बड़कोट
प्राचीन काल में, युमना की घाटी, रवाँई, जहां बड़कोट स्थित है, वह भारी हिमपात के कारण उत्तरकाशी के शेष क्षेत्रों से पूरी तरह कटा हुआ था। टोंस नदी के पार पश्चिम की ओर हिमाचल था तथा दक्षिण की ओर की भूमि पर अंग्रेजों का अधिकार था। इसलिये, रवाँई के लोगों का शेष गढ़वाल से बहुत कम संपर्क था जिसके कारण यहां एक बिल्कुल भिन्न संस्कृति एवं भाषा का विकास हुआ; एक ऐसी संस्कृति जो गढ़वाली तथा जौनसारी का मिश्रण है।
रवाँई के लोग अपनी जन्म परंपरा महाभारत के प्रसिद्ध पांडवों एवं कौरवों से जोड़ते है। फलस्वरूप यह भारत के उन थोड़े क्षेत्रों में से एक है जहां भातृव्रत बहुपतित्व की प्रथा है जिसके अनुसार एक ही स्त्री से कई भाईयों के विवाह रचाने की प्रथा होती है। इस प्रथा को जारी रखने के कई कारण बताये जाते है जिनमें शामिल हैं बच्चों के जैविक योग्यता में बहुपतित्व का बढ़ावा, महिलाओं की अपेक्षा विवाह योग्य पुरूषों की अधिक उपलब्धता समाज में बहुपतित्व प्रथा का आर्थिक लाभ एवं महाभारत में स्थापित बहुपतित्व परंपरा का निर्वाह करना। इनमें सबसे मान्य तर्क यह तथ्य है कि औरतों की घटती उपलब्धता के साथ अपनी भूमि संपदा को बचाकर रखने का परिवार के पास आदर्श तरीका है बहुपतित्व की प्रथा। भूमि विभाजन से निपटने से भाईयों को एक समान पत्नी के साथ विवाह द्वारा एक साथ रखा जाता है।
बड़कोट के अधिकांश लोगों के लिये बहुपतित्व प्रथा जीवन का एक स्वभाविक तरीका है। वर्तमान पीढ़ी से पहले बहुपतित्व का निर्वाह एक तथ्य था तथा वर्तमान पीढ़ी के कई लोग इसे स्वभाविक मानते है कि उनकी एक माता और कई पिता होते हैं। अब यह प्रथा बड़कोट जैसे शहरी ईलाकों से समाप्त हो रही है, पर आस-पास के गांवों में इसका प्रचलन जारी है।
इस स्थान की सुदुरता ने यह सुनिश्चित किया कि एक ऐसी संस्कृति का विकास हो जो शेष गढ़वाल की अधिक रूढ़िवादी संस्कृति से कुछ अलग रहे। पुनर्विवाह एवं तलाक के बारे में लोगों का अधिक नैमितिक सोच है और प्राय: ही समुदाय के बुजुर्ग एक महिला को छूट दे देते हैं कि अगर वह अपने विवाह से संतुष्ट नहीं हो तो अन्य पुरूष के साथ जा सकती है। परिवार की समस्याओं का समाधान समुदाय की सहायता से कर लिया जाता है, एक विस्तृत जाति परिवार की बिरादरी द्वारा एक साथ कुल पुरोहित (बिरादरी की कुल देवता का पुजारी) के साथ बैठते हुए जो संकटग्रस्त परिवार को समस्या के निदान का तरीका बताता है। समस्या का समाधान कुल देवता के सक्रिय योगदान से किया जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व कुल-पुरोहित करता है।
सांस्कृतिक रूप से रवाँई के लोग हैं हर त्यौहार को मनाते है, खासकर महिलाएं, इन समारोहों की नाभीय बिंदु होती है। वर्ष के प्रत्येक महीने में समारोह होते हैं। पूस सामान्यत: जनवरी में गांव में हर परिवार एक भेड़ या बकरे को काटता है तथा शेष गांव वालों को एक भोज पर निमंत्रण देता है एवं गांव के बाहर ब्याही पुत्रियों के पास भोजन भेजता है। इसके फलानुसार उस महीने प्रत्येक परिवार केवल एक ही बार खाना पकाता है। बचे मांस को एक साथ पिरोकर लटका कर घर में सुखाया जाता है। अगले महीने माघ में इन मांस की लड़ों को उतारकर पकाया जाता है और इसमें गांव के बाहर व्याही बेटियों को भोज में निमंत्रित किया जाता है, जिसे भाईदूज कहते हैं। फागुन में बुआई के लिये खेत तैयार करने का एक दिन तय किया जाता है जब संपूर्ण समुदाय एक साथ यह कार्य प्रारंभ करता है। इस अवसर के साथ ही संगीत एवं गीत गाये जाते हैं तथा परंपरागत बाजगी ढोल बजाकर लोगों को प्रोत्साहित करते है।
चैत के महीने में संक्रांति का समारोह मनाया जाता है जिसे यहां पापरी संक्रांति कहते हैं तथा चावल के आटे की बनी पूरियों का पकवान बेटियों के घर भेजा जाता है। अगले महीने बैसाखी का समारोह और जेठ महीने में राजा बौख नाग मेला होता है। राजा बौख नाग बड़कोट के इर्द-गिर्द 45 गांवों का प्रधान देवता है एवं उनकी डोली एक जुलुस में प्रत्येक गांव से गुजरती है। अषाढ़ का अर्थ है अगली फसल की बुआई, जिसे भी एक साथ संगीत सहित एक संप्रदाय की तरह किया जाता है।
भगवन कृष्ण का जन्मदिन जन्माष्टमी सावन में मनाया जाता है तथा भादो में दुर्गा का मेला होता है। असोज (आश्विन) फसल काटने का अवसर ले आता है एवं दीपावली कार्तिक में मनाया जाता है। अगले महीने इस क्षेत्र के लोग मंगसीर दीपावली के नाम की एक अन्य दीवाली मनाते हैं।
एक स्थानीय कहावत में कोई आश्चर्य नहीं है जो रवाँई के लोगों का जीवन के प्रति प्रेम, इसकी प्राकृतिक सुंदरता एवं आकर्षक महिलाएं आकर्षण का संक्षिप्त विवरण पेश करता है कि जो जायेगा रवाईन, वह बैठेगा घर जवांई।
बोली की भाषाएं
रवाल्टी, (केवल बड़कोट एवं नौ-गांव में बोली जाने वाली गढ़वाली का एक बदला स्वरूप), हिन्दी एवं अल्पज्ञान की अंग्रेजी।
नृत्य एवं गीत
गीत एवं नृत्य क्योंकि खासकर रवाँई के लोग प्रत्येक अवसर का समारोह पूर्वक मनाते हैं, छोटा हो या बड़ा और वर्ष भर संगीत एवं नृत्य का सिलसिला चलता रहता है। गीतों एवं नृत्यों के साथ ढोल एवं नगाड़े भी होते हैं, जिन्हें परंपरागत बाजगी बजाते हैं। गीतों एवं नृत्यों की गहरी जड़े संप्रदाय के जीवन-चक्र, खेतिहर जीवन, प्रकृति तथा धर्म में व्याप्त होती हैं।
रासो वह गीत एवं नृत्य होता है जो प्राचीन काल के स्थानीय नायकों एवं नायिकाओं का समारोह होता है या फिर उन लोगों का भी जिन्होंने हाल के दिनों में अच्छे एवं बहादुरी के कारनामे किये हैं। रासो में पुरूष एवं महिलाएं दोनों नाचते हैं, जिसके चक्राकार रूप में पुरूष एवं महिलाएं अपनी बाहे एक दूसरे के कमर पर रखने से जुड़े रहते हैं। केवल पुरूषों का रास नृत्य तलवार या खुखरी के टेक से किया जाता है।
जागर एवं पांडव नृत्य अधिक धार्मिक प्रकृति के होते हैं। कुल (परिवार), इश्ट (आवास-भूमि) एवं ग्राम देवी तथा देवताओं की प्रतिमाओं से संप्रदाय का संबंध गहरा एवं निकट का होता है। प्रत्येक अवसर पर ये स्थानीय देवी–देवता ही हैं जो लोगों को समर्थन देती हैं।