्रमियों की सुदृढ़ता का ही फल है कि परमपिता परमेश्वर भी सदेह धरातल पर अवतीर्ण होकर सज्जन, साधु-रक्षा एवं दुष्टों का संहार कर पृथ्वी का भार हल्का करन में अग्रसर होते हैं-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(गीता ४/७-८)
भावार्थ- नाना प्रकार के पर्वो का सर्जन भी धार्मिक विज्ञानों द्वारा ही हुआ था। सबसे मूल में कोई न कोई अलौकिक विशेषता विद्यमान रहती है जिसे विचारशील ही समझ पाते हैं। इन्हीं महापर्वों में कुम्भ पर्व भी है जो कि भारत के हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार स्थानों में मनाया जाता है।
वैसे 'कुम्भ' शब्द का अर्थ साधारणः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदाय में पात्रता के निर्माण की रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जनमानस के उद्धार की प्रेरणा निहित है।
यथार्थतः 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टि के कल्याकारी अर्थ को अपने आपमें समेटे हुए है-
कुं पथ्वीं भवयन्ति संकेतयन्ति भविष्यक्तल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बुहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान-विशंषानुद्दिश्य यस्मित् सः कुम्भः।
भावार्थ- 'पृथ्वी को कल्याण की आगामी सूचना देने के लिये या शुभ भविष्य के संकेत के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य स्थान विशेष के उद्देश्य से निर्मल महाकाश में बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें, उसे कुम्भ' कहते हैं।'
इसके अतिरिक्त अन्यान्य जन कल्याणकारी भावों को भी 'कुम्भ' शब्द के शब्दार्थ देखा जा सकता है।
पुराणों में कुम्भ पर्व की स्थापना बारह की संख्या में की गयी है, जिनमें से चार मृत्युलोक के लिये और आठ देवलोक के लिये है-
देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यैर्द्वादशवत्सरैः।
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया॥
पापापनुत्तये नृणां चत्वारि भुवि भारते।
अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः॥
भावार्थ- भूमण्डल के मनुष्य मात्र के पाप को दूर करना ही कुम्भकी उत्पत्तिका हेतु है। यह पर्व प्रत्येक बारह में वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानों में होता रहता है। इन पर्वों में भारत के प्रान्तों से समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करने के लिये आते हैं।
क्षार-समुद्र से पर्यवेष्टित भारत भूमि स्वभावतः मलिनता के कलंक पकड़ से युक्त है। यह पुण्यप्रक्षालित भूमि है। भौगोलिक दृष्टि से इसके चार पवित्र स्थानों में उस अमृत-कुम्भ की प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र-मन्थन से उदूत हुआ था।
कालिक दृष्टि से ग्रहयोग जो खगोल में लुप्त-सुप्त अमृतत्व को प्रत्यक्ष और प्रबुद्ध कर देते हैं, चारों स्थानों में बारह-बारह वर्ष पर अर्थात् द्वादश वर्षात्मक कालयोग से प्रकट होते हैं।
तब गंगा (हरिद्वार), त्रिवेणीजी (प्रयाग), शिप्रा (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक)-ये पतितपावनी नदियाँ अपनी जलधारा में अमृतत्व को प्रवाहित करती हैं। अर्थात् देश, काल एवं वस्तु तीनों अमृत के पादुर्भाव के योग्य हो जाते है। फलस्वरुप अमृतघट या कुम्भ का आवतरण होता है।
कालचक्र न केवल जीवन के क्रिया-कलाप का मूलाधार है; अपितु समस्त यज्ञकर्म, अनुष्ठान एवं संस्कार आदि भी कालचक्र पर आधारित हैं। कालचक्र में सूर्य, चन्द्रमा एवं देवगुरु बृहस्पति महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों का योग ही कुम्भ पर्व का प्रमुख आधार है। जब बृहस्पति मेष राशि पर तथा चन्द्रमा, सूर्य मकर राशि पर स्थित हों तब प्रयाग में अमावस्या तिथि को अति दुर्लभ कुम्भ होता है।
इस स्थिति में सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ होते हैं। हमारे जीवन में जब मित्र और श्रेष्ठजनों का मिलन होता है तभी श्रेष्ठ एवं शुभ विचारों का उदय होता है और हमारे जीवन में यह योग ही सुखदायक होता है।
कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति और धर्म से अनुप्राणित सभी सम्प्रदायों के धर्मानुयायी एकत्रित होकर अपने समाज, धर्म एवं राष्ट्र की एकता, अखण्डता, अक्षुण्णता के लिये विचार-विमर्श करते हैं। स्नान, दान, तर्पण तथा यज्ञ का पवित्र वातावरण देवताओं को भी आकृष्ट किये बिना नहीं रहता।
ऐसी मान्यता है कि महापर्व पर सभी देवगण तथा अन्य पितर-यक्ष-गन्धर्व आदि पृथ्वी पर उपस्थित होकर न केवल मनुष्यमात्र, अपितु जीवमात्र को अपनी पावन उपस्थिति से पवित्र करते रहते हैं।