Keshav Bhatt जोहार घाटी से ऊँटा धूरा दर्रा के दोनों ओर -3
जोहार, व्यास, दारमा तथा गढ़वाल के हिमालय से सटे ऊंचार्इ वाले र्इलाकाेंं में भेड-बकरियों के मांस को सूखा कर माला बना संभाल दिया जाता है, ताकि जरूरत के वक्त भोजन आदि के काम आ सके। सदियों पहले इन घाटियों में रचे-बसे लोगों का बारहों मास यहीं रहना होता था। आज की तरह तब जाड़ों में नीचे को आना नहीं हो पाता था। जाड़ा हो या बर्फबारी इन सभी हालातों से बचाव के लिए उन्होंने अपने तरीके निकाले थे। लगभग छह माह, अप्रैल से सितंबर मध्य तक के खुषगवार मौसम में यहां जिंदगी काफी तेजी से दौड़ती थी। खेती-बाड़ी, जानवरों के चारे की व्यवस्था के साथ ही तिब्बत की मंडी में व्यापार के लिए भाग-दौड़ में ही छह माह गुजर जाते। गर्मियों में वक्त निकाल कर भेड़-बकरियों के मांस को छोटे-छोटे टुकड़ों में सूखा कर माला बना दी जाती थी। यही सूखा मांस बर्फिले दिनों में काम आता था। अक्टूबर से मार्च तक ये घाटियां बर्फ से लदकद हो एक नजर में हिमालय का सा आभास कराने वाली हुवी। ये छह महीने जोहार वासियों के लिए काफी कश्टकारी होने वाले हुए। गर्मियों में छह माह तक की गर्इ मेहनत के बलबूते ही इन्होंने ये बर्फिले छह मास काटने हुए।
अगले दिन मिलम गांव के लिए सुबह ही निकल पड़े। मार्तोली से नीचे नर्इ बन रही सड़क तक तीखा ढलान है। सामने बुफर्ू गांव भी वीरान व खंडहर सा दिख रहा था। सड़क के किनारे बनी झोपड़ी नुमा दुकान के बाहर एक परिवार मीट की माला बनाकर उसे सुखाने में व्यस्त था। गोरी नदी की फुंफकार की वजह से उन्हें गप्पे मारने के लिए आपस में जोर-जोर से बोलना पड़ रहा था। रात के सूखे मीट को याद कर हम मुस्कुराते हुए आगे बढ़े। बफर्ू के नीचे सड़क के लिए बुग्याल काटे जा रहे थे। सड़क काटने की वजह से इन बुग्यालों का सौन्दर्य अटपटा सा लग रहा था।
दूर सामने मापा गांव भी सूनसान अपनी जगह पर ही था। बिल्जू के उस पार गनघर उंचार्इ पर दिखा। पांछू गांव के बगल में पांचू नदी नीचे गोरी से मिलने के लिए दौड़ सी लगाती महसूस हुवी। बिल्जू गांव में घनष्यामके वहां दिन का भोजन लिया। घनष्याम बिल्जवाल ने बातचीत में बताया कि वो लोग सितंबर के अंत में चले जाते हैं नीचे दुम्मर या फिर मुनस्यारी को। अप्रेल में ही वापस आना हो पाता है। उस वक्त अकसर गांव बर्फ से ढके मिलते हैं। गुजर-बसर चल रही है। अब सड़क बन रही है..... कब तक बनेगी मालूम नहीं....... क्या पता फिर कुछ ठीक हो जाए यहां भी तो एक दुकान ही चला लुंगा।
भोजन के बाद कुछ देर आराम करने के बाद फिर मिलम गांव की राह पकड़ी। बुग्याली रास्ते में पैदल चलने का एहसास नर्इ बन रही सड़क ने छीन लिया। नीचे दूर एक टूटा बुल्डोजर दिखा। सड़क के लिए बुग्यालों को काट रहे इस बुल्डोजर पर प्रकृति ने अपना गुस्सा बखूबी उतारा था। मिलम गांव से पहले तिब्बत से आने वाली कोलिंगाणा नदी बौखलाती हुर्इ सी मिली। कोलिंगाणा के आतंक से नदी पर बना पुल कांपता सा दिखा। मिलम पहुंचने में सांझ हो गर्इ। यहां आर्इटीबीपी के पास अपने पहुंचने की सूचना देनी जरूरी है। आर्इटीबीपी को जब हमारे मलारी अभियान का पता लगा तो वो आनाकानी करने लगे। उनका व्यवहार देख एक पल के लिए लगा कि हम किसी तहसील में कोर्इ प्रमाण पत्र बनाने के लिए गए हों और घाघ बाबू हमें दूसरा कानून जबरदस्ती लादने के लिए जोर जबरदस्ती करने पर आमदा हो। उन्होंने हमें आगे के लिए परमिषन देने से ही मना कर दिया। जब हम अपनी जिद्व में कि, 'इस परमिट में परमिषन ना दिए जाने का कारण लिख दो पर अड़ गए तो यहां तैनात इंस्पेक्टर ने एक तरीके से अपना फरमान ही सुना दिया कि..... 'उप्पर काफी बर्फ आर्इ है अभी लांग रूट पैटोलिंग पार्टी आ ही रही है बड़ी मुषिकल से..... तुम सब बर्फ में फंस जाओगे तो हम सभी के लिए भी प्रोब्लम हो जाएगी..... अब तुमने जाना ही है तो एक बार फिर सोच लो....। नहींं तो एक-आध दिन यहीं रहो और वापस हो जाओ। बाद में हमारी जामा-तलाषी ली गर्इ। कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद हम गांव की फिंजा में भागे। हमारे गार्र्इड मनोज ने गांव में एक परिवार में हमारी व्यवस्था कर दी। थोड़ा सुकून मिला। चाय पीकर बाहर गांव की भूलभूलैय्या को देखने निकले।