http://dnbarola.blogspot.com/By: Shri D.N. Barola.
चजई कुमाउनीगढ़वाली राजभाषा कैसे बने?
कुछ जागरूक नागारिकोँ ने कुमाउनी तथा गढ़वाली को उत्तराखंड की राजभाषा के रुप मैं प्रतिस्थापित करने की मांग की. कभी कभार इस विषय मैं बहस चलती रहती है,परन्तु सच तो यह है कि कुमाउनी तथा गढ़वाली भाषा है ही नहीं. yah bolee की श्रेणी मैं आती हैं. Or bolee हर पांच सात किलोमीटर मैं बदल जाती हैं हालांकि मोटे तौर पर उसका स्वरूप वही रहता है. भाषा का दर्जा प्राप्त करने कि लिए लिपि का होना आवश्यक है. इस समय यह देवनागरी मैं लिखी जाती है. कुमाउनी अति सम्रद्ध हैं. इसका साहित्य परिपूर्ण है. अब तो कुमाउनी तथा गढ़वाली मैं CD कैसेट व फिल्मोंभरमार है. दोनों अति भावपूर्ण बोलियाँ हैं, इनका भावार्थ समझने के लिए बहुत कुछ समझना व समझाना होगा. जैसे कोई बुजुर्ग किसी चंचल बाला को भावातिरेक हो, प्यार स्वरूप उलाहना देते हुई खर्युनी कहता है और वह लाडली अल्हर बालिका मंद मुस्कान लिए मुदित मन से इठलाती हुई चपल चितवन से निहारते हुई खेतों की और सरपट भाग जाती है. दुर्गन्ध को ही लें. कपरे जलने की दुर्गन्ध को हन्त्रीं, मिट्टी से आती गंध को मतें कहते है. इसी प्रकार गुवैन, किह्नाएँ, कुकैं, सनाएँ, भैसें आदि कहा जाता है. अन्य भाषाओँ मैं इतने विभिन्न प्रकार के शब्द नहीं पाए जाते. अंग्रेजी मैं जो लिखा जाता है वैसा पढ़ नहिउन जाता. जैसे बी उ टी बुत है तो पी उ टी पुट होता है.