३७. मकर-संक्रान्ति
इसको उत्तरायणी भी कहते हैं। इस दिन से उत्तरायण का प्रवेश होता है। प्रयाग में यह पर्व माघ-मेला कहा जाता है। बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगास्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं।
कुमाऊँ में इस त्यौहार को 'घुघुतिया' भी कहते हैं। गुड़ मिलाकर आटे को गूँथते हैं फिर एक पक्षी विशेष की आकृति बना घी में पकवान बनाकर उसकी माला गुँथते हैं। माला में नारंगी फल भी आदि भी लगाते हैं। वे मालाएँ बच्चों के गले में पहनाई जाती है। वे सुबह उठकर माला पहन 'काले-काले' कहकर कौवों को बुलाते हैं। पकवान माला से तोड़कर उसे खिलाते हैं। यह प्रथा कुमाऊँ से अन्यत्र देखने में नहीं आती। यह यहाँ का प्राचीन त्यौहार ज्ञात है।
३८. संकष्टहर व्रत
माघ कृष्ण चतुर्थी को गणेशजी का व्रत पूजन करते हैं।
३९. वसन्त पंचमी
माघ शुल्क पंचमी को श्रीपंचमी भी कहते हैं। इस दिन जौ की पत्तियाँ केतों से लेकर देवी-देवताओं को चढ़ाते तथा हरियाले की भाँति सिर पर रखते हैं। बहन-बेटियाँ भी टीका करती है। पीले रुमाल व वस्र रँगाये जाते हैं। आज से होली गाने लगते हैं। नृत्य एनं गीत का चलन भी है।
४०. भीष्माष्टमी
भाद्र शुल्काष्टमी को शुर-शय्या में पड़े हुए देवव्रत राजर्षि भीष्मपितामह ने प्राण-त्याग किया था। यह उनका श्राद्ध दिवस है। इस पुण्य तिथि को उनका तपंण किया जाता है। इस भीष्म-तपंण कहते हैं।
४१. शिवरात्रि
फाल्गुन कृष्ण १४ को शिवशंकर का व्रत सारे भारतवर्ष में होता है। इस दिन व्रत रखते हैं, और यत्र-तत्र नदियों में गंगा स्नान को स्री पुरुष जाते हैं। कुमाऊँ में कैलाश, जागीश्वर, वागीश्वर, सोमेश्वर, विभांडेश्वर, चित्रेश्वर, रामेश्वर,
भिकियासैणां, चित्रशिला आदि में मेले होते हैं।
४२. होली
फाल्गुन सुदी ११ को चीर-बंधन किया जाता है। कहीं-कहीं ८ अष्टमी कोचीर बाँधते हैं। कई लोग आमलकी ११ का व्रत करते हैं। इसी दिन भद्रा-रहित काल में देवी-देवताओं में रंग डालकर पुन: अपने कपड़ों में रंग छिड़कते हैं, और गुलाल डालते हैं। छरड़ी पर्यन्त नित्य ही रंग और गुलाल की धूम रहती है। गाना, बजाना, वेश्या-नृत्य दावत आदि समारोह से होते हैं। गाँव में खड़ी होलियाँ गाई जाती हैं। नकल व प्रहसन भी होते हैं। अश्लील होलियों तथा अनर्गल बकवाद की भी कमी नहीं रहती। कुमाऊँ में यह त्यौहार ६-७ दिन तक बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। सतराली, पाटिया, गंगोली, चम्पावत, द्वाराहाट आदि की होलियाँ प्रसिद्ध हैं। गाँवों में भी प्राय: सर्वत्र बैठकें होती हैं। मिठाई व गुड़ बाँटा जाता है। चरस व भांग की तथा शहरों में कुछ-कुछ मदिरा की धूम रहती है। फाल्गुन सदी १५ को होलिका दहन होता है। दूसरे दिन प्रतिपदा का छरड़ी मनाई जाती है। घर-घर में घूमकर होलिका मनाकर सायंकाल को रंग के कपड़े बदलते हैं। धन भी एकत्र करते हैं, जिसका देहातों में भंड़ारा होता है।
४३. टीका २
चैत कृष्ण २ को दम्पति-टाका कहलाता है। जिस प्रकार 'वसंत, हरेला, दशाई व बगवाली' को भ्रातृ-भार्गनी का टीका होता है, उसी प्रकार इस दिन स्री-पुरुषों का टीका होता है। भावज या साली को भी टीका भेंट दी जाती है।
इन व्रतों के अलावा एकादशी - व्रतप्रति पक्ष में किये जाते हैं। हरिशयनी, हरिबोधिनी, आमलकी ये मुख्य व्रत हैं। इन एकादशियों का तथा चातुर्मास्य की एकादशियों का व्रत प्राय: बहुत लोग करते हैं। स्रियाँ जागरण, कथा-श्रवण करती हैं। निराहार-फलाहार दोनों प्रकार के व्रत होते हैं। कोई-कोई पकवान खाते हैं। एकादशी को चावल वर्जित होते हैं।
वारों का व्रत -
रविवार को सूर्य-व्रत होता है। पौष मास में अधिक लोग रविवार को व्रत तथा सूर्य पूजा करते हैं। लवण-रहित पकवान खाते हैं। सोमवार शिव का व्रत स्रियाँ करती हैं। श्रावण, माघ तथा वैशाख में इसका अधिक प्रचार होता है। पूरी, रोटी अथवा फलाहार भोजन होता है। भौमवार को मंगल का व्रत होता है। लवण-रहित अन्न भोजन करने की विधि है।
इन व्रतों को उद्यापन भी होते हैं। उद्यापन के बाद व्रत करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। इनके अलावा स्रियाँ कात्तिक-स्नान, तथा लक्षवर्तिका, तुलसी-विवाह आदि-आदि भी यदा-कदा किया करती है।