१०. हरेला, हरियाला या कर्क-संक्रान्ति
श्रावण की संक्रान्ति से १०-११ दिन पूर्व बंस-पात्रादि में मिट्टी डालकर क्यारी बना धान, मक्का, उड़द इत्यादि वर्षा काल में उत्पन्न होने वाले अन्न बोये जाते हैं, इसे हरियाला कहते हैं। इसे धूप में नहीं रखते। इसे पौधों का रंग पीला हो जाता है।
(क) हरकाली महोत्सव - गौरी महेश्वर, गणेश तथा कार्कित्तकेय की मिट्टी को मूर्तियाँ बना उनमें रंग लगा मासान्त की रात्रि को हरियाले की क्यारी में विविध फल-फूल तथा पकवान व मिष्ठान से पूजा की जाती है। दूसरे दिन उत्तरांग पूजन का हरेला सिर पर रखा जाता है। बहन-बोटियाँ टीका, तिलक लगाकर हरेला सिर पर चढ़ाती है। उनको भेंट दी जाती है। यह हरेले का टीका कहलाता है।
(ख) यह हरियाला अन्व्यज पर्यन्त सभी वर्ण और जाति के लोगों में बोया जाता है। संक्रान्ति के दिन अपने-अपने देवताओं पर चढ़ा तब अपने सिर में चढ़ाते हैं। ग्राम-देवताओं की धूनी मठ में, जो "जागा" कहलाते हैं, ग्रामवासी लोग हरु, शैम, गोल्ल आदि अपने ग्राम व कुल-देवता की पूजा रोट-भेंट, धूप-दीप, नैवेध, बलि इत्यादि चढ़ाकर करते हैं। प्रत्येक ग्राम की सीमा पर यह (जागा) मंदिर बने होते हैं। यहाँ २२ रोज तक बैसी (बाईसी) का अनुष्ठान, नवरात्रियों में नवरात्र-अनुष्ठान ग्राम-देवताओं का किया जाता है। हरियाला चढ़ाकर इस दिन पूजा होती है। बैसी अर्थात् बाईसी का व्रत करने वाले इस दिन से २२ रोज तक व्रत और त्रिकालस्नान और एक बार भोजन करके ब्रह्मचर्यपूर्वक साधु-वृति में रहते हैं। दिन-रात घर में नहीं जाते। जागा के सठ में देवता का ध्यान-पूजन, धूनी की सेवा करते हैं। रात्रि में देवता का जागा अथवा जागर द्वारा आवाहन किया जाता है। बहुसंख्यक दर्शक यात्री देव-दर्शानार्थ जाते हैं। धन, पुत्र आरोग्य आदि मनोकामना का आशीर्वाद माँगते हैं।
यह मूल-निवासी पूर्वकालीन जातियों के समय की प्राचीन पूजा-पद्धति है, क्योंकि यह रीति कुमाऊँ से अन्यत्र नहीं देखी जाती।
११. हैरिशयनी
यह प्रसिद्ध व्रत है। चातुर्मात्स्य नियम इस दिन से स्रियाँ धारण करती हैं। हरि-बोधिनी का व्रत पूर्ण होते है।