Author Topic: Tourism and Hospitality Industry Development & Marketing in Kumaon & Garhwal (  (Read 207218 times)

Bhishma Kukreti

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 ब्रिटिश काल में कुम्भ मेला प्रबंधन

( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )-81

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -   81             

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--184)   
    उत्तराखंड में पर्यटन , मेडिकल पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -184

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

    देखा जाय तो प्राचीन साहित्य या अभिलेखों में कुम्भ वर्णन नहीं है।  स्कन्द पुराण में कौन से स्थान में कब कुम्भ मेला या माघ मेला होगा का वर्णन मिलता है।  ऐसा लगता है हरिद्वार कुम्भ मेला शुरू होने के पश्चात ही अनुरकरण सिद्धांत के अनुसा प्रयाग , उज्जैन आदि में कुम्भ मेला शुरू हुआ।
      हरिद्वार में मेला का वर्णन हर्ष वर्धन काल में चीनी यात्री हुयेन सांग के यात्रा वर्णन में मिलता है।  यह माघ मेला था या कुम्भ निश्चित नहीं कहा जा सकता है। तुलसीदास ने भी रामचरित मानस (बालकाण्ड 43 ) में माघ मेले का उल्लेख किया है प्रयाग के कुम्भ मेले का नहीं।   मुगल कालीन बादशाहों ने भी प्रयाग  की महत्ता का सम्मान किया और कहा जाता है कि औरंगजेब ने कुछ गाँव दिए थे। ( जे एस  मिश्रा , महाकुम्भ )
 ऐसा लगता है कि मुगल काल में कुम्भ मेला प्रबंधन नागा अखाड़ों के हाथ में था और सिख व नागाओं की 1796 की लड़ाई तो इतिहास प्रसिद्ध है।
     1804 का हरिद्वार कुम्भ मेला - 1804 में हरिद्वार मराठा शासन के अंतर्गत था।  मराठा परिवहन माध्यमों पर कर लेते थे किन्तु कुम्भ या अन्य मेलों का प्रबंधन अखाडाओं पर ही छोड़ देते थे। अखाड़ा यात्रियों से कर आदि लेते थे , न्याय भी करते थे व अन्य प्रबंध भी करते थे।
   ब्रिटिश राज के प्रशाशकों के लिए कुम्भ मेला प्रबंधन केवल प्रशाशनिक प्रक्रिया न थी अपितु एक भय  स्रोत्र भी था।  सारे भारत से बिना किसी प्रचार प्रसार व सुविधाओं के लोग जुड़ते थे और फिर बद्रीनाथ आदि की यात्रा भी करते थे।  कुम्भ मेला अनेकता का प्रतीक न होकर वास्तव में केवल एकता का ही प्रतीक  था जो ब्रिटिश राज के लिए खतरा भी हो सकता था।  ईस्ट इण्डिया कम्पनी व बाद में ब्रिटिश राज के लिए सबसे बड़ी समस्या अखाडाओं के प्रभुत्व भी था। आज भी कुम्भ में धार्मिक अखाड़ेबाजी ही नहीं होती अपितु राजनैतिक अखाड़ेबाजी भी होती है। 
1808 का मेला - ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अधिक सैनिकों का प्रबंध किया जिससे 1796 वाली मार काट की पंरावृति न हो।
1814 का अर्ध कुम्भ - इस अर्ध कुम्भ में सरडाना बेगम समृ के साथ आये मिसनरी चेमबरलीन ने भषण दिए जो सरकार को पसंद नहीं आये और दबाब में बेगम समृ को चेमबरलीन को हटाना पड़ा।
1820 कुम्भ में भगदड़ मच गयी थी व 430 यात्रियों की मृत्यु हुयी थी।  इसके उपरान्त प्रशासन ने सड़कों  व पुलों का निर्माणही नहीं करवायाअपितु घाटों का जीर्णोद्धार भी किया जिसकी जनता ने प्रशंसा की।
            शौचालय व बीमारियों की रोकथाम प्रबंध
ब्रिटिश प्रशासन के लिए कुम्भ मेला प्रबंधन में मानव प्रबंधन कठिन न था किन्तु छुवाछुत की बीमारी जैसे प्लेग व हैजा रोकथाम सबसे कठिन समस्या थी।  , हैजा केवल हरिद्वार तक सीमित नहीं रहता था अपितु यात्रियों द्वारा गढ़वाल-कुमाऊं  तक भी पंहुच जाता था। हैजा से यात्रियों की मृत्यु के आंकड़े इस प्रकार हैं - (हेनरी वॉटर बेलो , 1885 द हिस्ट्री ऑफ़ कॉलरा इन इंडिया 1867 -1881 व दासगुप्ता ए नोट्स ऑन कॉलरा इन यूनाटेड प्रोविन्स व बनर्जी - वही रिपोर्ट )
वर्ष ------मेला ---- यात्री मृत्यु
1879 -----कुम्भ ------35892
1885 -----अर्ध कुम्भ ---63457
1891 -------कुम्भ ------1690 13
1921 -------अर्ध कुम्भ ----149 667
1933 ---अर्ध कुम्भ ---1915
1945 -----अर्ध कुम्भ -----77345
  हर कुम्भ या अर्ध कुम्भ में ब्रिटिश सरकार कुछ न कुछ सुधार करती थी किन्तु 1891 व 1921 के कुम्भ भयानक ही सिद्ध हुए -
हरिद्वार कुम्भ का मुख्य प्रशाशक सहारनपुर जिले का जिलाधिकारी होता था। प्रशासन कभी कभी बीमार यात्रियों को हरिद्वार छोड़ने की आज्ञा भी देते  थे व कई बार अन्य स्थानों से यात्रियों को हरिद्वार आने से रोका जाता था।  कभी कभी हरिद्वार स्टेशन से ही यात्रियों को वापिस भेजा जाता था।  हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक गाँवों में जागरण कार्य किया जाता था.
यद्यपि वालदिमोर हॉफकिन ने हैजा टीके का आविष्कार कर लिया था तथापि ब्रिटिश प्रशासन जनता के धार्मिक प्रतिरोध व राजनैतिक कारणों  (जैसे बाल गंगाधर तिलक सरीखे टीका विरोधी थे ) से जबरदस्ती टीकाकरण के सलाह को नहीं मान रहा था।  धीरे धीरे टीकारण आम जनता में प्रचारित हुआ व जनता की समझ में आ गया कि टीका लाभदायी है तो जनता टीकीकरण समर्थक हो गयी।  मेले में टीकाकरण का दस्तूर शायद सन 1960 तक बदस्तूर चलता रहा। 
  ब्रिटिश अधिकारियों ने अनाज विक्री पर भी ध्यान दिया कि जनता को भोज्य सामग्री उचित दामों पर मिले।
   ब्रिटिश शासन ने कुम्भ मेला प्रबंधन में सफाई -शौचालय पर ध्यान दिया व चिकत्सालयों का प्रबंध भी किया।  पुलिस व अन्य बल प्रबंधन से अपराधियों पर लगाम लगाई गयी।  रेल व बस आने से परिहवन व्यवस्था में तेजी आयी तो नए नए संचार माध्यम जैसे टेलीफोन , पुलिस टेली संचार व्यवस्था , तार , डाकघरों का भी उपयोग कुम्भ मेले में होने लगा।  उद्घोषणाओं के प्रयोग से यात्रियों को नई सुविधा मिलीं। हिन्दू धर्म के प्रचारक व अन्य धर्मों के प्रचारक भी हरिद्वार पंहुचते थे तो प्रशासन को ऐसी संथाओं का भी संभालना होता था। हिन्दू महासभा की स्थापना  भी हरिद्वार कुम्भ अप्रैल 1915 में ही हुआ।

  कुम्भ मेले अवसर पर राजा महाराजा व उनका लाव लश्कर और अन्य विशिष्ठ व्यक्ति भी हरिद्वार पंहुचते थे प्रशासन को उनका विशेष प्रबंधन भी करना होता था। (मिश्रा , वही )
कुम्भ विषयक महत्वपूर्ण जानकारी आपने दी है।कुछ अन्य जानकारी इस प्रकार भी प्राप्त होती है......
१०,००० ईसापूर्व (ईपू)' - इतिहासकार एस बी रॉय ने अनुष्ठानिक नदी स्नान को स्वसिद्ध किया।
६०० ईपू - बौद्ध लेखों में नदी मेलों की उपस्थिति।
४०० ईपू - सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया।
ईपू ३०० ईस्वी - रॉय मानते हैं कि मेले के वर्तमान स्वरूप ने इसी काल में स्वरूप लिया था। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है। सर्व प्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई कालांतर मे विखंडन होकर अन्य अखाड़े बने
५४७ - अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन इसी समय का है।
६०० - चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया।
९०४ - निरन्जनी अखाड़े का गठन।
११४६ - जूना अखाड़े का गठन।
१३०० - कानफटा योगी चरमपंथी साधु राजस्थान सेना में कार्यरत।
१३९८ - तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। विस्तार से - १३९८ हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार
१५६५ - मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन।
१६८४ - फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में १२ लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया।
१६९० - नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; ६०,००० मरे।
१७६० - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; १,८०० मरे।
१७८० - ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना।
१८२० -हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से ४३० लोग मारे गए।
१९०६- ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया।
१९५४ - चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की १% जनसंख्या ने इलाहाबाद में आयोजित कुम्भ में भागीदारी की; भगदड़ में कई सौ लोग मरे।
१९८९ - गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने ६ फ़रवरी के इलाहाबाद मेले में १.५ करोड़ लोगों की उपस्थिति प्रमाणित की, जोकी उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी।
१९९५ - इलाहाबाद के “अर्धकुम्भ” के दौरान ३० जनवरी के स्नान दिवस को २ करोड़ लोगों की उपस्थिति।
१९९८ - हरिद्वार महाकुम्भ में ५ करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे; १४ अप्रैल के एक दिन में १ करोड़ लोग उपस्थित।
२००१ - इलाहाबाद के मेले में छः सप्ताहों के दौरान ७ करोड़ श्रद्धालु, २४ जनवरी के अकेले दिन ३ करोड़ लोग उपस्थित।
२००३ - नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर ६० लाख लोग उपस्थित।
२००४ - उज्जैन मेला; मुख्य दिवस ५, १९, २२, २४ अप्रैल और ४ मई।
२००७ - इलाहाबाद में अर्धकुम्भ। पवित्र नगरी इलाबाद में अर्धकुम्भ का आयोजन ३ जनवरी २००७ से २६ फ़रवरी २००७ तक हुआ।
२०१० - हरिद्वार में महाकुम्भ प्रारम्भ हुआ जो १४ जनवरी २०१० से २८ अप्रैल २०१० तक आयोजित किया गया। विस्तार से - २०१० हरिद्वार महाकुम्भ
२०१५ - नाशिक और त्रयंबकेश्वर में एक साथ जुलाई १४ ,२०१५ को प्रातः ६:१६ पर वर्ष २०१५ का कुम्भ मेला प्रारम्भ हुआ और सितम्बर २५,२०१५ को कुम्भ मेला समाप्त हो गया। [4]
२०१६ - उज्जैन में २२ अप्रैल से आरम्भ हुआ।ज्ञात होता है कि आने वाला महाकुंभ 2021 हरिद्वार में ही होगा।


Copyright @ Bhishma Kukreti  22/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;






Bhishma Kukreti

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 ग्रामीण उत्तराखंड में कुछ जल स्रोत्रों का महत्व याने  जल चिकित्सा लिंक 

( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -82

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  82               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--185)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -185

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

    मानव ने अपने जन्म से ही जल चिकित्सा Water Therapy प्रयोग शुरू कर दी थी।
        उत्तराखंड में प्राचीन काल से जन साधारण जल चिकित्सा का प्रयोग करता आ रहा है और बहुत से जल स्रोत्रों का नाम तो स्वास्थ्य संबंधी नाम हैं।  उत्तराखंड में जल चिकत्सा सदियों से चली आ रही है यथा -
   एलर्जी होने पर शरीर में गंगा जल छिड़कना आज भी प्रचलित है। मुमबई में आज भी अचानक एलर्जी होने पर कई उत्तराखंडी शरीर पर गंगा जल छिड़कते हैं और आराम पाते हैं। दाद आदि पर तो नियमित रूप से गंगा जल बहाया  जाता था।
 ततार - अधपके या पके घावों पर सिंवळ के पत्तों की सहायता से पानी बहाया जाता है और आज भी ततार देने का प्रचलन विद्यमान है।
प्रातःकाल जल सेवन - भारत के अन्य क्षेत्रों की भाँती उत्तराखंड में सुबह सुबह रिक्त पेट के जल सेवन स्वास्थ्यकारी माना जाता है। रात को ताम्बे के बर्तन में जल रखना और सुबह पीना जल चिकत्सा है।
 योग में मुंह से  पानी पीकर  नाक से बाहर करने  की प्रक्रिया जल चिकित्सा ही है।
कादैं में - जब किसी पर  कादैं (पैर  या हाथ में अँगुलियों की जड़ों में फंगस /फंफूंदी लगना ) लग जाय तो कादैं  पर गरम  पानी बहाया जाता था।
 भूत लगने या देवता आने की स्थिति में पानी का छिड़काव भी जल चिकित्सा अंग है।
एनीमा  लेना भी जल चिकित्सा ही है।
 गरारे करना भी जल चिकित्सा ही है।
आँख आने या ऑंखें लाल होने पर आँखों को बार बार धोना जल चिकित्सा अंग ही है।
   गंगा स्नान आदि भी मानसिक जल चिकित्सा है।
व्रतों में केवल जल सेवन करना जल चिकित्सा का अंग है।
अपच , पेट पीड़ा या सर्दी जुकाम में गरम जल सेवन जल चिकित्सा है।
  जलने या अंग कटने पर प्रभावित स्थान पर जल बहाव भी जल चिकित्सा ही है।
 बहुत से जल स्रोत्रों को पण्यों लगण वळ पानी माना जाता है (जिस पानी सेवन से पानी पीने की और इच्छा हो ) तथा बहुत से जल स्त्रोत्रों के जल सेवन से तीस नहीं बुझती है। 

      ग्रामीण उत्तराखंड में जल स्रोत्रों के बारे में धारणाएं

      हर गाँव में प्रत्येक जल स्रोत्र की चिकित्सा विशेषता हेतु कुछ न कुछ नाम दिए जाते हैं।
  मेरे गाँव में एक पानी है इकर का बारामासी पानी।  यह जल स्रोत्र एक छोटे गड्ढे तक सीमित है।  किन्तु जब मैं युवा था तो यदि इकर के पास जाएँ तो उस पानी को  पीना एक कम्पल्सन माना जाता था।  धारणा थी कि इस स्रोत्र के जल सेवन से पेट की बीमारियां नहीं होती हैं।  इसी तरह गाँव के निकट एक बहते पानी को न पीने की हिदायत दी जाती थी।  किसी पानी को जुंकळ पानी नाम दिया जाता है जिसके दो अर्थ होते हैं - जहां जूंक अधिक होती हैं या बच्चे वाले स्त्री द्वारा जिसके पानी पीने से बच्चे को जूंक चढ़ने का खतरा होता हो।  अधिकतर जिस पानी के स्रोत्र के पास पापड़ी (जंगली पिंडालू ) पैदा होता है उसे स्वास्थ्यवर्धक पानी नहीं माना जाता था।
     कुछ क्षेत्र के पानी को भोजन हेतु प्रयोग नहीं करते हैं।  जैसे कांडी (बिछले ढांगू ) के पानी के बारे में धारणा  थी कि इस गाँव के पानी में उड़द की दाल नहीं गलती।
  कुछ जल स्रोत्रों को सर्दी जुकाम का पानी माना जाता था और सर्दियों में इन स्रोत्रों के जल  प्रयोग नहीं किया जाता था।
   कुछ जल स्रोत्रों को पथरी बिमारी का जड़ माना जाता था।
   देहरादून में सहस्त्र धारा में स्नान को त्वचा रोग ठीक करने का जल माना जाता रहा है।
  अमूनन बांज के जंगल के नीचे वाले जल स्रोत्र को स्वास्थ्यवर्धक पानी माना जाता था।
पिंडर नदी में रोज स्नान को अहितकर माना जाता है।

  जल स्रोत्रों की धारणाओं को अंध विश्वास न माना जाय

 हर गाँव में जल स्रोत्रों के बारे में स्वास्थ्य दृस्टि से जो भी धारणाएं हैं उन्हें अंध विश्वास नाम देना स्वयं को धोखा देना है। आज आवश्यकता है उन जल स्रोत्रों के रसायनिक विश्लेषण करना और यदि वे जल स्रोत्र स्वास्थ्य वर्धक हैं तो उन्हें पर्यटन गामी बनाना।




Copyright @ Bhishma Kukreti  23/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
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गढ़वाली  राजाओं व गोरखा शासन में मंदिरों को कर मुक्त मुवाफ़ी गाँव दिए गए थे।  गूंठ भूमि राजस्व से मंदिरों में पूजा व कर्मचारियों का वेतन प्रबंध होता था। इसके अतिरिक्त सदाव्रत गाँव भी थे जिनकी आय से श्रीनगर , जोशीमठ में यात्रियों हेतु मुफ्त भोजन व्यवस्था भी होती थी। 1816 में गढ़वाल के सहायक कमिश्नर ने सलाह दी थी कि गूंठ  या मंदिर गाँवों की आय का कुछ भाग यात्रियों की सुविधाओं हेतु प्रयोग होना चाहिए।
  केदारनाथ के रावल द्वारा अमानत में खयानत से अधिकारियों ने रावलों या पुजारियों से सदाव्रत गाँवों से आय व उपयोग का अधिकार छीनकर स्वंतंत्र कमेटी 'लोकल एजेंसी 'बना दी।  सदाव्रत गाँवों की आय से हरिद्वार -बद्रीनाथ यात्रा मार्ग चौड़ा किया गया।  सदाव्रत गाँवों के राजस्व से यात्रिओं को मुफ्त भोजन व्यवस्था , यात्री चिकित्सा,  मरोम्मत कार्य में तेजी लायी गयी। मार्ग मरमत कार्य अब नियमित व सुचारु रूप से होने लगा था.
  ट्रेल के उत्तराधिकारियों द्वारा सदाव्रत पट्टियों  की आय से निम्न मार्ग निर्मित हुए या उनका पुनर्निर्माण हुआ
जोशीमठ -नीती
अल्मोड़ा से लाभा -गढ़वाल
श्रीनगर से नजीबाबाद मार्ग
   1927 -28 में ट्रेल ने गाँव वालों से बेगार लेकर (मुफ्त मजदूरी ) हरिद्वार -बद्रीनाथ मार्ग निर्माण कार्य करवाया।  वह स्वयं भी मार्ग निर्माण निरीक्षण करता था।  1855 तक निम्न यात्रा मार्ग भी निर्मित हो चुके थे -
रुद्रप्रयाग से -केदारनाथ
उखीमठ से चमोली
कर्णप्रयाग से चांदपुर
 बेकेटभूव्यवस्था में गूंठ व सदाव्रत भूमि की विधिवत व्यवस्था की गयी थी।  डा डबराल ने लिखा है कि मंदिरों के साथ अन्याय भी हुआ।  कुछ मंदिरों की भूमि भी छीन ली गयी थी।
     सदाव्रत गाँवों से बेकेट भूव्यवस्था में  वार्षिक राजस्व 100013 रुपयाथा।  सदाव्रत व गूंठ गाँव की संख्या 535 थी व 1863 में इन गाँवों का क्षेत्रफल 8074 बीसी नाली थ


   स्ट्रेचों की रिपोर्ट सलाह मानते हुए ब्रिटिश शासन ने सदाव्रती पट्टियों के सदाव्रत भूमि राजस्व  का उपयोग तीर्थयात्री मार्ग निर्माण , पुनर्णिर्माण  , तीर्थ यात्रियों हेतु औषधालय निर्माण , औषधि वितरण , पर होने लगा।  इन तीर्थ यात्री सुविधाओं से भारत के अन्य भागों में अपने आप उत्तराखंड छवि वृद्धि हुयी और तीर्थ यात्रियों की संख्या में वृद्धि होने लगी।

         गाँवों में श्रमदान से मार्ग निर्माण में तेजी
       तीर्थ यात्रा मार्गों में सुधार से प्रेरित हो गढ़वाल के अन्य क्षेत्रों में श्रमदान से ग्रामवासी मार्ग निर्माण करने लगे। ग्रामवासी अपने गाँव को लघु मार्गों द्वारा मुख्य यात्रा मार्ग से स्वयं जोड़ने लगे।


    पौड़ी गढ़वाल पर्यटन में पिछड़ा जनपद है
  पौड़ी गढ़वाल में स्वर्गाश्रम , लक्ष्मण झूला व श्रीनगर को छोड़ दें तो पौड़ी में धार्मिक पर्यटन नगण्य हैं।  यदि उत्तराखंड पर्यटन वृशि करनी है तो पिथौरागढ़ व पौड़ी जनपदों को को राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन जनपद विकसित करने ही होंगे।  इसके लिए श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग को प्रसिद्धि आवश्यक है।
      श्रीनगर -कोटद्वार रुट हेतु प्रवासियों का योगदान ही विकल्प है
 यदि श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग को राट्रीय स्तर का पर्यटन मार्ग बनाना है तो श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग के गाँवों को विशिष्ठ पर्यटक क्षेत्र निर्मित करना होगा जिसमे प्रवासियों की भूमिका के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।  प्रवासी निम्न स्तर पर अपना योगदान दे सकते हैं
१- वैचारिक स्तर पर अपने गाँव में विशिष्ठ पर्यटन आकर्षी प्रोडक्ट निर्माण
२- ग्रामवासियों को तैयार करना - आजकल एक बीमारी फैली है कि हर भारतीय शासन से सब कुछ चाहता है किन्तु अपने योगदान के बारे मबौग सार देता है। प्रवासी यह जड़ता तोड़ सकते हैं
3 -पर्यटन प्रोडक्ट निर्माण में निवेश कर प्रवासी अपनी भूमिका निर्धारित कर सके हैं। प्रवासी श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग पर रिजॉर्ट , म्यूजियम , बाल क्रीड़ा केंद्र , हनी मून हाऊसेज , हॉस्पिटल आदि खोल सकते हैं।


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ब्रिटिश काल में परिवहन योजनाएं और वर्तमान में वोट और विभाग अहम प्रेरित परिहवन योजनाएं
 Transportation improvement in British Period in Uttarakhand

Temple Management in British  Era
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -60

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  - 60                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--166)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 166

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

   गढ़वाल कुमाऊं में बार बार अन्नकाल पड़ते थे।  ऐसे समय में निर्यातित अनाज को सदूर गाँवों में पंहुचना टेढ़ी खीर थी। पहाड़ों में बैलगाड़ी जाना आज भी संभव नहीं है।  तो घोड़ों व खच्चरों से लदान संभव था या है। किन्तु गढ़वाल राजाओं व क्रूर गोरखाओं ने कर लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु सड़कें नहीं बनवायीं।  ब्रिटिश शासन ने आंतरिक परिवहन को सुदृढ़ करने हेतु कुछ कदम उठाये।
 1948 में कुमाऊं में अल्मोड़ा में 180 मील , नैनीताल में 80 मील लम्बी सड़कें निर्माण का काम हाथ में लिया गया। सर्वपर्थम कोटद्वार -फतेहपुर सड़क पर ध्यान दिया गया।  लैंसडाउन छा वनी बनने से भी दक्षिण गढ़वाल में परिहवन सुलभ हुआ। 

    In Garhwal, there was no plan for road construction till 1828.

       Trail started road construction from Haridwar to Badrinath in 1827-1828. Trail did not take help from any engineer for planning. Trail himself used to supervise the works. it is said that Trail used to cut or dig stone when there was steep stone hurdle. He used to go for marking on steep hill with the help of roped basket. Trail used to sit in roped  basket and helpers used to take rope and he used to jump here and there for marking. Trail travelled from Badrinath to Kedarnath for road survey.

    Trail also discovered a road from Kumaon to Mansarovar. Church officials criticized Trail for that he was promoting idol worshipping.

   By 1834, Haridwar –Badrinath road was completed. Animals and men could cross each other on that road. By 1835, government constructed roads from Rudraprayag to Kedarnath, Ukhimath to Chamoli, Chandpur to Kumaon via Lobha. Kumaon was connected to Ruhelkhand. So Ruhelkhand was connected to Badrinath via Kumaon. The length of such roads was 300 miles and cost was Rs. 25000.Sadavrat tax was used on road construction.

    The successors of Trail kept road construction works alive. Workers completed road construction from Joshimath to Neeti in 1840. There was road from Shrinagar to Almora and Shrinagar to Kotdwara to Nazibabad by 1841.

 कोटद्वारा , हल्द्वानी , ऋषिकेश व देहरादून, हरिद्वार  को रेल से जोड़ने का जो कार्य ब्रिटिश शासन ने किया था उसमे भारत सरकार ने एक इंच भी वृद्धि नहीं क।  रेल मार्ग ने तो पर्यटन उद्यम त्र में क्रान्ति ला दी थी
ऋषिकेश -देवप्रयाग मोटर मार्ग ने भी उत्तराखंड पर्यटन की काया पलट ही कर दी।  प्राचीन काल से चलने वाला ऋषिकेश -बद्रीनाथ मार्ग तो बंद ही हो गया।
    गढ़वाल में 1948 में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की मुख्य सड़कें इस प्रकार थीं -
तपोवन घाट -नारायण बगड़ -लोहाबा -बुंगीधार -44 मील
बुवाखाल -कैन्यूर -44 मील
रामणी बाण -देवाल -ग्वालदम -38 मील
दनगल -पोखड़ा -बैजरों --२६ मील
नंद प्रयाग -बाट मार्ग -12 मील
 दोगड्डा -द्वारीखाल -पौखाल -डाडामंडी पैदल मार्ग भी ब्रिटिश देन है. व्यासचट्टी , महादेव चट्टी जैसे घाटों को अच्छी सड़कों (घोडा सड़क ) गाँवों से जोड़ने का प्रशंसनीय कार्य भी ब्रिटिश काल में शुरू हुए।
इन सड़कों के निर्माण ने आंतरिक पर्यटन व वाह्य पर्यटन विकास की आधार शिला रखी। इन सड़कों पर ऐसे पल बने हैं जो अभी भी सही सलामत हैं।
    गंगा व सहयोगी नदियों पर पल भी ब्रिटिश काल में बने जिन पुलों ने पर्यटन को नई दशा व दिशा दीं।  श्रीनगर गुमखाल मोटर मार्ग भी ब्रिटिश काल देन है।
 ऋषिकेश कोटद्वार मार्ग भी ब्रिटिश काल में निर्मित हुआ।
     वन सड़कें - ब्रिटिश काल में वनों के अंदर आवागमन हेतु कई सड़कें बनीं।  अब तो सार्वजनिक विभाग व वन विभग्ग की खींचातानी में चलते मार्ग भी अवरुद्ध किये जा रहे हैं हरिद्वार -कोटद्वार मोटर मार्ग का इतिहास यही कहानी बयान करता है।
   ब्रिटिश अधिकारियों पर बहुत से अभियोग लगते हैं किन्तु यह अभियोग नहीं लगता कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु सड़क योजनाएं बनायीं।  आज तो हर सड़क की योजना वोट निश्चित करने हेतु बन रही हैं।  वोट बैंक सामने आ गया है और पर्यटन नेपथ्य में चला गया है।  सड़क व पुलों का शुभारम्भ भी नेताओं की फोटोजनी हेतु होते हैं समाजहित नेपथ्य में चला जाता है।


ब्रिटिश काल में प्रमुख रोग और  समयगत मृत्यु आंकड़े

Diseases and Treatments Uttarakhand  in British  Era
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  61

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म -61                   

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--167)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 167

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

 ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में प्रमुख रोगों में प्लेग (महामारी ), हज्या , चेचक , भाभर में मलेरिय, विभिन्न बुखार , चेचक , दस्त , व प्रसव समय जच्चा -बच्चा मृत्यु प्रमुख व्याधियां थीं।
  महामारी या अन्य बीमारियों जैसे बुखार के कारण भोटिया व्यापारी श्रीनगर तक ही पंहुच पाते थे व तिब्बत सरकार भी कभी कभी भोटिया व्यापारियों पर तिब्बत प्रवेश पर रोक लगा देती थी।  1823 में प्लेग पंजाब से फैलता फैलता कुमाऊं तक फ़ैल गया था।  हजारों उत्तराखंडी मृत्युलोक चले गए थे।
 प्लेग , हैजा कुम्भ व हरिद्वार में बैशाखी मेले से यात्रियों द्वारा प्रसारित हो गढ़वाल में फ़ैल जाता था।
 ब्रिटिश शासन ने रोग प्रसारण न हो हेतु कई प्रशंसनीय कदम उठाये।  गाँवों में सफाई पर जोर देने जैसे चौक में कूड़े के ढेर , मकान के पास भांग न बोना , गौशालाएं गांव से बाहर निर्माण करने जैसे कई जन जागरण के कार्य किये।  प्लेग फैलने पर भी जन जागरण के कई कार्य किये गए।  1852 में एक कमेटी बनवायी गयी जिसके सलाहों पर कार्य किये गए व कई कदम उठाये गए।  टीकाकरण पर जोर दिया गया। डा पियरसन की रिपोर्ट ग्रामीण व्याधि निदान हेतु आज भी औचित्यपूर्ण रिपोर्ट है।
  विभिन्न रोगों से मृत्यु आंकड़े  इस प्रकार हैं  (बेकेट गढ़वाल सेटलमेंट)-

   There is following Government report on year wise disease wise deaths in Garhwal from 1867-1906 (Garhwal gazetteer)-

 

Year-----Cholera -----S. pox--------Fever------Indigestion-----Injury—Misc.----Total

-

1867-------351-------------47------------1722----------------------------------2038-------4138

68-----------20--------------8-------------1650-----------------------------------2915--------4602

69----------------------------2--------------1992---------1237-------------------1282------4513

70------------6--------------1---------------2134---------------------------------2673-------4820

71----------------------------6---------------255----------2071--------208-------563-------5414

72--------------------------74---------------2356--------2576---------288------563--------5856

73------------27------------28--------------2865--------2207--------------------713-------6201

74----------------------------31--------------3069-------2027----------393-----580-------6070

75------------587----------167--------------2269-------2376-----------262------639------6640

76--------------------------------------------3246--------2500-----------257------560------6513

77--------------------------------------------2719---------2042----------248-------753---->5000

78----------17----------------14-------------3214--------3143----------296--------403--->-7000

79-----------3473------------6---------------2743-------1712----------225--------342--- > 8000

80----------------------------------------------3935--------2384-------344---------247------ >6900

81--------------659------------2---------------3474--------2796-------244--------350---------7525

82------------------------------2----------------4046--------3331-----238---------294---------7921

83-----------------------------9---------------3683----------3824------243---------370---------8129

84---------------------------11----------------3722----------3118-------210-------165--------7226

85-------------33----------5------------------4100-----------3611--------219-----186--------8254

86---------------------------1------------------3835-----------2991--------232-----136-------7195

87------------567----------2------------------4759-----------3925--------200------219-------9211

88-------------3-------------17---------------4779-----------3982----------227-----203-------9211

89-------------109----------1-----------------4656-----------3610---------229------175------8780

90---------------620--------1-----------------6123------------3276---------224-----175------10419

91--------------66-----------13---------------6977------------3232--------236--------189----10713

92------------5943-----------3---------------8966-------------3108--------242-------224-----18481

93------------1525----------13--------------5447--------------3099--------203-------213-----10500

94-------------10-----------124--------------7691--------------4119-------242--------328-----12514

95----------------------------13----------------8845------------3970--------240--------309----13377

96--------------1033----------------------------9987-----------3632

97-------------------------------------------------9687-----------3632

98-------------40-----------------------------------6821---------------2824

99------------659------------------------------------6636-------------3587

1900----------107-----------------------------------5603---------------3132

01-------------129-----------------------------------6012---------------3034

02--------------806-----------------------------------6294---------------3494

03-------------4017------------------------------------7264--------------4309

04---------------188-----------------------------------7194---------------3458

05-------------------------------------------------------8184---------------4897

06-----------------3429---------------------------------6648----------------3941

07------------------2--------------------------------------7382--------------4064

08------------------2924---------------------------------9625---------------3601

09--------------------1736---------------------------------7259--------------2963

 

 



Copyright @ Bhishma Kukreti  5/4 //2018

ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में चिकित्सा व चिकित्सालय -- -

 Hospitals in British  Era in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  63               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--168)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 168

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  सदाव्रत व सरकारी चिकित्सालयों को छोड़कर ग्रामीण उत्तराखंड में कर्मकांडी ब्राह्मण ही आयुर्वेद चिकित्सा स्रोत्र थे।  ये ब्राह्मण अपने बच्चों को ज्योतिष , कर्मकांड के अतिरिक्त आयुर्वेद शिक्षा भी देते थे।  ब्राह्मण का गृह ही चिकित्सा शिक्षण संस्थान भी थे।  ये पारम्परिक वैद ही गाँव गाँव जाकर रोग निदान करते थे या लोग इनके पास आकर औषधि ले जाते थे।  चलण स्यूं में झाला गाँव इस क्षेत्र में वैदकी के लिए प्रसिद्ध था।
  ढांगू उदयपुर में निम्न गाँव वैदकी हेतु प्रसिद्ध थे
   झैड़
नौड -वरगडी
कठूड़
ठंठोली
गडमोला
तैड़ी
घट्टूगाड
किमसार
कांडाखाल
बरसुड़ी
डाबर
अमालडू

कंडवाल स्यूं में बागी
    इन वैद्यों की सबसे बड़ी समस्या साहित्य उपलब्धि की थी।
                        हरिद्वार  यात्रा मार्ग पर बाबा कमली वालों के धर्मार्थ चिकित्सालय भी थे
      मिशन हॉस्पिटल चोपड़ा
पादरी मेसमोर ने 1903 के आसपास चोपड़ा में एक धर्मार्थ चिकित्सालय खोला।  इस चिकित्सालय ने पौड़ी की बड़ी सेवा की और मिसनरी वाले वास्तव में बड़े जुझारू थे।
   सरकारी चिकत्सालय
 कमिश्नर ट्रेल ने सदाव्रत फंड से सरकारी स्तर पर चिकित्सालय स्थापना करना शुरू किया।  सदाव्रत से 1907 तक सात चिकित्सालय श्रीनगर , उखीमठ , बद्रीनाथ , चमोली , जोशीमठ , कर्णप्रयाग में हरिद्वार -बद्रीनाथ यात्रा मार्ग पर खुल चुके थे -1907 में कांडी (बिछला  ढांगू ) में चिकित्सालय खुला।
 1890 से 1909 तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने चिकित्सा पर निम्न राशियां खर्च किये -

                         Expenses on Health Care from 1890-1909

  The government spent on health care following money(in Rs.) from 1890-1909-

 

Year -------Rs.------------Year -----------------Rs.--------------------Year -----------Rs.

1890- 91- 1176-----------1891-92------------1121--------------------1892-93------2990

1893-94----2939-----------1892-93-----------2516---------------------95-96--------2716

96-97--------2721------------97-98------------4385---------------------98-99---------3145

99-1990------3391---------1900-01-----------3413----------------------01-02---------3645

02—03-------4191---------03-04--------------4345---------------------04-05-----------3923

05-06-----------5362---------06-07------------9760---------------------07-08----------11615

08-09-----------12565
  यात्रा मार्ग में चिकित्सालयों में यात्रिओं को निम्न व्याधियों हेतु औषधि दी गयीं या चिकित्सा की गयीं  (आदम , रिपोर्ट ऑन दि पिलग्रिम्स पृष्ठ 41 )

Nos of patients Treated in Pilgrim road Government Hospitals from 1903-1912

 

      The pilgrims used to face indigestion, malaria and diarrhea besides choler. Local people took also advantages of hospitals opened on pilgrims road.  Following data are available for patients treated in different hospitals on pilgrim roads from 1903-1912-

-

Year ---Shrinagar—Ukhimath-----Joshimath-----Chamoli-----Karnaprayag—Galai---Kandi

1903

Malaria----2400---------480-------------385------------848----------729------------559

Indigestion- 191---------39--------------77--------------102---------94---------------65

Diarrhea-----488---------57--------------39---------------88----------151--------------39

1904

Malaria -----3393--------648------------521-------------521----------630-------------558

Indigestion—582---------81-------------149-------------111----------128-------------88

Diarrhea------363----------46--------------64--------------94-------------54------------22

1905

Malaria ----- 3250---------482-------------392------------323-----------602------------635

Indigestion----648-----------93-------------129--------------42------------69-------------82

Diarrhea--------459----------53--------------59-------------33---------------88-----------79

1906

Malaria ------3787------------464-------------333-----------458-----------707------------438

Indigestion---642---------------77----------------63-----------95-----------83--------------86

Diarrhea------797---------------68---------------53------------29------------112-----------52

1907

Malaria ------2886-------------565------------440------------473-----------252----------493-----238

Indigestion-- 507---------------88-------------82--------------136----------37------------126-------38

Diarrhea------567---------------46-------------46-------------65------------116------------44------50

1908

Malaria ------3938-------------812-------------345-----------751-----------901-----------790----481

Indigestion- -655---------------33----------------82------------49------------32------------44------11

Diarrhea-------87----------------55----------------59---------187-------------14------------90-----66

1909

Malaria ------3149--------------760------------582----------834------------765-----------537-----330

Indigestion- ---793--------------187------------84-----------266------------98------------291-----82

Diarrhea------505---------------57-------------97-------------218----------144------------58---------30

1910

Malaria -----3623--------------801----------497-------------995----------817------------588-------327

Indigestion---840---------------70------------80-------------741----------205-------------330------78

Diarrhea-------889--------------66------------34-------------136----------166-------------90---------52

1911

Malaria -----2542----------------856----------582------------760----------715------------544-------408

Indigestion- 779-----------------70------------110------------568----------274-----------113---------64

Diarrhea------975----------------86------------82--------------93-----------148------------67---------53

1912

 

Malaria -----1608--------------1041----------375-------------976----------803-----------740--------333

Indigestion- -156----------------81-----------157-------------380-----------92------------229--------61

Diarrhea------437----------------118----------70--------------69------------110-----------118--------95

 

    बद्री दत्त पांडे ने यात्रा मार्ग (कुमाऊं से बद्रीनाथ ) के निम्न चिकित्सालयों का उल्लेख किया है ( कुमाऊं क इतिहस १९२३, पृष्ठ 143 -144 )-

अल्मोड़ा अस्पताल

अल्मोड़ा सदर अस्पताल

अल्मोड़ा जनाना अस्पताल

पि थौरागढ़

लोहाघाट

भीकियासैण - विशेषतः यात्रा मार्ग हेतु

गणाई - यात्रा हेतु

बैजनाथ जो चाय बगान हेतु शुरू हुआ था

बागेश्वर

  इसी तरह बैजनाथ , नैनीनाग , द्वारहाट , झूलाघाट , धारचूला , कपकोड , मनीला , जैंती , लमगड़ा , खेतीखान , देवलथल , मांसी , नैनीताल में भी अस्पताल खुल गए थे

  भंवासी  में क्षय चिकित्सालय खुल गया था यहां 150 रोगी रह सकते थे। तिबरी में जनाना सेनोटेरियम भी था।


 

Copyright @ Bhishma Kukreti  /64 //2018



 ब्रिटिश काल में यात्रा मार्ग पर चट्टी प्रबंध (काला लोगों द्वारा विशेष र्यटन प्रबंधन )

Chatti management  in British  Era
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  65

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  65               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--169)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 169

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

 बद्रिकाश्रम व केदारेश्वर यात्रा माह्भारत संकलन -सम्पादन काल से भी शस्त्र वर्ष पहले से चली आ रही हैं। इतने सालों तक ऋषिकेश -देवप्रयाग मोटर मार्ग बनने से पहले ऋषिकेश से बद्रीनाथ जाने का एक ही पैदल मार्ग था और वह था पौड़ी गढ़वाल में गंगा  तट का।  मार्ग।   सहस्त्रों वर्षों तक यही मार्ग बना रहा।  सहस्त्रों  सालों में पर्यटक सुविधा हेतु एक व्यवस्था निर्मित हुयी जिसे चट्टी व्यवस्था कहते हैं।  चट्टी शब्द द्रविड़ शब्द से बना शब्द है जिसका अर्थ है दुकान अथवा दुकानदारी।  चट्टी के मालिक को चट्टीवाला कहा जाता था।
  चट्टियां ऋषिकेश -बद्रीनाथ के मध्य , कर्णप्रयाग से  से पुनवाखाल कुमाऊं की और जाने वाले मार्ग व रुद्रप्रयाग से गंगोत्री -यमनोत्री -वाले मार्ग पर चार या तीन से चार मील के अंतराल में बनी थी. इससे पहाड़ी प्रदेश से अनभिज्ञ मैदानी यात्रियों को सुविधा सुलभ हो जाती थीं।
                  छट्टियों में चट्टी भवन
 यह एक आश्चर्य ही है कि अधिकतर चट्टियों में भवन या दुकाने एक जैसे ही बनाये जाते थे।  भवन चट्टी मालिक अपने धन से निर्मित करवाते थे।  भवन भूमि से दो फिट ऊँचे आधार पर बनवाये जाते थे। एक मंजिला भवन का बड़ा लम्बा कक्ष द्वार विहीन होता था जो मुख्य मार्ग की  ओर खुलता था। बरामदे के एक भाग में दुकान  कक्ष व दुकानदार हेतु शयन कक्ष होता था।  सर्दियों में भोजन पकाने हेतु एक चूल्हा भी होता था।  छतें या तो घासफूस या पत्थरों की होती थीं।  कुछ छतें पर चददरों की बनीं होते थे।
    दुकान से बाहर क्यारियां होती थीं। हर क्यारी के किनारे एक चौकी व चूल्हा होता था।  यात्री चट्टी दुकान से मन माफिक  खरीदकर अपना भोजन स्वयं बनाते थे।  चट्टी मालिक चूल्हों की आज लिपाई करता था। चट्टी  मालिक बर्तन ,शयन हेतु कपड़े , लकड़ी का प्रबंध करता था उसके लिए मूल्य निर्धारित थे।  मांश मदिरा सेवन चट्टियों में सर्वथा वर्जित था।  साधुओ के लिए भांग पीने की छूट थी।  चट्टी मालिक तम्बाकू का प्रबंध भी करता था।  हुक्के की छूट नहीं थी।  चट्टी मालिक चिलम रखते थे या पत्ती की चिलम बनाकर यात्रियों को देते थे। अनाज खरदने वाले यात्रियों से शयन व विस्तर मुफ्त था। शयन कीमत एक या दो आना प्रति रात था।
    यदि चट्टी गंगा किनारे हो तो मंदिर भी थे जैसे महादेव चट्टी , व्यासचट्टी आदि।  यदि कोई यात्री रुग्णावस्था में हो तो चट्टी मालिकपास के गाँवों से वैद्य  बुलाते थे।
      यदि किसी यात्री को   थी तो चट्टी मालिक डंडी , पिंस , डोला व घोड़ों की व्यवस्था भी करता था।
         बहुत से यात्री अपना सामान चट्टी में छोड़ आते थे व लौटते समय अपना सामान ले जाते थे।  गढ़वाली चट्टी मालिकों की ईमानदारी की कथाएं सारे भारत में प्रचलित थीं अतः यात्री गढ़वाल यात्रा में चोरी व डकैती से कभी भय नहीं खाते थे।  यात्री रात में भी बिना भी के यात्रा कर लेते थे। यात्रा मार्ग के आस पास के ग्रामीण भी यात्रियों का शोषण नहीं करते थे व समय पड़ने पर बिना शुल्क सहायता करते थे।
  ब्रिटिश शासन में कुछ अंतराल के बाद सरकार ने सफाई कर्मचारी नियुक्त किये जो चट्टियों में सफाई कार्य करते थे। 
 ब्रिटिश काल में निम्न चट्टियां कार्यरत थी।

             Chattis on Lakshmanjhula –Badrinath Road

  SN.    Chatti -----Distance---Shops, Nos- SN.    Chatti -----Distance---Shops, Nos

1-Lakshmanjhula------0--------13---------------2------Khairari--------2----------0

3-Fulvari-----------------2---------10--------------4-------Ghattugad-----2---------6

5-Nai Mohan (Chatti)- 3----------3---------------6----Chhoti Bijni-----1----------8

7-Bari Bijni-------------1 ----------8---------------8- Kund---------------3-----------3

9-Banderbhel----------3-------------7--------------10—Mhadev ---------1.5--------18

11- Simwal------------3.5-----------8---------------12--Am-----------------0.25------1

13- Kandi--------------2.5-----------5----------------14-Vyasghat-----------4.5-------10

15-Chhaluri--------------3------------3--------------------16—Umrasu-------------3----2

17—Saur----------------3--------------2-------------------18---Vah (devPrayag)---1---21

19—Ranibag-------------7--------------5------------------20-Rampur------------4-------15

21-Vilvakedar-----------4--------------3-----------------22—Shrinagar-------3---------Big Bazar

23—Sukarta-------------5---------------3-----------------24—Devalgadan ---1.5------1

25-Bhattisera------------1.3--------------7------------------26- Chhantikhal ----1--------1

27- Khankara------------  1 -------------8--------------------28- Narkot------------3 ------4

29- Gulabrai --------------2.5-----------2---------------30- Punar (Rudraprayag)- 1---12

31- Shivanandi -----------7--------------4---------------------32 Kamera ------------4---1

33- Chatwapipal----------5---------------6 ----------------------34Karnaprayag ----4----20

35- Kald--------------------1---------------1-------------------------36 Umta---------------1-----1

37- Jaikandi -------------2------------------1-------------------38- Uttaraul ------------0.25-----1

39- Langasu---------------2----------------4----------------------40- Biroligadhera------2-----------2

41-Sonla--------------------3----------------6-----------------------42- Nandprayag-------3-------24

43-Pursari-----------------1-------------------1----------------------44- Maithana ---------2--------7

45-Kuher----------------- 2--------------------3------------------46- Bayar------------------ 0------1

47- Chamoli--------------2------------------13------------------48-Math-------------------2-------5

49- Mathgadan------------0------------------3-------------------50-Chhinka--------------1-------4

51- Baunla------------------1-----------------6---------------------52-Siyasain-----------2----------7

53-Dhobighat--------------1----------------5--------------------54-Pipalkoti -----------2-----------24

55-Gauriganga--------------3--------------4----------------------56-Tangani--------------2.25-----5

57-Patalganga---------------2--------------7----------------------58- Gulabkoti------------2---------4

59-Helang (Kumarchatti)-2.25----------15---------------------60-Khanoti--------------2.25--------9

61-Jharkuli----------------1----------------2-----------------------62-Singdhara----------2-----------3

63-Chunar (Joshimath)-1-----------------4------------------------64-Vishnuprayag------1------------4

65-Chaldua-------------------------------1-------------------------66-Ghat—4---------------10

67-Nandkeshwar-----------------------3-------------------------68-Pandukeshwar---2----12

69-Bamanganv------------------------3----------------5--------70-Hanumanchatti---2--------5

71- Badrinath --------------------4.25----------------5

Mana ?

 

  The following Chattis (Staying places for Pilgrims) on Rudraprayag to Kedarnath rout-

SN- Chatti---------Distance----Nos Shop------SN. Chatti-----------Distance ------Nos. Shop

72-Rudraprayag------------0----------4--------------73-Chhatoli---------6 ----------------7

74-Tilwara------------------0------------1-------------75-Math------------2------------------1

76- Rampur- ---------------2------------7------------77-Agustmuni ----3-------------------8

78-Sauri--------------------2--------------4------------79-Kunjgarh/Chandrapuri---2-------12

80-Bhiri------------------3----------------10-----------81-Kund-----------4-------------------5

82-Guptkashi-----------2-----------------10--------------83-Nala ---------1-------------------3

84-Bhet------------------1-----------------8------------------85—Kantva-----2-----------------7

86- Malla----------------0.2--------------2------------------87—Fata ---------3---------------16

88-Badasu--------------2-----------------4-------------------89- Badalpur-------1-------------6

90- Rampur------------2------------------16-----------------91- Trijugi-----------5-----------10

92-Gaurikund----------5-------------------15----------------93- Chirpatiya Bhairav—2--------4

94- Ramwara ------------2---------------- 15----------------95—Kedarnath --------4-----------10

                            *Distance in miles, mile=1.6 kilo meter

 

Pilgrims used to visit Badrinath from Kedarnath too through Guptakashi to Chamoli . The following Chattis were there from Guptakashi to Chamoli rout-

SN- Chatti---------Distance----Nos Shop------SN. Chatti-----------Distance ------Nos. Shop

96-Nala---------------0--------------3---------------97- Ukhimath----------2.5------------10

98-Kanath--------------3-------------10--------------99-Gwali Bagar----------2------------5

100-Gaira----------------1--------------3-------------101-Godh-------------------0------------1

102- Vyas-----------------0---------------2------------103-Pothivasa------------2-----------12

104-DogliBheent ----------1.5-----------1---------------105-Baniya Kund------0.5-------4

106-Chopta------------------1--------------7--------------107-Jhunkana------------3----------8

108-Bhinodiya--------------1---------------3---------------109-Pangarvasa---------4----------6

110-Mandal-----------------4-------------21 (?)--------------111-Bairagana------------2-----------1

112-Nirau------------------0.5-----------------2----------------113- Kholti-------------0.5----------3

114-Sentuna-----------------1------------------5-----------------115- Gopeshwar----------2----------5

116-Kotiyal Ganv --------2------------------2--------------------117- Chamoli -----------1----------14

 

     

Pilgrims used to go towards east (through Almora ) from Badrinath to Panuvakhal (last Chatti in Garhwal) via Karnaprayag . The following Chattis were there from  Karnaprayag to Panuvakhal  rout-

SN- Chatti---------Distance----Nos Shop------SN. Chatti-----------Distance ------Nos. Shop

118-Karnaprayag ------0-------------20-----------119- Puli -----------------------------1

120- Ram- --------------0---------------1----------121- Simali--------------4------------12

122-Siroli-----------------2--------------8-----------123-Bharoli------------2-------------7

124-Pipal--------------------------------1-------------125-Adibadari---------4-----------16

126-Kheti---------------9---------------5-------------127-Jangalchatti--------2------------11

128-Devali--------------2---------------4-------------129----Genthabanj------0.5----------2

130-Kalamati-----------1.25-----------2--------------131-Basiyagad---------0.25----------3

132-Gwargadan---------1.50-----------1---------------133- Chunarghat-------1.25---------10

133-Isai Chatti-----------1.25-----------3---------------135—Sainja---------------1--------2

135-Melgwar --------------0.25----------2-----------------137-Agarpanwar ki dukan –0.25—1

137- Mehalchaunri --------1.50----------5----------------139-Punavakhal----3-----------3

Punvakhal was last Chatti for entering into Kumaon .

 In Kumaon, there were 42 Chattis between Punavakhal and Ramnagar.

 कुमाऊं में 42 चट्टियां थीं
                      *Distance in miles, mile=1.6 kilo meter


            सुमाड़ी के कालाओं का विशेष प्रबंधन

  श्रीनगर के पास कालाओं का गाँव है सुमाड़ी।  कुणिंद शासन के कुणिंद मुद्राओं के सुमाड़ी व भैड़ गाँव (दोनों काला जाति गाँव ) में मिलने से अनुमान लगता है कि काला गढ़वाल में सातवीं आठवीं सदी में बस गए थे किन्तु उन्हें पंवार वंशी राजाओं के यहां कोई बड़ा पद नहीं मिला था।
               कला लोगों का  प्रबंधन में
   काला लोगों का चट्टी प्रबंधन अभिनव था।  उस समय चाय प्रचलन  हुआ था तो यात्रयों हेतु त्वरित ऊर्जा हेतु कोई पेय उपलब्ध न था।  चूँकि अधिकतर यात्रा ग्रीष्म ऋतू में होतीं थी तो दूध रखना संबंद्व न था।  जबकि दूध की बड़ी मांग थी।
          कला लोगों की श्रीनगर से नंद प्रयाग तक चट्टियां थीं।  सुमाड़ी के काला यात्रा सीजन शुरू होने से पहले दुधारू भैंस चट्टियों में ही ले जाते थे।  यात्रियों को ताजा दूध मिलने से श्रीनगर से नंद प्रयाग की चट्टियों का नाम भारत के कोने कोने में विशेष छवि बन गयी थी जिसका जिक्र आदम ने रिपोर्ट ऑन पिलग्रिम रुट किया है।  एक अन्य आश्चर्य यह भी है कि यद्द्यपि यात्रियों की दूध हेतु बड़ी मांग थी किन्तु कालाओं   को छोड़ अन्य लोग चट्टियों में भैंस नहीं रखते थे कालाओं में बहुत से वैद व  तो वैदकी भी कर लेते थे।
    ब्रिटिश शासन ने आदम को यात्रा मार्ग में सुधार हेतु रिपोर्ट बनाने आदेश दिया और आदम ने चट्टी प्रबंधन को सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था करार दिया तथा लिखा कि  गढ़वाल में किसी सुधार की आवश्यकता ही नहीं है । सुरक्षा , यात्रा  सुविधा  प्रबंधन ही तो पर्यटन प्रवंधन है जो चट्टी मालिक करते थे.
           बाबा   काली कमली वालों का योगदान
 बाबा कमली वालों की धर्मशालाओं व औषधालयों का गढ़वाल पर्यटन में बड़ा योगदान है। 
 

Copyright @ Bhishma Kukreti  7/4 //2018

टिहरी रियासत में पर्यटन तंत्र  भाग -1

 Laws for Tourism Development in Tehri Riyasat
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -66

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  66               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--170)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 170

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  टिहरी रियासत  काल 1816 -1948 तक को अधिकतर जन शोषण काल माना जाता है किन्तु टिहरी रियासत काल में सुचारु उत्तराखंड पर्यटन हेतु कई पग भी उठाये गए थे।

                मोटर मार्ग

1937 -38 में ऋषिकेश से देवप्रयाग मोटर मार्ग निर्मित हुआ पीछे इस मार्ग का  कीर्तिनगर तक विस्तार विटार किया गया
   1921 में ऋषिकेश से नरेंद्र नगर मोटर मार्ग का कार्य प्रारम्भ हुआ पीछे मोटर मार्ग टिहरी तक पंहुचाया गया।
     मानवेन्द्र शाह काल में टिहरी से धरासू तक मोटर मार्ग निर्मित हुआ।
            1940 में टिहरी रियासत में निम्न मुख्य मार्ग थे -
ऋषिकेश नरेंद्र नगर मोटर मार्ग-53 मील
ऋषिकेश देवप्रयाग -कीर्तिनगर मोटर मार्ग -63 मील
 टिहरी मसूरी अश्व मार्ग -40 मील
 अन्य कच्ची सड़कें 844 मील
             राज्य बंगले
टिहरी रियासत के राजकीय बंगले - कौड़िया , धनोल्टी , पौ , डांगचौरा , धरासू , नाकुरी  बड़ाहाट , भटवाड़ी , हरसिल , जांगला , देवलसारी , मगरा , बड़कोट ,पुरोला , बडियार , फाकोट , नागणी , चमुवा , टिहरी , प्रता

Bhishma Kukreti

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 --

( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

 



Copyright @ Bhishma Kukreti  /4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;
   


--

 
गढ़वाली  राजाओं व गोरखा शासन में मंदिरों को कर मुक्त मुवाफ़ी गाँव दिए गए थे।  गूंठ भूमि राजस्व से मंदिरों में पूजा व कर्मचारियों का वेतन प्रबंध होता था। इसके अतिरिक्त सदाव्रत गाँव भी थे जिनकी आय से श्रीनगर , जोशीमठ में यात्रियों हेतु मुफ्त भोजन व्यवस्था भी होती थी। 1816 में गढ़वाल के सहायक कमिश्नर ने सलाह दी थी कि गूंठ  या मंदिर गाँवों की आय का कुछ भाग यात्रियों की सुविधाओं हेतु प्रयोग होना चाहिए।
  केदारनाथ के रावल द्वारा अमानत में खयानत से अधिकारियों ने रावलों या पुजारियों से सदाव्रत गाँवों से आय व उपयोग का अधिकार छीनकर स्वंतंत्र कमेटी 'लोकल एजेंसी 'बना दी।  सदाव्रत गाँवों की आय से हरिद्वार -बद्रीनाथ यात्रा मार्ग चौड़ा किया गया।  सदाव्रत गाँवों के राजस्व से यात्रिओं को मुफ्त भोजन व्यवस्था , यात्री चिकित्सा,  मरोम्मत कार्य में तेजी लायी गयी। मार्ग मरमत कार्य अब नियमित व सुचारु रूप से होने लगा था.
  ट्रेल के उत्तराधिकारियों द्वारा सदाव्रत पट्टियों  की आय से निम्न मार्ग निर्मित हुए या उनका पुनर्निर्माण हुआ
जोशीमठ -नीती
अल्मोड़ा से लाभा -गढ़वाल
श्रीनगर से नजीबाबाद मार्ग
   1927 -28 में ट्रेल ने गाँव वालों से बेगार लेकर (मुफ्त मजदूरी ) हरिद्वार -बद्रीनाथ मार्ग निर्माण कार्य करवाया।  वह स्वयं भी मार्ग निर्माण निरीक्षण करता था।  1855 तक निम्न यात्रा मार्ग भी निर्मित हो चुके थे -
रुद्रप्रयाग से -केदारनाथ
उखीमठ से चमोली
कर्णप्रयाग से चांदपुर
 बेकेटभूव्यवस्था में गूंठ व सदाव्रत भूमि की विधिवत व्यवस्था की गयी थी।  डा डबराल ने लिखा है कि मंदिरों के साथ अन्याय भी हुआ।  कुछ मंदिरों की भूमि भी छीन ली गयी थी।
     सदाव्रत गाँवों से बेकेट भूव्यवस्था में  वार्षिक राजस्व 100013 रुपयाथा।  सदाव्रत व गूंठ गाँव की संख्या 535 थी व 1863 में इन गाँवों का क्षेत्रफल 8074 बीसी नाली थ


   स्ट्रेचों की रिपोर्ट सलाह मानते हुए ब्रिटिश शासन ने सदाव्रती पट्टियों के सदाव्रत भूमि राजस्व  का उपयोग तीर्थयात्री मार्ग निर्माण , पुनर्णिर्माण  , तीर्थ यात्रियों हेतु औषधालय निर्माण , औषधि वितरण , पर होने लगा।  इन तीर्थ यात्री सुविधाओं से भारत के अन्य भागों में अपने आप उत्तराखंड छवि वृद्धि हुयी और तीर्थ यात्रियों की संख्या में वृद्धि होने लगी।

         गाँवों में श्रमदान से मार्ग निर्माण में तेजी
       तीर्थ यात्रा मार्गों में सुधार से प्रेरित हो गढ़वाल के अन्य क्षेत्रों में श्रमदान से ग्रामवासी मार्ग निर्माण करने लगे। ग्रामवासी अपने गाँव को लघु मार्गों द्वारा मुख्य यात्रा मार्ग से स्वयं जोड़ने लगे।


    पौड़ी गढ़वाल पर्यटन में पिछड़ा जनपद है
  पौड़ी गढ़वाल में स्वर्गाश्रम , लक्ष्मण झूला व श्रीनगर को छोड़ दें तो पौड़ी में धार्मिक पर्यटन नगण्य हैं।  यदि उत्तराखंड पर्यटन वृशि करनी है तो पिथौरागढ़ व पौड़ी जनपदों को को राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन जनपद विकसित करने ही होंगे।  इसके लिए श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग को प्रसिद्धि आवश्यक है।
      श्रीनगर -कोटद्वार रुट हेतु प्रवासियों का योगदान ही विकल्प है
 यदि श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग को राट्रीय स्तर का पर्यटन मार्ग बनाना है तो श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग के गाँवों को विशिष्ठ पर्यटक क्षेत्र निर्मित करना होगा जिसमे प्रवासियों की भूमिका के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।  प्रवासी निम्न स्तर पर अपना योगदान दे सकते हैं
१- वैचारिक स्तर पर अपने गाँव में विशिष्ठ पर्यटन आकर्षी प्रोडक्ट निर्माण
२- ग्रामवासियों को तैयार करना - आजकल एक बीमारी फैली है कि हर भारतीय शासन से सब कुछ चाहता है किन्तु अपने योगदान के बारे मबौग सार देता है। प्रवासी यह जड़ता तोड़ सकते हैं
3 -पर्यटन प्रोडक्ट निर्माण में निवेश कर प्रवासी अपनी भूमिका निर्धारित कर सके हैं। प्रवासी श्रीनगर -कोटद्वार मार्ग पर रिजॉर्ट , म्यूजियम , बाल क्रीड़ा केंद्र , हनी मून हाऊसेज , हॉस्पिटल आदि खोल सकते हैं।


Copyright @ Bhishma Kukreti  3/4 //2018



Copyright @ Bhishma Kukreti  /4 //2018


ब्रिटिश काल में परिवहन योजनाएं और वर्तमान में वोट और विभाग अहम प्रेरित परिहवन योजनाएं
 Transportation improvement in British Period in Uttarakhand

Temple Management in British  Era
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -60

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  - 60                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--166)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 166

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

   गढ़वाल कुमाऊं में बार बार अन्नकाल पड़ते थे।  ऐसे समय में निर्यातित अनाज को सदूर गाँवों में पंहुचना टेढ़ी खीर थी। पहाड़ों में बैलगाड़ी जाना आज भी संभव नहीं है।  तो घोड़ों व खच्चरों से लदान संभव था या है। किन्तु गढ़वाल राजाओं व क्रूर गोरखाओं ने कर लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु सड़कें नहीं बनवायीं।  ब्रिटिश शासन ने आंतरिक परिवहन को सुदृढ़ करने हेतु कुछ कदम उठाये।
 1948 में कुमाऊं में अल्मोड़ा में 180 मील , नैनीताल में 80 मील लम्बी सड़कें निर्माण का काम हाथ में लिया गया। सर्वपर्थम कोटद्वार -फतेहपुर सड़क पर ध्यान दिया गया।  लैंसडाउन छा वनी बनने से भी दक्षिण गढ़वाल में परिहवन सुलभ हुआ। 

    In Garhwal, there was no plan for road construction till 1828.

       Trail started road construction from Haridwar to Badrinath in 1827-1828. Trail did not take help from any engineer for planning. Trail himself used to supervise the works. it is said that Trail used to cut or dig stone when there was steep stone hurdle. He used to go for marking on steep hill with the help of roped basket. Trail used to sit in roped  basket and helpers used to take rope and he used to jump here and there for marking. Trail travelled from Badrinath to Kedarnath for road survey.

    Trail also discovered a road from Kumaon to Mansarovar. Church officials criticized Trail for that he was promoting idol worshipping.

   By 1834, Haridwar –Badrinath road was completed. Animals and men could cross each other on that road. By 1835, government constructed roads from Rudraprayag to Kedarnath, Ukhimath to Chamoli, Chandpur to Kumaon via Lobha. Kumaon was connected to Ruhelkhand. So Ruhelkhand was connected to Badrinath via Kumaon. The length of such roads was 300 miles and cost was Rs. 25000.Sadavrat tax was used on road construction.

    The successors of Trail kept road construction works alive. Workers completed road construction from Joshimath to Neeti in 1840. There was road from Shrinagar to Almora and Shrinagar to Kotdwara to Nazibabad by 1841.

 कोटद्वारा , हल्द्वानी , ऋषिकेश व देहरादून, हरिद्वार  को रेल से जोड़ने का जो कार्य ब्रिटिश शासन ने किया था उसमे भारत सरकार ने एक इंच भी वृद्धि नहीं क।  रेल मार्ग ने तो पर्यटन उद्यम त्र में क्रान्ति ला दी थी
ऋषिकेश -देवप्रयाग मोटर मार्ग ने भी उत्तराखंड पर्यटन की काया पलट ही कर दी।  प्राचीन काल से चलने वाला ऋषिकेश -बद्रीनाथ मार्ग तो बंद ही हो गया।
    गढ़वाल में 1948 में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की मुख्य सड़कें इस प्रकार थीं -
तपोवन घाट -नारायण बगड़ -लोहाबा -बुंगीधार -44 मील
बुवाखाल -कैन्यूर -44 मील
रामणी बाण -देवाल -ग्वालदम -38 मील
दनगल -पोखड़ा -बैजरों --२६ मील
नंद प्रयाग -बाट मार्ग -12 मील
 दोगड्डा -द्वारीखाल -पौखाल -डाडामंडी पैदल मार्ग भी ब्रिटिश देन है. व्यासचट्टी , महादेव चट्टी जैसे घाटों को अच्छी सड़कों (घोडा सड़क ) गाँवों से जोड़ने का प्रशंसनीय कार्य भी ब्रिटिश काल में शुरू हुए।
इन सड़कों के निर्माण ने आंतरिक पर्यटन व वाह्य पर्यटन विकास की आधार शिला रखी। इन सड़कों पर ऐसे पल बने हैं जो अभी भी सही सलामत हैं।
    गंगा व सहयोगी नदियों पर पल भी ब्रिटिश काल में बने जिन पुलों ने पर्यटन को नई दशा व दिशा दीं।  श्रीनगर गुमखाल मोटर मार्ग भी ब्रिटिश काल देन है।
 ऋषिकेश कोटद्वार मार्ग भी ब्रिटिश काल में निर्मित हुआ।
     वन सड़कें - ब्रिटिश काल में वनों के अंदर आवागमन हेतु कई सड़कें बनीं।  अब तो सार्वजनिक विभाग व वन विभग्ग की खींचातानी में चलते मार्ग भी अवरुद्ध किये जा रहे हैं हरिद्वार -कोटद्वार मोटर मार्ग का इतिहास यही कहानी बयान करता है।
   ब्रिटिश अधिकारियों पर बहुत से अभियोग लगते हैं किन्तु यह अभियोग नहीं लगता कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु सड़क योजनाएं बनायीं।  आज तो हर सड़क की योजना वोट निश्चित करने हेतु बन रही हैं।  वोट बैंक सामने आ गया है और पर्यटन नेपथ्य में चला गया है।  सड़क व पुलों का शुभारम्भ भी नेताओं की फोटोजनी हेतु होते हैं समाजहित नेपथ्य में चला जाता है।


ब्रिटिश काल में प्रमुख रोग और  समयगत मृत्यु आंकड़े

Diseases and Treatments Uttarakhand  in British  Era
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  61

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म -61                   

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--167)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 167

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

 ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में प्रमुख रोगों में प्लेग (महामारी ), हज्या , चेचक , भाभर में मलेरिय, विभिन्न बुखार , चेचक , दस्त , व प्रसव समय जच्चा -बच्चा मृत्यु प्रमुख व्याधियां थीं।
  महामारी या अन्य बीमारियों जैसे बुखार के कारण भोटिया व्यापारी श्रीनगर तक ही पंहुच पाते थे व तिब्बत सरकार भी कभी कभी भोटिया व्यापारियों पर तिब्बत प्रवेश पर रोक लगा देती थी।  1823 में प्लेग पंजाब से फैलता फैलता कुमाऊं तक फ़ैल गया था।  हजारों उत्तराखंडी मृत्युलोक चले गए थे।
 प्लेग , हैजा कुम्भ व हरिद्वार में बैशाखी मेले से यात्रियों द्वारा प्रसारित हो गढ़वाल में फ़ैल जाता था।
 ब्रिटिश शासन ने रोग प्रसारण न हो हेतु कई प्रशंसनीय कदम उठाये।  गाँवों में सफाई पर जोर देने जैसे चौक में कूड़े के ढेर , मकान के पास भांग न बोना , गौशालाएं गांव से बाहर निर्माण करने जैसे कई जन जागरण के कार्य किये।  प्लेग फैलने पर भी जन जागरण के कई कार्य किये गए।  1852 में एक कमेटी बनवायी गयी जिसके सलाहों पर कार्य किये गए व कई कदम उठाये गए।  टीकाकरण पर जोर दिया गया। डा पियरसन की रिपोर्ट ग्रामीण व्याधि निदान हेतु आज भी औचित्यपूर्ण रिपोर्ट है।
  विभिन्न रोगों से मृत्यु आंकड़े  इस प्रकार हैं  (बेकेट गढ़वाल सेटलमेंट)-

   There is following Government report on year wise disease wise deaths in Garhwal from 1867-1906 (Garhwal gazetteer)-

 

Year-----Cholera -----S. pox--------Fever------Indigestion-----Injury—Misc.----Total

-

1867-------351-------------47------------1722----------------------------------2038-------4138

68-----------20--------------8-------------1650-----------------------------------2915--------4602

69----------------------------2--------------1992---------1237-------------------1282------4513

70------------6--------------1---------------2134---------------------------------2673-------4820

71----------------------------6---------------255----------2071--------208-------563-------5414

72--------------------------74---------------2356--------2576---------288------563--------5856

73------------27------------28--------------2865--------2207--------------------713-------6201

74----------------------------31--------------3069-------2027----------393-----580-------6070

75------------587----------167--------------2269-------2376-----------262------639------6640

76--------------------------------------------3246--------2500-----------257------560------6513

77--------------------------------------------2719---------2042----------248-------753---->5000

78----------17----------------14-------------3214--------3143----------296--------403--->-7000

79-----------3473------------6---------------2743-------1712----------225--------342--- > 8000

80----------------------------------------------3935--------2384-------344---------247------ >6900

81--------------659------------2---------------3474--------2796-------244--------350---------7525

82------------------------------2----------------4046--------3331-----238---------294---------7921

83-----------------------------9---------------3683----------3824------243---------370---------8129

84---------------------------11----------------3722----------3118-------210-------165--------7226

85-------------33----------5------------------4100-----------3611--------219-----186--------8254

86---------------------------1------------------3835-----------2991--------232-----136-------7195

87------------567----------2------------------4759-----------3925--------200------219-------9211

88-------------3-------------17---------------4779-----------3982----------227-----203-------9211

89-------------109----------1-----------------4656-----------3610---------229------175------8780

90---------------620--------1-----------------6123------------3276---------224-----175------10419

91--------------66-----------13---------------6977------------3232--------236--------189----10713

92------------5943-----------3---------------8966-------------3108--------242-------224-----18481

93------------1525----------13--------------5447--------------3099--------203-------213-----10500

94-------------10-----------124--------------7691--------------4119-------242--------328-----12514

95----------------------------13----------------8845------------3970--------240--------309----13377

96--------------1033----------------------------9987-----------3632

97-------------------------------------------------9687-----------3632

98-------------40-----------------------------------6821---------------2824

99------------659------------------------------------6636-------------3587

1900----------107-----------------------------------5603---------------3132

01-------------129-----------------------------------6012---------------3034

02--------------806-----------------------------------6294---------------3494

03-------------4017------------------------------------7264--------------4309

04---------------188-----------------------------------7194---------------3458

05-------------------------------------------------------8184---------------4897

06-----------------3429---------------------------------6648----------------3941

07------------------2--------------------------------------7382--------------4064

08------------------2924---------------------------------9625---------------3601

09--------------------1736---------------------------------7259--------------2963

 

 



Copyright @ Bhishma Kukreti  5/4 //2018

ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में चिकित्सा व चिकित्सालय -- -

 Hospitals in British  Era in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  63               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--168)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 168

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  सदाव्रत व सरकारी चिकित्सालयों को छोड़कर ग्रामीण उत्तराखंड में कर्मकांडी ब्राह्मण ही आयुर्वेद चिकित्सा स्रोत्र थे।  ये ब्राह्मण अपने बच्चों को ज्योतिष , कर्मकांड के अतिरिक्त आयुर्वेद शिक्षा भी देते थे।  ब्राह्मण का गृह ही चिकित्सा शिक्षण संस्थान भी थे।  ये पारम्परिक वैद ही गाँव गाँव जाकर रोग निदान करते थे या लोग इनके पास आकर औषधि ले जाते थे।  चलण स्यूं में झाला गाँव इस क्षेत्र में वैदकी के लिए प्रसिद्ध था।
  ढांगू उदयपुर में निम्न गाँव वैदकी हेतु प्रसिद्ध थे
   झैड़
नौड -वरगडी
कठूड़
ठंठोली
गडमोला
तैड़ी
घट्टूगाड
किमसार
कांडाखाल
बरसुड़ी
डाबर
अमालडू

कंडवाल स्यूं में बागी
    इन वैद्यों की सबसे बड़ी समस्या साहित्य उपलब्धि की थी।
                        हरिद्वार  यात्रा मार्ग पर बाबा कमली वालों के धर्मार्थ चिकित्सालय भी थे
      मिशन हॉस्पिटल चोपड़ा
पादरी मेसमोर ने 1903 के आसपास चोपड़ा में एक धर्मार्थ चिकित्सालय खोला।  इस चिकित्सालय ने पौड़ी की बड़ी सेवा की और मिसनरी वाले वास्तव में बड़े जुझारू थे।
   सरकारी चिकत्सालय
 कमिश्नर ट्रेल ने सदाव्रत फंड से सरकारी स्तर पर चिकित्सालय स्थापना करना शुरू किया।  सदाव्रत से 1907 तक सात चिकित्सालय श्रीनगर , उखीमठ , बद्रीनाथ , चमोली , जोशीमठ , कर्णप्रयाग में हरिद्वार -बद्रीनाथ यात्रा मार्ग पर खुल चुके थे -1907 में कांडी (बिछला  ढांगू ) में चिकित्सालय खुला।
 1890 से 1909 तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने चिकित्सा पर निम्न राशियां खर्च किये -

                         Expenses on Health Care from 1890-1909

  The government spent on health care following money(in Rs.) from 1890-1909-

 

Year -------Rs.------------Year -----------------Rs.--------------------Year -----------Rs.

1890- 91- 1176-----------1891-92------------1121--------------------1892-93------2990

1893-94----2939-----------1892-93-----------2516---------------------95-96--------2716

96-97--------2721------------97-98------------4385---------------------98-99---------3145

99-1990------3391---------1900-01-----------3413----------------------01-02---------3645

02—03-------4191---------03-04--------------4345---------------------04-05-----------3923

05-06-----------5362---------06-07------------9760---------------------07-08----------11615

08-09-----------12565
  यात्रा मार्ग में चिकित्सालयों में यात्रिओं को निम्न व्याधियों हेतु औषधि दी गयीं या चिकित्सा की गयीं  (आदम , रिपोर्ट ऑन दि पिलग्रिम्स पृष्ठ 41 )

Nos of patients Treated in Pilgrim road Government Hospitals from 1903-1912

 

      The pilgrims used to face indigestion, malaria and diarrhea besides choler. Local people took also advantages of hospitals opened on pilgrims road.  Following data are available for patients treated in different hospitals on pilgrim roads from 1903-1912-

-

Year ---Shrinagar—Ukhimath-----Joshimath-----Chamoli-----Karnaprayag—Galai---Kandi

1903

Malaria----2400---------480-------------385------------848----------729------------559

Indigestion- 191---------39--------------77--------------102---------94---------------65

Diarrhea-----488---------57--------------39---------------88----------151--------------39

1904

Malaria -----3393--------648------------521-------------521----------630-------------558

Indigestion—582---------81-------------149-------------111----------128-------------88

Diarrhea------363----------46--------------64--------------94-------------54------------22

1905

Malaria ----- 3250---------482-------------392------------323-----------602------------635

Indigestion----648-----------93-------------129--------------42------------69-------------82

Diarrhea--------459----------53--------------59-------------33---------------88-----------79

1906

Malaria ------3787------------464-------------333-----------458-----------707------------438

Indigestion---642---------------77----------------63-----------95-----------83--------------86

Diarrhea------797---------------68---------------53------------29------------112-----------52

1907

Malaria ------2886-------------565------------440------------473-----------252----------493-----238

Indigestion-- 507---------------88-------------82--------------136----------37------------126-------38

Diarrhea------567---------------46-------------46-------------65------------116------------44------50

1908

Malaria ------3938-------------812-------------345-----------751-----------901-----------790----481

Indigestion- -655---------------33----------------82------------49------------32------------44------11

Diarrhea-------87----------------55----------------59---------187-------------14------------90-----66

1909

Malaria ------3149--------------760------------582----------834------------765-----------537-----330

Indigestion- ---793--------------187------------84-----------266------------98------------291-----82

Diarrhea------505---------------57-------------97-------------218----------144------------58---------30

1910

Malaria -----3623--------------801----------497-------------995----------817------------588-------327

Indigestion---840---------------70------------80-------------741----------205-------------330------78

Diarrhea-------889--------------66------------34-------------136----------166-------------90---------52

1911

Malaria -----2542----------------856----------582------------760----------715------------544-------408

Indigestion- 779-----------------70------------110------------568----------274-----------113---------64

Diarrhea------975----------------86------------82--------------93-----------148------------67---------53

1912

 

Malaria -----1608--------------1041----------375-------------976----------803-----------740--------333

Indigestion- -156----------------81-----------157-------------380-----------92------------229--------61

Diarrhea------437----------------118----------70--------------69------------110-----------118--------95

 

    बद्री दत्त पांडे ने यात्रा मार्ग (कुमाऊं से बद्रीनाथ ) के निम्न चिकित्सालयों का उल्लेख किया है ( कुमाऊं क इतिहस १९२३, पृष्ठ 143 -144 )-

अल्मोड़ा अस्पताल

अल्मोड़ा सदर अस्पताल

अल्मोड़ा जनाना अस्पताल

पि थौरागढ़

लोहाघाट

भीकियासैण - विशेषतः यात्रा मार्ग हेतु

गणाई - यात्रा हेतु

बैजनाथ जो चाय बगान हेतु शुरू हुआ था

बागेश्वर

  इसी तरह बैजनाथ , नैनीनाग , द्वारहाट , झूलाघाट , धारचूला , कपकोड , मनीला , जैंती , लमगड़ा , खेतीखान , देवलथल , मांसी , नैनीताल में भी अस्पताल खुल गए थे

  भंवासी  में क्षय चिकित्सालय खुल गया था यहां 150 रोगी रह सकते थे। तिबरी में जनाना सेनोटेरियम भी था।


 

Copyright @ Bhishma Kukreti  /64 //2018



 ब्रिटिश काल में यात्रा मार्ग पर चट्टी प्रबंध (काला लोगों द्वारा विशेष र्यटन प्रबंधन )

Chatti management  in British  Era
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  65

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  65               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--169)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 169

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

 बद्रिकाश्रम व केदारेश्वर यात्रा माह्भारत संकलन -सम्पादन काल से भी शस्त्र वर्ष पहले से चली आ रही हैं। इतने सालों तक ऋषिकेश -देवप्रयाग मोटर मार्ग बनने से पहले ऋषिकेश से बद्रीनाथ जाने का एक ही पैदल मार्ग था और वह था पौड़ी गढ़वाल में गंगा  तट का।  मार्ग।   सहस्त्रों वर्षों तक यही मार्ग बना रहा।  सहस्त्रों  सालों में पर्यटक सुविधा हेतु एक व्यवस्था निर्मित हुयी जिसे चट्टी व्यवस्था कहते हैं।  चट्टी शब्द द्रविड़ शब्द से बना शब्द है जिसका अर्थ है दुकान अथवा दुकानदारी।  चट्टी के मालिक को चट्टीवाला कहा जाता था।
  चट्टियां ऋषिकेश -बद्रीनाथ के मध्य , कर्णप्रयाग से  से पुनवाखाल कुमाऊं की और जाने वाले मार्ग व रुद्रप्रयाग से गंगोत्री -यमनोत्री -वाले मार्ग पर चार या तीन से चार मील के अंतराल में बनी थी. इससे पहाड़ी प्रदेश से अनभिज्ञ मैदानी यात्रियों को सुविधा सुलभ हो जाती थीं।
                  छट्टियों में चट्टी भवन
 यह एक आश्चर्य ही है कि अधिकतर चट्टियों में भवन या दुकाने एक जैसे ही बनाये जाते थे।  भवन चट्टी मालिक अपने धन से निर्मित करवाते थे।  भवन भूमि से दो फिट ऊँचे आधार पर बनवाये जाते थे। एक मंजिला भवन का बड़ा लम्बा कक्ष द्वार विहीन होता था जो मुख्य मार्ग की  ओर खुलता था। बरामदे के एक भाग में दुकान  कक्ष व दुकानदार हेतु शयन कक्ष होता था।  सर्दियों में भोजन पकाने हेतु एक चूल्हा भी होता था।  छतें या तो घासफूस या पत्थरों की होती थीं।  कुछ छतें पर चददरों की बनीं होते थे।
    दुकान से बाहर क्यारियां होती थीं। हर क्यारी के किनारे एक चौकी व चूल्हा होता था।  यात्री चट्टी दुकान से मन माफिक  खरीदकर अपना भोजन स्वयं बनाते थे।  चट्टी मालिक चूल्हों की आज लिपाई करता था। चट्टी  मालिक बर्तन ,शयन हेतु कपड़े , लकड़ी का प्रबंध करता था उसके लिए मूल्य निर्धारित थे।  मांश मदिरा सेवन चट्टियों में सर्वथा वर्जित था।  साधुओ के लिए भांग पीने की छूट थी।  चट्टी मालिक तम्बाकू का प्रबंध भी करता था।  हुक्के की छूट नहीं थी।  चट्टी मालिक चिलम रखते थे या पत्ती की चिलम बनाकर यात्रियों को देते थे। अनाज खरदने वाले यात्रियों से शयन व विस्तर मुफ्त था। शयन कीमत एक या दो आना प्रति रात था।
    यदि चट्टी गंगा किनारे हो तो मंदिर भी थे जैसे महादेव चट्टी , व्यासचट्टी आदि।  यदि कोई यात्री रुग्णावस्था में हो तो चट्टी मालिकपास के गाँवों से वैद्य  बुलाते थे।
      यदि किसी यात्री को   थी तो चट्टी मालिक डंडी , पिंस , डोला व घोड़ों की व्यवस्था भी करता था।
         बहुत से यात्री अपना सामान चट्टी में छोड़ आते थे व लौटते समय अपना सामान ले जाते थे।  गढ़वाली चट्टी मालिकों की ईमानदारी की कथाएं सारे भारत में प्रचलित थीं अतः यात्री गढ़वाल यात्रा में चोरी व डकैती से कभी भय नहीं खाते थे।  यात्री रात में भी बिना भी के यात्रा कर लेते थे। यात्रा मार्ग के आस पास के ग्रामीण भी यात्रियों का शोषण नहीं करते थे व समय पड़ने पर बिना शुल्क सहायता करते थे।
  ब्रिटिश शासन में कुछ अंतराल के बाद सरकार ने सफाई कर्मचारी नियुक्त किये जो चट्टियों में सफाई कार्य करते थे। 
 ब्रिटिश काल में निम्न चट्टियां कार्यरत थी।

             Chattis on Lakshmanjhula –Badrinath Road

  SN.    Chatti -----Distance---Shops, Nos- SN.    Chatti -----Distance---Shops, Nos

1-Lakshmanjhula------0--------13---------------2------Khairari--------2----------0

3-Fulvari-----------------2---------10--------------4-------Ghattugad-----2---------6

5-Nai Mohan (Chatti)- 3----------3---------------6----Chhoti Bijni-----1----------8

7-Bari Bijni-------------1 ----------8---------------8- Kund---------------3-----------3

9-Banderbhel----------3-------------7--------------10—Mhadev ---------1.5--------18

11- Simwal------------3.5-----------8---------------12--Am-----------------0.25------1

13- Kandi--------------2.5-----------5----------------14-Vyasghat-----------4.5-------10

15-Chhaluri--------------3------------3--------------------16—Umrasu-------------3----2

17—Saur----------------3--------------2-------------------18---Vah (devPrayag)---1---21

19—Ranibag-------------7--------------5------------------20-Rampur------------4-------15

21-Vilvakedar-----------4--------------3-----------------22—Shrinagar-------3---------Big Bazar

23—Sukarta-------------5---------------3-----------------24—Devalgadan ---1.5------1

25-Bhattisera------------1.3--------------7------------------26- Chhantikhal ----1--------1

27- Khankara------------  1 -------------8--------------------28- Narkot------------3 ------4

29- Gulabrai --------------2.5-----------2---------------30- Punar (Rudraprayag)- 1---12

31- Shivanandi -----------7--------------4---------------------32 Kamera ------------4---1

33- Chatwapipal----------5---------------6 ----------------------34Karnaprayag ----4----20

35- Kald--------------------1---------------1-------------------------36 Umta---------------1-----1

37- Jaikandi -------------2------------------1-------------------38- Uttaraul ------------0.25-----1

39- Langasu---------------2----------------4----------------------40- Biroligadhera------2-----------2

41-Sonla--------------------3----------------6-----------------------42- Nandprayag-------3-------24

43-Pursari-----------------1-------------------1----------------------44- Maithana ---------2--------7

45-Kuher----------------- 2--------------------3------------------46- Bayar------------------ 0------1

47- Chamoli--------------2------------------13------------------48-Math-------------------2-------5

49- Mathgadan------------0------------------3-------------------50-Chhinka--------------1-------4

51- Baunla------------------1-----------------6---------------------52-Siyasain-----------2----------7

53-Dhobighat--------------1----------------5--------------------54-Pipalkoti -----------2-----------24

55-Gauriganga--------------3--------------4----------------------56-Tangani--------------2.25-----5

57-Patalganga---------------2--------------7----------------------58- Gulabkoti------------2---------4

59-Helang (Kumarchatti)-2.25----------15---------------------60-Khanoti--------------2.25--------9

61-Jharkuli----------------1----------------2-----------------------62-Singdhara----------2-----------3

63-Chunar (Joshimath)-1-----------------4------------------------64-Vishnuprayag------1------------4

65-Chaldua-------------------------------1-------------------------66-Ghat—4---------------10

67-Nandkeshwar-----------------------3-------------------------68-Pandukeshwar---2----12

69-Bamanganv------------------------3----------------5--------70-Hanumanchatti---2--------5

71- Badrinath --------------------4.25----------------5

Mana ?

 

  The following Chattis (Staying places for Pilgrims) on Rudraprayag to Kedarnath rout-

SN- Chatti---------Distance----Nos Shop------SN. Chatti-----------Distance ------Nos. Shop

72-Rudraprayag------------0----------4--------------73-Chhatoli---------6 ----------------7

74-Tilwara------------------0------------1-------------75-Math------------2------------------1

76- Rampur- ---------------2------------7------------77-Agustmuni ----3-------------------8

78-Sauri--------------------2--------------4------------79-Kunjgarh/Chandrapuri---2-------12

80-Bhiri------------------3----------------10-----------81-Kund-----------4-------------------5

82-Guptkashi-----------2-----------------10--------------83-Nala ---------1-------------------3

84-Bhet------------------1-----------------8------------------85—Kantva-----2-----------------7

86- Malla----------------0.2--------------2------------------87—Fata ---------3---------------16

88-Badasu--------------2-----------------4-------------------89- Badalpur-------1-------------6

90- Rampur------------2------------------16-----------------91- Trijugi-----------5-----------10

92-Gaurikund----------5-------------------15----------------93- Chirpatiya Bhairav—2--------4

94- Ramwara ------------2---------------- 15----------------95—Kedarnath --------4-----------10

                            *Distance in miles, mile=1.6 kilo meter

 

Pilgrims used to visit Badrinath from Kedarnath too through Guptakashi to Chamoli . The following Chattis were there from Guptakashi to Chamoli rout-

SN- Chatti---------Distance----Nos Shop------SN. Chatti-----------Distance ------Nos. Shop

96-Nala---------------0--------------3---------------97- Ukhimath----------2.5------------10

98-Kanath--------------3-------------10--------------99-Gwali Bagar----------2------------5

100-Gaira----------------1--------------3-------------101-Godh-------------------0------------1

102- Vyas-----------------0---------------2------------103-Pothivasa------------2-----------12

104-DogliBheent ----------1.5-----------1---------------105-Baniya Kund------0.5-------4

106-Chopta------------------1--------------7--------------107-Jhunkana------------3----------8

108-Bhinodiya--------------1---------------3---------------109-Pangarvasa---------4----------6

110-Mandal-----------------4-------------21 (?)--------------111-Bairagana------------2-----------1

112-Nirau------------------0.5-----------------2----------------113- Kholti-------------0.5----------3

114-Sentuna-----------------1------------------5-----------------115- Gopeshwar----------2----------5

116-Kotiyal Ganv --------2------------------2--------------------117- Chamoli -----------1----------14

 

     

Pilgrims used to go towards east (through Almora ) from Badrinath to Panuvakhal (last Chatti in Garhwal) via Karnaprayag . The following Chattis were there from  Karnaprayag to Panuvakhal  rout-

SN- Chatti---------Distance----Nos Shop------SN. Chatti-----------Distance ------Nos. Shop

118-Karnaprayag ------0-------------20-----------119- Puli -----------------------------1

120- Ram- --------------0---------------1----------121- Simali--------------4------------12

122-Siroli-----------------2--------------8-----------123-Bharoli------------2-------------7

124-Pipal--------------------------------1-------------125-Adibadari---------4-----------16

126-Kheti---------------9---------------5-------------127-Jangalchatti--------2------------11

128-Devali--------------2---------------4-------------129----Genthabanj------0.5----------2

130-Kalamati-----------1.25-----------2--------------131-Basiyagad---------0.25----------3

132-Gwargadan---------1.50-----------1---------------133- Chunarghat-------1.25---------10

133-Isai Chatti-----------1.25-----------3---------------135—Sainja---------------1--------2

135-Melgwar --------------0.25----------2-----------------137-Agarpanwar ki dukan –0.25—1

137- Mehalchaunri --------1.50----------5----------------139-Punavakhal----3-----------3

Punvakhal was last Chatti for entering into Kumaon .

 In Kumaon, there were 42 Chattis between Punavakhal and Ramnagar.

 कुमाऊं में 42 चट्टियां थीं
                      *Distance in miles, mile=1.6 kilo meter


            सुमाड़ी के कालाओं का विशेष प्रबंधन

  श्रीनगर के पास कालाओं का गाँव है सुमाड़ी।  कुणिंद शासन के कुणिंद मुद्राओं के सुमाड़ी व भैड़ गाँव (दोनों काला जाति गाँव ) में मिलने से अनुमान लगता है कि काला गढ़वाल में सातवीं आठवीं सदी में बस गए थे किन्तु उन्हें पंवार वंशी राजाओं के यहां कोई बड़ा पद नहीं मिला था।
               कला लोगों का  प्रबंधन में
   काला लोगों का चट्टी प्रबंधन अभिनव था।  उस समय चाय प्रचलन  हुआ था तो यात्रयों हेतु त्वरित ऊर्जा हेतु कोई पेय उपलब्ध न था।  चूँकि अधिकतर यात्रा ग्रीष्म ऋतू में होतीं थी तो दूध रखना संबंद्व न था।  जबकि दूध की बड़ी मांग थी।
          कला लोगों की श्रीनगर से नंद प्रयाग तक चट्टियां थीं।  सुमाड़ी के काला यात्रा सीजन शुरू होने से पहले दुधारू भैंस चट्टियों में ही ले जाते थे।  यात्रियों को ताजा दूध मिलने से श्रीनगर से नंद प्रयाग की चट्टियों का नाम भारत के कोने कोने में विशेष छवि बन गयी थी जिसका जिक्र आदम ने रिपोर्ट ऑन पिलग्रिम रुट किया है।  एक अन्य आश्चर्य यह भी है कि यद्द्यपि यात्रियों की दूध हेतु बड़ी मांग थी किन्तु कालाओं   को छोड़ अन्य लोग चट्टियों में भैंस नहीं रखते थे कालाओं में बहुत से वैद व  तो वैदकी भी कर लेते थे।
    ब्रिटिश शासन ने आदम को यात्रा मार्ग में सुधार हेतु रिपोर्ट बनाने आदेश दिया और आदम ने चट्टी प्रबंधन को सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था करार दिया तथा लिखा कि  गढ़वाल में किसी सुधार की आवश्यकता ही नहीं है । सुरक्षा , यात्रा  सुविधा  प्रबंधन ही तो पर्यटन प्रवंधन है जो चट्टी मालिक करते थे.
           बाबा   काली कमली वालों का योगदान
 बाबा कमली वालों की धर्मशालाओं व औषधालयों का गढ़वाल पर्यटन में बड़ा योगदान है। 
 

Copyright @ Bhishma Kukreti  7/4 //2018

टिहरी रियासत में पर्यटन तंत्र  भाग -1

 Laws for Tourism Development in Tehri Riyasat
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -66

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  66               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--170)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 170

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  टिहरी रियासत  काल 1816 -1948 तक को अधिकतर जन शोषण काल माना जाता है किन्तु टिहरी रियासत काल में सुचारु उत्तराखंड पर्यटन हेतु कई पग भी उठाये गए थे।

                मोटर मार्ग

1937 -38 में ऋषिकेश से देवप्रयाग मोटर मार्ग निर्मित हुआ पीछे इस मार्ग का  कीर्तिनगर तक विस्तार विटार किया गया
   1921 में ऋषिकेश से नरेंद्र नगर मोटर मार्ग का कार्य प्रारम्भ हुआ पीछे मोटर मार्ग टिहरी तक पंहुचाया गया।
     मानवेन्द्र शाह काल में टिहरी से धरासू तक मोटर मार्ग निर्मित हुआ।
            1940 में टिहरी रियासत में निम्न मुख्य मार्ग थे -
ऋषिकेश नरेंद्र नगर मोटर मार्ग-53 मील
ऋषिकेश देवप्रयाग -कीर्तिनगर मोटर मार्ग -63 मील
 टिहरी मसूरी अश्व मार्ग -40 मील
 अन्य कच्ची सड़कें 844 मील
             राज्य बंगले
टिहरी रियासत के राजकीय बंगले - कौड़िया , धनोल्टी , पौ , डांगचौरा , धरासू , नाकुरी  बड़ाहाट , भटवाड़ी , हरसिल , जांगला , देवलसारी , मगरा , बड़कोट ,पुरोला , बडियार , फाकोट , नागणी , चमुवा , टिहरी , प्रता

Bhishma Kukreti

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  यात्रियों हेतु मनोरंजन साधन

( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -84

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -   84             

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--187)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -187

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  ढाकरियों के मनोरंजन साधन
पर्यटन कोई भी हो पर्यटकों को समय काटने या दिल बहलाने हेतु मनोरंजन आवश्यक होता है।

   यात्रा या पर्यटन दो प्रकार का होता है - 1 -बाह्य पर्यटन जहां बाहर के यात्री यात्रा करते हैं और 2 -आंतरिक यात्रा जहां निवासी अपने ही क्षेत्र में यात्रा करते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में आंतरिक पर्यटन अधिकतर 'ढाकर ' लाने हेतु होता था।  ढाकर का अर्थ है मुख्य मैदानी बजार से गृह उपयोगी वस्तुओं का ढोकर लाना।  विभिन्न क्षेत्रों से ब्रिटिश गढ़वाल के लोग या ढाकरी  नजीबाबाद , कोटद्वार व दुगड्डा पंहुचते थे।  ब्रिटिश काल में दुग्गड़ा प्रमुख मंडी बन गयी थी व मल्ला -तल्ला सलाण के लोग रामनगर जाते थे।  मनियारस्यूं से उत्तरी भाग वाले बांघाट होते हुए , द्वारीखाल डाडा मंडी होते हुए दुग्गडा पंहुचते थे। ढाकरी  बीच बीच में रात्रि विश्राम लेते थे और विश्राम स्थल पारम्परिक होते थे।  इन विश्राम स्थलों में ढाकरी स्वयं ढुंगळे बनाते थे व अधिकतर नमक मिर्च, कच्चा प्याज या यदि तरकारी उपलब्ध हो तो तरकारी के साथ खाते थे।डा डबराल ने लिखा है कि यात्रा में यात्री सत्तू  व घुइयाँ की सब्जी बनाते थे। ढाकरी भोजन पर अनावश्यक व्यय नहीं करते थे।
   टिहरी गढ़वाल के लोग ऋषिकेश ढाकर हेतु आते थे।
      रात्रि में ढाकरी विश्राम स्थल पर स्व रचित स्वांग (नाटक ) खेलते थे।  लोकगीत गाते थे , मैणा (पहेलियाँ ) बुझाते थे व कहावतों व लोककथाओं का आदान प्रदान करते थे।  ढाकरियों मध्य, गायक  गपोड़ी या हास्य रचियिता की बड़ी मांग होती थी।  घडेळा के जागर भी गाये जाते थे। डाडा मंडी व बांघाट जैसे मंडी में बादी  बादण भी आया जाया करते थे और इनाम के ऐवज में नाच गान करते थे। कोटद्वार में हुड़क्या , मिरासी भी यह काम करते थे। इन मंडियों में बाक्की -पुछेर भी अवश्य पंहुचते ही होंगे। ब्रिटिश काल में दुगड्डा आदि वैश्योओं के लिए भी प्रसिद्ध हो गए थे।
                  हरिद्वार -ऋषिकेश में तीर्थ यात्रियों के मनोरंजन साधन
  हरिद्वार -ऋषिकेश व झंडा मुहल्ला देहरादून ब्रिटिश काल में तीर्थस्थल ही नहीं वाणिज्य स्थल  भी बन चुके थे तो तीर्थ यात्रियों के लिए व्यापारी  कई मनोरंजन के साधन जुटाते थे जैसे चरखी , जादू टोना।  इन स्थलों पर नर्तक नर्तिकाएँ भी आते थे।
 हरिद्वार ऋषिकेश में अखाड़ा आदि में भजन कीर्तन व साधुओं के प्रवचन चलते रहते थे।  तीर्थ यात्री सैर सपाटा भी कर लेते थे।  हरिद्वार ऋषिकेश में शुरू से ही राजा महाराजा व धनी  वर्ग अपने लाव लशखर के साथ आते थे तो तीर्थ यात्रिओं को उनके लाव लश्कर (घोड़े , सैनिक आदि ) देखने का अवसर भी मिलता था । व्यापारी सामयिक मनोरंजन साधन जुटाते रहते थे। घडेळा -तंत्र मंत्र तो आज भी प्रचलित हैं ही।  मंदिरों में आरती भी चलती रहती थी।
नट नाटियों का खेल सदा से ही यात्रियों को लुभाता आया है।
 हरिद्वार में शायद प्रोजेक्टर से सिनेमा दिखाने का भी रिवाज रहा होगा। देहरादून में सिनेमा प्रसिद्ध थे।
    गैर हिन्दू साधुओं द्वारा प्रवचन
 हरिद्वार बौद्ध युग में भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थल था और मेलों के समय भीड़ लाभ लेने बौद्ध विद्वान् प्रवचन देने आते थे।  बौद्ध साहित्य में हरिद्वार में अहोगंग स्थान बहुत प्रसिद्ध स्थान माना गया है।  गुरु नानक ने भी हरिद्वार में प्रवचन दिया था व लोगों ने प्रवचन सुना था।
    हरिद्वार में मिसनरी पादरी भी प्रवचन देने आते रहते थे और  बड़ी भीड़ इन प्रवचनों को सुनती थी।

              चट्टियों में मनोरंजन साधन
         
      हरिद्वार -ऋषिकेश से बद्रीनाथ  यात्रा वर्णन सर्व प्रथम हमे पुर्तगाली पादरी अंद्रादे अंतिनो (1580 -16 34 ) की पुर्तगाली भाषा में लिखी आत्मकथा (1624 ) में मिलता है।  पादरी अंतिनो पहले यूरोपियन यात्री है जो गढ़वाल होते हुए तिबत पंहुचा था (1624 ) । अंतिनो गोवा से आगरा , दिल्ली होते हुए  हरिद्वार पंहुचा था और फिर बद्रीनाथ तीर्थ यात्रियों के साथ श्रीनगर होते हुए माणा पंहुचा था।  अंतिनों ने अपनी यात्रा वर्णन में ऋषिकेश से श्रीनगर -माणा मारहग की कठिनाईयों का वर्णन है किन्तु इस लेखक को तीर्थ यात्रियों के मनोरजन के बारे में अंतिनो के अनुभव न मिल सके।
    ब्रिटिश अधिकारी आदम ने 'रिपोर्ट ऑन पिलग्रिम रोड्स ' में  ऋषिकेश से बद्रीनाथ यात्रियों की सुविधाओं का वर्णन किया और चट्टी प्रबंधन की भुरू भूरी प्रशंसा की।
       यद्यपि यात्रियों के मनोरंजन पर अधिक नहीं लिखा गया किन्तु अनुमान लगाया जा सकता है कि तीर्थ यात्रिओं के लिए निम्न मनोरंजन साधन उपलब्ध थे -
कथा वाचक - यात्री अधिकतर समूह में आते थे और कई समूह अपने साथ कथा वाचक लाते थे जो रात्रि विश्राम स्थल पर कथाएं सुनाते थे।  देव प्रयाग के पंडे भी स्थानीय कथा वाचकों का प्रबंध करते थे।
मंदिरों में भजन कीर्तन चलते थे और यात्री इन भजनों में सम्मलित होते थे।
भजन कीर्तन - रात्रि विश्राम के वक्त यात्री सामूहिक भजन कीर्तन करते थे। समूह एक भाषी होते थे तो अपनी भाषा के गीत आदि गाकर या लोककथाएं या गाथाएं सुनकर अपना मनोरंजन करते थे।
गपोड़ी यात्री -  हर समूह में गपोड़ी यात्री मिल ही जाते हैं जो समूह का भरपूर मनोरंजन करते हैं। अंताक्षरी   पहेलियाँ बुझाना खेल    तो भारत के प्राचीन  रहे हैं तो  इन   आंतरिक खेलों  अवश्य  करते ही मनोरंजन करते रहे होंगे।
गीतकार - समूह में कोई न कोई गीत भी सुनाता था।

  बड़ी चट्टियों पर गढ़वाली बादी बादणों  द्वारा मनोरंजन

 बड़ी चट्टियों पर सदा कुछ न कुछ धार्मिक कार्यकर्म या मेला , अनुष्ठान नियोजित होते ही रहते थे। ऐसे समय गढ़वाली बादी बादण इन चट्टियों में आ जाते थे और यात्रियों का मनोरंजन करते थे।
घडेळा - इन चट्टियों में स्थानीय लोग घडेळा  भी रखवाते थे और इस तरह यात्री उन घडेळों  से आनंद उठाते थे। सन 1965 में यह लेखक व्यासचट्टी बैसाखी मेले में गया था तो उसने एक मराठी तीर्थ यात्री समूह को घडेळा का आनंद लेते देखा था।  उस समय बहुत से यात्री पैदल यात्रा भी करते पाए जाते थे। सरौं नर्तक तो इन चट्टियों में अपना प्रदर्शन करते ही रहते थे।
प्रवचन - किसी साधी दवारा प्रवचन तो आम बात थी।
जादू टोना - जादू दिखाने वाले भी इन चट्टियों में पंहुच ही जाते थे।
  ब्रिटिश काल में व्यापारी इन चट्टियों में मनोरंजन साधन जुटाने लगे थे।
 बायस्कोप - बायोस्कोप दिखने का रिवाज भी शुरू हो गया था।
 मेलों में तीर्थ यात्री पंडो नृत्य से भी यात्री लाभ उठाते थे।
बांसुरी विक्रेता या डमरू विक्रेता बांसुरी बजाकर या डमरू बजाकर यात्रियों का मनोरजन करते थे।

 समय समय पर मनोरंजन माध्यम बदलते रहे होंगे।  ब्रिटिश कल में अवश्य ही नए मनोरंजन माध्यम अवतरित हुए तो बहुत से मनोरजन नए प्रचलित भी हुए।




Copyright @ Bhishma Kukreti  25/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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  जब यू  . पी   . कौंसिल को कुमाऊं काउन्सिल कहा जाने लगा था

 Diplomacy or Political Class playing role in place branding
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  =85

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  - 85                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--188)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -188

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

     स्थान छविकरण एक दिन में पैदा नहीं होती है ना ही केवल एक अवयव स्थान छवि हेतु पर्याप्त है।  कई छवियों से स्थान छविकरण संभावित ग्राहकों के मन छवि बनाते हैं।  स्थान छविकरण प्लेस ब्रैंडिंग में राजनीति , कूटनीति व राजनायकों के व्यवहार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  यदि उत्तर प्रदेश , बिहार और यहां तक कि उत्तराखंड में उद्यम नहीं लग रहे हैं तो उसके पीछे केवल बंदरगाह दूर हैं कारण नहीं हैं अपितु उत्तर प्रदेश , बिहार और उत्तराखंड के राजनीतिज्ञों व सरकारी प्रशासकों की बुरी छवि  उद्योग विकास में सबसे अधिक बाधक है। हिमाचल की छवि उद्योग खोलने में उत्तराखंड से कहीं अधिक सकारात्मक है।  मुंबई में उद्योग जगत में धारणा है कि हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड के नेता व प्रशासक अधिक खाऊ हैं और खाकर काम भी नहीं करते हैं।  धारणा व सत्य में जमीन आस्मां का अंतर् होता है।
     पर्यटन कोई भी हो धार्मिक पर्यटन हो , रोमच  पर्यटन हो रोमांस पर्यटन हो या हो मेडिकल पर्यटन सभी में स्थान छवि आवश्यक होती है। सभी पर्यटन ब्रैंडिंग में कूटनीति व राजनायकों के कार्यकलाप बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं।  सकारात्मक छवि हेतु स्थानीय राजनायकों की चव्वी महत्वपूर्ण होती है।   एक उदाहरण है मैं जब बलावस्था या यवावस्था में था तो समाचार पत्र व पत्रिकाओं में मार्शल टीटो के बारे में व नासिर के बारे में पढ़ता रहता था।  युगोस्लाविया के शासक टीटो व मिश्र के नेता नासिर का नाम बहुत बार आता था। मार्शल  टीटो के कारण मुझे युगोस्लेविया के बारे में उत्सुकता रहती थी कि यह देश कैसा है , यहां के लोग कैसी हैं आदि आदि।  मिश्र की छवि तो मन में थी किन्तु नासिर के कारण मिश्र को जानने की अधिक इच्छा पैदा होती गयी।  यहां तक कि मैंने मिश्र की लोककथाओं का गढ़वाली में अनुवाद भी किया और इंटरनेट में पोस्ट भी कीं।  युगोस्लेविया साहित्य भी पढ़ा केवल मार्शल टीटो के कारण। 
      संक्षिप्त में कहें तो राजनीति , कूटनीति व राजनायक अवश्य ही स्थान छवि हेतु महत्वपूर्ण हैं।
    उत्तराखंड भाग्यशाली है कि  ब्रिटिश काल में जन्मे कई राजनीतिज्ञों ने उत्तराखंड की छवि वर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
           कॉंग्रेस आंदोलन के प्रारम्भिक दिनों में ब्रिटिश सरकार ने प्रोविंसियल काउन्सिल व सेंट्रल कौंसिल की स्थापना कर ली थी जिसमे चुने हुए सदस्य होते थे।  तब कुमाऊं डिवीजन यूनाइटेड प्रोविंस का अहम भाग होता था।  प्रोविंस काउन्सिल में कुमाऊं डिवीजन से तीन सदस्य चुनाव से आते थे - नैनीताल व अल्मोड़ा से एक एक व गढ़वाल से एक।
      द्वितीय प्रोविंसियल काउन्सिल का चुनाव 1923 में हुआ और नैनीताल से गोविन्द बल्ल्भ पंत , अल्मोड़ा से हरगोविंद पंत व गढ़वाल से मुकंदी लाल बैरिस्टर स्वराज्य पार्टी के टिकट पर चुनाव जित कर आये।  तीनों नेता सामाजिक आंदोलन (कुली बेगार आदि ) से तपे नेता थे व सामाजिक सरकार में संलग्न रहते थे।  मुकंदी लाल तो ब्रिटेन में ही स्वतन्त्रता आंदोलन कार्यों की सहायता व गढ़वाल पेंटिंग के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे।
   द्वितीय काउन्सिल का अधिवेशन 14 दिसंबर 1925 में शुरू हुआ।  इस अधिवेशन में हरगोविंद पंत ने एक प्रस्ताव पेश किया कि  कुमाऊं न्याय को कमिश्नर के अंतर्गत नहीं अपितु उच्च न्यायालय के अंतर्गत रखा जाय।  गोविन्द बल्ल्भ पंत ने खोजपूर्ण व सारगर्भित भाषण दिया और काउन्सिल सदस्यों को प्रभावित किया।
 काउन्सिल में तीनो सदस्य सक्रिय रहते थे। वे जनता की समस्याओं को कौंसिल में उठाते थे और आवश्यकता पड़ने पर सरकार विरुद्ध स्थगन प्रस्ताव ला देते थे जैसे पूर्व में राजयसभा में स्थगन प्रस्ताव कम्युनिस्ट पार्टी ला देती थी।  तीनों मूल प्रश्न पूछते थे व पूरक प्रश्न भी पूछते थे।  उनके हर प्रश्न में समाज अग्रणी होता था।  इन तीनों की सक्रियता से सरकार तंग रहती थी।  एक बार तो वित्त सदस्य इतने नाराज हुए कि  कह बैठे ," काउन्सिल केवल कुमाऊं क्षेत्र के लिए ही नहीं है " (शंभु प्रसाद शाह , गोविन्द बल्ल्भ पंत -एक जीवनी पृष्ठ 83 )
      मुकंदीलाल की विद्वता व न्यायप्रियता के कारण उन्हें काउन्सिल का उपाध्यक्ष चुना गया व वे तीसरी काउन्सिल के भी उपध्यक्ष 1930 तक कार्यरत रहे
      सरकारी वित्त सदस्य का कथन - ," काउन्सिल केवल कुमाऊं क्षेत्र के लिए ही नहीं है "  वास्तव में इन तीनों राजनायकों की क्षेत्रीय आवाज बुलंदी की ही प्रशंसा है। इस कथन से साबित होता है कि यूनाइटेड प्रोविंस में इन तीनों के कारण कुमाऊं की प्रसिद्धि में सकारात्मक वृद्धि हुयी।
      ततपशचात कई राजनायकों जैसे महावीर प्रसाद त्यागी आदि ने भी उत्तराखंड स्थान छवि वर्धन में अपना योगदान दिया।  देहरादून में ओएनजीसी , आईआईपी जैसे संस्थानों को देहरादून लाने में महावीर प्रसाद त्यागी का योगदान अतुलनीय है। 
   राजनायकों की प्रसिद्धी स्थान छवि हेतु एक आवश्यक अवयव है।  आज के राजनायकों को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि लोकसभा या राजसभा के उनके कार्यकलाप उत्तराखंड छवि हेतु महत्वपूर्ण हैं। 



Copyright @ Bhishma Kukreti 26 /4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6


Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में मृदा चिकित्सा के कुछ उदाहरण

Link of Mud Therapy in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -86

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -86                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--189)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -189

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  पारम्परिक भारतीय चिकित्सा में आहार चिकित्सा , जल चिकित्सा , नीन पेट व्रत चिकित्सा , औषधि चिकित्सा व मृदा चिकित्सा मुख्य चिकित्सा वर्ग हैं।
   उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र व मैदानी क्षेत्र कृषि प्रधान क्षेत्र रहे हैं तो मनुष्यों को तकरीबन हर दिन मिट्टी के सम्पर्क में रहना होता है तो  मिट्टी से चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं मिलते हैं किन्तु मृदा चिकित्सा के कुछ सूत -लिंक अवश्य मिलते हैं। रुपायी  , गुड़ाई आदि में स्वयमे मृदा चिकित्सा हो जाती है। मिट्टी  पत्थर के घर में स्वास्थ्य व सुरक्षा अंतर्हित थी। लिपाई में लाल मिट्टी का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी था।मिट्टी से बर्तन धोने व सूचि हेतु मिट्टी से हाथ धोने के पीछे मिट्टी का महवत्व झलकता ही है।
 चाहे अनचाहे अनाज में मिट्टी गार मिलते ही थे और लाभकारी या हानिकारक खनिज मिलता ही था।
     प्राचीन साहित्य में उत्तराखंड के चींटियों या दीमकों द्वारा निकाला गये स्वर्ण चूर्ण की अन्य क्षेत्रों में बड़ी मांग थी।  शायद यह स्वर्ण चूर्ण औषधि अदि में प्रयोग होता होगा।
    अपघात में कई बार अंग कट जाता है और बड़ा घाव होने पर तो पहले जब चिकित्सालय नहीं थे तो घाव  पर पेशाब कर चिपुड़ माटु या चिकनी मिटटी का लेप लगा लेते थे।  कुछ समय पहले भी बड़े घाव पर चिपुड़ माटु लगाकर दुखियारे को चिकित्सालय ले जाया जाता था।  अब प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध हो गयी हैं जैसे डिटोल या शराब  डालकर बैक्ट्रिया वाइरस प्रसारण रोका जाता है।
  कुछ जानकार वैद दीमक या चींटियोँ द्वारा निकाली मिट्टी का औषधि में उपयोग करते थे शायद हड्डी के इलाज हेतु  कम्यड़ को औषधि में मिलाने का भी रिवाज था।
   गेरू को पीसकर औषधि मिश्रण तैयार किया जाता था।  कभी कभी वैद त्वचा रोग में गेरू की पीसी मिट्टी लेप का भी सलाह देते थे।
     मैंने कई बड़े बूढ़ों को मिट्टी व रेत को शरीर पर रगड़ कर नहाते देखा है और ये बुजुर्ग साबुन को बुरा मानते थे पर माट रगड़ने को स्वास्थ्य वर्धक मानते थे।
      दाद -खुजली में विशेष स्थान की चिपुड़ मिट्टी  का लेप सामन्य बात थी जो शायद सन साठ तक भी चलता था।
        पैर  फटने पर कमेड़ा का लेप भी सामन्य बात थी। जूं मारने के लिए कभी कभी सिर्प्वळ के साथ कमेड़ा भी प्रयोग करते थे।
     मुल्तानी मिट्टी का आयात कुछ नहीं अपितु चिकित्सा तंत्र का एक अंग था।  तिबत का नमक वास्तव में खनिज था जो पहाड़ खोदकर निकला जाता था।  राजस्थान के पहाड़ खोदकर निकाला नमक भी खनिज ही है। काला नमक आज भी शहरों में भी प्रचलित है।
      पशुओं के कई रोग निदान में मिट्टी का उपयोग होता था विशेषतः खुरपका में मवेशियों के खुरों पर चिपुड़ मिट्टी का लेप किया जाता था। कीचड़ में मिट्टी का तेल डालकर उस पर मवेशियों को चलाना भी मृदा चिकित्सा ही थी।
      गंगा तट पर रेत में लेटना या गड्ढे बनाकर उसमे रहना जोगियों के लिए नित्य कर्म था। 

 उत्तराखंड में रेत के अंदर लेटना या मृदा चिकित्सा उद्यम के  अच्छे अवसर हैं।  विभिन्न स्थानों के चिपुड़ मिट्टी की रसायनिक जांच भी आवश्यक है ही।
   
   
 
   


Copyright @ Bhishma Kukreti  27/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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 उत्तराखंड में राख या भष्म चिकित्सा
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 Ash or Bhshma Therapy in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -87

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -   87               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--190)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -190

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

    राख वास्तव में गैस चूल्हों  या इलेक्ट्रिक चूल्हों के आने से पहले मानव एन प्रकारेण सेवन करता आया था। राख या भस्म में उस लकड़ी के खनिज व अन्य अवयव होते है तो मनुष्य अपरोक्ष रूप से जिस वनस्पति की लकड़ी होती है उस वनस्पति के अवयव प्राप्त कर लेता है। रोटी सकते ते समय या अन्य वनस्पति भूनते वक्त भोज्य पदार्थ पर  पर भस्म रह जाता है जिसे हम निगल लेते हैं।
   उत्तराखंड में भस्म दो प्रकार से चिकित्सा में पयोग होती थी -
अ -पारम्परिक या साधारण जनता द्वारा भस्म प्रयोग
ब -आयुर्वेद वैद्यों द्वारा भस्म का औषधि में उपयोग या भस्म औषधि।
                   पारम्परिक रूप से भस्म  प्रयोग
रख का उपयोग आम जनता कई रूप में करती है
      गर्म भस्म प्रयोग
  पेट दर्द , सूजन , मोच -लछम्वड़ आदि में गरम राख का लेप या गरम राख को रखकर चिकित्सा की जाती थी। बच्चों के या अन्यों के पेट फूलने  की अवस्था में पेट पर गरम भस्म रग्गड़ा जाता था।
   राख में बैक्ट्रिया , वाइरस  प्रसारण रोकने की शक्ति होती है तो मवेशियों के घाव व खरपुका बीमारी में खुर के अंदर ठंडी भस्म  का लेप ब्रिटिश काल में भी किया जाता था। कई घावों में अनुभवी राख बुरकतने की भी सलाह देते थे।
 जब कोई अति ठंड में  घर आता है तो गरम राख से पैरों का सेकन करता था। हाँ चूल्हे में पैर रखना पाप माना जाता था।
    गाँवों में अनुभवी भी होते थे जो कई वनस्पति जलाकर उस भस्म को रोगियों को देते थे जैसे नीम भस्म , प्याज भस्म आदि।  घाव या फटने की दशा में जो वैद नही होते थे पर जड़ी बूटी के अनुभवी होते थे वे विशेष वनस्पति को जलाकर उस भस्म का  लेप घाव व फ़टे स्थान पर लगते थे। मस्से या बबासीर आदि उपचार में विज्ञ वैद भी और अनुभवी कुछ भस्म उपयोग करते थे।
       कृषि में भस्म उपयोग
  खेतों में खर पतवार पैदा होना आम बात है।  किन्तु खेतों में वे ही खर पतवार उगते हैं जिनके खनिज की आवश्यकता उस भूमि को है।  इसलिए खर पतवार को जलाकर राख द्वारा भूमि को आवश्यक खनिज मिल जाता है।  अलिखित नियम है कि एक खेत के खर पतवार दूसरे खेत में न जलाए जायं या बाह्य घास न जलाये जायं।  घर की राख को खेतों में न डालना  भी सही था। घर की राख में कोई अनावश्यक खनिज हो सकते हैं जो उस भूमि को नहीं चाहिए । यह वैज्ञानिक सोच जनता को अनुभव से ही प्राप्त हुयी थी। आड़ जलाए हुए राख कई कीड़े  मकोड़ों को भी नष्ट करती है है।

    बीजों को राख में सुरक्षित रखना
बीजों को कीड़ों , फफूंदी आदि के बचाव हेतु  पितक  में रखने का प्रचलन था व सबसे ऊपर राख रख दिया जाता था और राख बीजों को कीड़ों , बैक्ट्रिया , फफूंदी आदि से बचाने में कामयाब होती थी।
 
  सफाई में भस्म उपयोग
जहां विष्ठा या गंदगी आदि होती थी उसके ऊपर  राख डालना एक सही  वैज्ञानिक क्रिया है।  राख विष्ठा के हानिकारक सूक्ष्म जीवियों को मार देती है व मक्खी , कीड़ों को पनपने से रोकती है। जिन रोगियों को घर में टट्टी करनी पड़ती थी उन्हें राख भरी अंगेठी में शंका निदान कराया जाता था व यह अवैज्ञानिक तरीका नहीं था।
  विष्ठा उपरान्त राख से हाथ धोना भी लाभकारी ही था।
   बर्तन आदि की सफाई राख से होती थी वह भी सही था।
कई बार कई लोग जिन्हे त्वचा रोग होता था वे राख को शरीर पर मलकर स्नान करते थे .

      कपड़ों की सफाई
  जब तक कपड़े धोने के साबुन का प्रचलन नहीं हुआ था तब तक मोठे कपड़े राख व रीठे से ही धोये जाते थे। कपड़ों को राख के साथ उबाला जाता था।

      तंत्र मंत्र में राख का महत्व
तंत्र मंत्र याने मानसिक चिकत्सा में भी राख उपयोग आज भी होता है , रंगुड़ मंत्र कर बहुत प्रेत , पिचास भगाने का कर्मकांड आज भी गाँवों  में ही नहीं मुंबई के  उत्तराखंडियों में प्रचलित है। मन्त्रित राख सिरहाने रखने का प्रचलन मुंबई में भी है। मन्त्रित भस्म को माथे पर लगाने का प्रचलन सभी स्थानो में है।
   वैष्णवी कर्मकांड में राख महत्व
  लगभग सभी कर्मकांडों में हवन , अग्निहोत्र किया ही जाता है और हवन की राख को माथे पर लगाना रख चिकित्सा को महत्व देना ही है।
       नागा साधुओं द्वारा भस्म लेपन
नंगे साधू पूरे शरीर में भस्म लगाकर शीत  -ताप को झेलने में सक्षम होते हैं और ये साधू बद्रीनाथ -केदारनाथ जैसे स्थानॉन में भी सहित में सही सलामत रहते हैं।
    आयुर्वेद में भस्म औषधि
ब्रिटिश काल में मुल्तान , हरिद्वार आदि स्थान आयुर्वेद औषधि निर्माण में प्रसिद्ध हो चुके थे तो उत्तराखंडियों को पता नहीं है कि  कुमाऊं -गढ़वाल के वैद्य भस्म क्रिया से औषधि बनाते थे।  ब्रिटिश काल में बनी बनाई भस्म औषधि उपलब्ध हो जाने से गढ़वाल -कुमाऊं के वैद्यों ने घरों में भष्म औषधि निर्माण बंद कर दिया था।  किन्तु पहले आयुर्वेद विज्ञ लोहारों व सुनारों की सहायता से भस्म औषधि निर्मित करते थे।  भस्म औषधि वास्तव में शरीर में क्षार वृद्धि करती हैंव अधिक लवण शक्ति को लघु करती हैं ,
     भस्म औषधि निर्माण में धातु metal  को गलाकार उसके साथ वनस्पति औषधि मिश्रण करते थे।  इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि लोहार सुनार इन प्रक्रियाओं में वैद्यों का साथ देते थे।
    भस्म औषधि में रत्न व धातुओं को छाछ आदि से शुद्धकर फिर गलाया जाता है और मारन (धतु के धातु गन समाप्ति ); चालन जैसे नीम की डंठल से भस्म बनाना , चलन (फेंटना ); धवन (धुलाई ); छनन (छानने ); पुत्तन (प्रज्वलन ) जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं होती है।  फिर इस कच्चे माल को पीसकर  जड़ी बूटियों के आरक ला लेप किया जाता है व विषहरण के बाद संरक्षित किया जाता है।  भस्म औषधि किए प्रकार की होती हैं व उनके नाम कच्चे अवयव  (धातु , कनीज , वनस्पति , रत्न ) अनुसार दिए जाते हैं जैसे स्वर्ण भस्म लौह भस्म , यशद (नीम ) भस्म आदि।
 चूँकि भस्म निर्माण जटिल प्रक्रिया है तो प्रत्येक वैद्य इन कामों को नहीं करते थे व विशेष विज्ञ वैद्य ही भस्म निर्माण करते थे।
   गढ़वाल -कुमाऊं में भस्म निर्माण शिक्षा पारम्परिक ढंग से पीढ़ी दर पीढ़ी दी जाती थी।
    विष निर्माण
धातु भस्म प्रक्रिया विष निर्माण में भी उपयोग होता था।

           यात्रियों हेतु भस्म चिकित्सा

       पर्यटन का बहुत ही सरल नियम है आप अपने अतिथियों को वही देंगे जो आपके पास है।  यात्रियों को जब थकान लगती थी या पैरों में सूजन/मोच /मुड़ना आ जाता था या अति शीत समस्या होती थी तो चट्टियों आदि में वे गरम   राख का ही उपयोग करते थ।  भूत  लगने की दशा में भी यात्री अवश्य ही मंत्री राख ही प्रयोग करते होंगे। वैद भी यात्री की बीमारी अनुसार भस्म औषधि देते थे। 



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1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;
 उत्तराखंड में भस्म / राख चिकित्सा , यात्रियों हेतु भस्म चिकित्सा , रोग दूर करने हेतु भस्म उपयोग , गढ़वाल में राख , भस्म चिकित्सा , कुमाऊं में राख , भस्म चिकित्सा


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      हरिद्वार , बिजनौर , सहारनपुर परपेक्ष्य में स्कंदगुप्त का व्यक्तित्व

Ancient  Gupta Era History of Haridwar,  Bijnor,   Saharanpur
                   
                         
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -   213             


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


          स्कंदगुप्त अपने काल का वीर , साहसी व रणनीतिकार शासक था। अपने यौवनकाल में ही शक्तिशाली पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल कर समुद्रगुप्त ने सेना रणनीति व वीरता का आभास करा लिया था।  स्कंदगुप्त की वीरता व साहस के किस्से हूण देस में भी प्रसिद्ध हो चुके थे।
  विनय , विनम्र , उज्जवल चरित्र का स्कंदगुप्त ऊँचे चरित्रवानों का सम्मान करता था  . जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसके राज्य में दरिद्र व दुष्चरित्र लोग मिलना कठिन था  . ईश्वर भक्त , प्रजा वत्तस्ल , बुद्धिमान व रव हितैषी स्कंदगुप्त अपने पिता व माता का बड़ा सम्मान करता था  .   
    सुरक्ष के प्रति संवेदनशील स्कंदगुप्त ने क्षेत्रीय अधिपतियों को मित्युक्त किया व कृषि विकास में ध्यान दिया। सिंचाई हेतु कई कार्य किये (जूनागढ़ अभिलेख)





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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  -- 214

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -214


      Ancient  History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Telpura Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient  History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient   History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand  ;  Ancient  History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Laksar; Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient  History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar;      History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Bijnor;   seohara , Bijnor History Ancient  History of Nazibabad Bijnor ;    Ancient History of Saharanpur;   Ancient  History of Nakur , Saharanpur;    Ancient   History of Deoband, Saharanpur;     Ancient  History of Badhsharbaugh , Saharanpur;   Ancient Saharanpur History,     Ancient Bijnor History;
कनखल , हरिद्वार  इतिहास ; तेलपुरा , हरिद्वार  इतिहास ; सकरौदा ,  हरिद्वार  इतिहास ; भगवानपुर , हरिद्वार  इतिहास ;रुड़की ,हरिद्वार इतिहास ; झाब्रेरा हरिद्वार  इतिहास ; मंगलौर हरिद्वार  इतिहास ;लक्सर हरिद्वार  इतिहास ;सुल्तानपुर ,हरिद्वार  इतिहास ;पाथरी , हरिद्वार  इतिहास ; बहदराबाद , हरिद्वार  इतिहास ; लंढौर , हरिद्वार  इतिहास ;ससेवहारा  बिजनौर , बिजनौर इतिहास; नगीना ,  बिजनौर इतिहास; नजीबाबाद , नूरपुर , बिजनौर इतिहास;सहारनपुर इतिहास; देवबंद सहारनपुर इतिहास , बेहत सहारनपुर इतिहास , नकुर सहरानपुर इतिहास Haridwar Itihas, Bijnor Itihas, Saharanpur Itihas


Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में शुष्क तापोपचार  (हीट थिरैपी )
Heat or Thermo -therapy in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -88

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -88                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--191)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -191

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

    मनुष्य अवतरण के साथ ही मनुष्य तापोपचार करता आया है।  तापोपचार अर्थात तापमान घटाने -बढ़ाने से उपचार।  तापोपचार में तापमान को बढ़ाया भी जाता है और कम भी किया जाता है।  बर्फ से उपचार भी तापोपचार ही है।  सूर्य के ताप से भी उपचार होता ही था।
 तापोपचार  में सूर्य या अग्नि या अब बिजली की आवश्यकता होती है।  इस अध्याय में अग्नि माध्यम से शुष्क तापोपचार पर विचार किया जाएगा कि भूतकाल में उत्तराखंड में किस तरह तापोपचार से दुःख हरण किया जाता जाता था।
 मकान निर्माण
पहाड़ों के मिटटी पत्थर मकान वास्तव में इंसुलेटर का काम करते हैं जो शीत ऋतु में ठंड को अंदर नहीं जाने देते व गर्मी में ताप नहीं बढ़ने देते।
 ऋतु अनुसार कपड़े भी तापमान स्थिर    रखने का कार्य करते हैं।
पुराने जमाने में पराळ में सोना वास्तव में तापमान स्थिरीकरण माध्यम था बाद में कंबल रजाई का प्रचलन बढ़ गया तो गद्दे , रजाई उपयोग में आने लगे।
     त्वरित तापोपचार या आग तापना
    उत्तराखंड में  शीत ऋतू या उच्च शृखंलाओं में ग्रीष्म में भी जब मनुष्य बाहर से शीत से परेशान होता था तो घर आकर आग तापता था।  आग तापने की संस्कृति अग्नि प्रयोग से ही शुरू हो गयी थी।  सुबह सुबह कभी कभी पाले से जमी बर्फ पर चलने से पैर सुन्न हो जाते थे तो त्वरित आराम हेतु आग तापन ही सही समाधान होता है।
  कमरे में अंगेठी
 शीत ऋतु में पहाड़ों में शीत से बचने हेतु अंगेठी जलायी  जाती थीं और अग्नि तापमान बढ़ाती थी। बहुत से गाँवों में गौशालाओं में भी तापमान वृद्धि हेतु अंगेठी ज्वलन प्रयोग करते थे।
  छोटी बाछी -चिनखों को गौशाला में न रखकर घर में रखना वास्तव में उन्हें हानिकारक  कम तापमान से बचने का तरीका है।
 शीत ऋतू या बरफवारी समय जब अतिथि आता /आते था/थे  तो अतिथि सत्कार  पान पराग  से नहीं अपितु अंगेठी की आग से होता था।  पंडो नृत्य में आलाव जलाकर नृत्य करने के पीछे शीत निरोध तकनीक  ही थ। 

 बच्चों की ताप सिकाई

पहाड़ों में बच्चो की ताप सिकाई कार्य प्रतिदिन होता ही था। शीत ऋतु में तो सोने से पहले भी ताप सिकाई की जाती थी।
   बच्चों का डैणे जाने पर आग दिखाई
कभी कभी ठंड से अन्य कारणों से बच्चे का शरीर अकड़ जाता था या नीला पड़ने लगता था तो बच्चे को तपाया जाता था। यदि बच्चा अति शीत समस्या से ग्रसित होता था तो आंच मिलने से ठीक हो जाता था।

  पेट दर्द में ताप सिकाई
 ठंड या अन्य कारणों से पेट फूल जाय या पेट दर्द शुरू हो जाय तो सबसे पहले पेट की ताप सिकाई प्रथम उपचार होता था।  बच्चों के पेट  दर्द या अखळ लगने व पेचिस लगने में आग-ताप  सिकाई अनिवार्य उपचार माना जाता था।
 अपच या कब्ज में भी आग सिकाई उपचार किया जाता था।  यदि अपच ठंड से हो तो पाचन शक्ति में वृद्धि से अपच दूर हो जाता था या गैस निकलने से भी शांति मिलती होगी।
पेट फूलने पर (उगाण ) में तो ताप सेकं अनिवार्य ही माना था। मरोड़ उठने पर भी ताप सिकाई ही प्राथमिक उपचार होता था।

   शरीर अंग सुन्न में ताप सिकाई

   शरीरांग के सुन्न पड़ने पर प्राथमिक उपचार ताप सिकाई था।  ताप सिकाई सीधे अग्नि निकट अंग ले जाने या कपड़े को या अन्य  गरम माध्यम को शरीरांग पर लगाने से होती थी।
   निचले कमर दर्द

 कमर दर्द में ताप सिकाई
 संसार में मनुष्य अपने जीवन में कभी न कभी निचले कमर दर्द की समस्या से जूझता ही है।  ऐसे में ताप सिकाई आज भी कामयाब समाधान माना जाता है।  जाड़ों में बहुतों को कमर दर्द की शिकायत बढ़ जाती है तो ताप शिकाई उत्तम समाधान माना जाता है।

   हड्डी दर्द में ताप सिकाई

    हड्डी दर्द , हड्डी खिसकने या जोड़ों के दर्द में ताप सिकाई कामयाब उपचार माना जाता था और डाक्टर भी राय देते हैं।

 मोच /लछम्वड़ में ताप सिकाई
 मोच आने पर भी ताप सिकाई प्रथमोपचार था। मांश पेशियों में जकड़न पर भी ताप सिकाई उपचार सामान्य था।

 फोड़े पकाने में ताप सिकाई
बहुत से एमी फोड़े पकने के लिए गरम ल्वाड़ से सिकाई की जाती थी या पकाया  इल्वड़  रखा जाता था।

    डाम / ताळ लगाना
  डाम धरना या ताळ  लगाना कुछ नहीं विशेष तापोपचार ही है। डाम धरने में कबासुल को शरीर के ऊपर जलाया जाता है तो ताळ लगाने में नोकदार लोहे की टेढ़ी छड़ी को लाल ग्राम कर शरीर के ऊपर धीरे धीरे ठोका जाता है।
    ताप सिकाई माध्यम
ताप सिकाई में सीधा अग्नि सम्पर्क , हाथ , कपड़ा , गोल पत्थर व लोहे की बारीक छड़ी आदि माध्यम होते थे। कभी कभी गरम कीचड़ , गरम फल भी ताप सिकाई माध्यम रूप में उपयोग किये जाते थे।


  उपरोक्त उपचार आज भी विद्यमान हैं और अब बिजली उपकरणों से तापोपचार किया जाता है।
पर्यटकों को तापोपचार

   प्राचीन उत्तराखंड में चट्टियों में आग सुलभ थी ही और उपरोक्त उपचार सरलतम उपचार हैं तो  अवश्य ही पर्यटक उपरोक्त शुष्क तापोपचार से अपना दुःख हरण करते थे ।



Copyright @ Bhishma Kukreti 29 /4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
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