हिमालयन गजेटियर लेखक एटकिन्सन ने लिखा है कि हिंदुओं की भारी संख्या के लिए कुमाऊं वैसा ही धार्मिक स्थान है, जैसा कि ईसाईयों केलिए फिलिस्तीन। जागेश्वर, पूर्णागिरी, बागेश्वर, कटारमल सूर्य मंदिर, बैजनाथ, द्वाराहाट, कुमाऊं के मुख्य तीर्थ स्थल हैं। यहां के लोग शिव और शक्ति के उपासक रहे हैं। इस संप्रदाय में वाराही को भगवान विष्णु के विशेषणों में अर्थात् हाथों में शंख, चक्र, हल, मूसल, दंड, ढाल, खड्ग, फॉस व अंकुश लिए तथा दो हाथ वरद और अभय मुद्रा में दिखया गया है।
शेषनाग, कूर्म या गरूड़ उनके वाहन बताए हैं तथा साथ में सूकर बैठा दिखाया गया है। अभय मुद्रा में देवी ने दाएं हाथ की हथेली सामने दिखाई है, जिसका मतलब है ‘मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी’ और वरद मुद्रा में बाएं हाथ की हथेली दिखाई जाती है, जिसमें ऊंगलियां नीचे की ओर है। इस मुद्रा से देवी कहती है कि ‘मैं तुम्हारी कामनाएं पूरी करूंगी’।
देवीधूरा में अनेकों मंदिर हैं, जो विभिन्न देवताओं को समर्पित है। लेकिन यहां की मुख्य अराध्य देवी मां वराही हैं जो निमांषी और वैष्णवी है। वाराही को दो पूजास्थल समर्पित है। यानी असीम श्रद्घा वाले प्राचीन गुफा मंदिर की गुह्येश्वरी तथा सिंहासन डोला के अंदर सदैव गुप्त रहने वाली गुप्तेश्वरी। वाराही देवी की मूर्ति तांबे के संदूक अर्थात् सिंहासन डोला में स्थित है। इसे सदैव गुप्त रखा जाता है अर्थात् देवी के दर्शन का ओदश किसी को नहीं है।
करीब 40 साल पहले तक सावन में देवीधूरा का मेला एक महीने तक चलता था। इस दौरान आसपास के लगभग 25 मील परिधि के गांववाले यहां आकर डेरा डालते थे।
विशेषकर लोक संगीत के शैकीनों का तो यहां जमावड़ा लगता था। स्थानीय लोगों को इस मेले का बेसब्री से इंतजार रहता था। आजकल यह मेला श्रावण की एकादशी से लेकर जन्माष्टमी तक चलता है। अठवार, बग्वाल, जमान अर्थात् रक्षा बंधन के एक दिन पहले से एक दिन बाद तक तीन मुख्य मेला दिवस हैं।