धारचूला अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण एक प्राचीन व्यापारिक शहर था, जिसके एक तरफ नेपाल तथा दूसरी तरफ तिब्बत-चीन की सीमाएं हैं। पर्वतीय-पथ पार करने में दक्ष, मुख्य रूप से भोटिया-व्यापारी तिब्बत से भारत आकर धारचूला बाजार में ऊन, भेड़/बकरी, मशाले एवं तंबाकू खरीदकर तिब्बत में बिक्री करने ले जाते। ऊन व्यापार से संबंधित कई छोटे-मोटे उद्योगों के केंद्र भी इस समृद्ध नगर में थे। "जौलजीबि" जैसे व्यापार-मेले का आयोजन वाणिज्य को प्रोत्साहित करता था। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण व्यापारिक गतिविधियों पर अकस्मात् विराम लग गया और उस कारण ही दोनों देशों के बीच व्यापार रूक गया। इस प्रकार वाणिज्यिक शहर के रूप में धारचूला का महत्व कम हो गया।
सुदूर स्थित होने के कारण क्षेत्र के ऐतिहासिक घटनाओं में धारचूला की सक्रिय भागीदारी अवरुद्ध थी। फिर भी, इसका इतिहास कुमाऊं से जुड़ा है। भारत की आजादी से पहले शेष कुमाऊं के सामान्य भागों की तरह धारचूला पर भी कई रजवाड़ों का शासन रहा था। वर्तमान छठी शताब्दी से पहले यहां कुननिदा उसके बाद खासों, नंदों का और फिर मौर्यों का शासन था। माना जाता है कि राजा बिंदुसार के समय खासों ने विद्रोह किया। यह विद्रोह उनके उत्तराधिकारी सम्राट अशोक ने कुचल डाला। उस खास समय में कुमाऊं पर कई सरदारों एवं रजवाड़ों का प्रभुत्व रहा। माना जाता है कि उस समय धारचूला किले पर एक स्थानीय राजा मंदीप का शासन था।
छठी एवं 12वीं सदियों के बीच ही एक वंश शक्तिशाली बना और कत्यूरियों ने संपूर्ण कुमाऊं पर शासन किया। फिर भी उनका प्रभाव छोटे क्षेत्र तक ही सीमित रहा, जब वर्ष 1191 से 1223 के बीच, पश्चिमी नेपाल के माल्लाओं ने कुमाऊं पर आक्रमण किया।
12वीं सदी में चंदों का प्रभुत्व बढ़ा और उन्होंने वर्ष 1790 तक कुमाऊं पर शासन किया। उन्होंने कई प्रमुखों को निवेश कर लिया तथा पड़ोसी राज्यों के साथ अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उनसे युद्ध किया। उस अवधि में इस वंश में केवल एक बार रूकावट आयी, जब गढ़वाल के पंवार राजा, प्रद्युम्न शाह भी कुमाऊं के राजा बने, जिन्हें प्रद्युम्न चंद कहा गया। अंतिम चंद शासक, महीन्द्र सिंह चंद हुआ, जिसने राजबंगा (चंपावत) से शासन किया। वर्ष 1790 में गोरखों ने, जिन्हें गोरखियाणा कहते हैं, कुमाऊं पर कब्जा कर लिया और चंदों का अंत हो गया।
दमनकारी गोरखों के शासन काल का अंत वर्ष 1815 में हुआ, जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें हराकर, कुमाऊं पर प्रभुत्व कायम कर लिया। अंग्रेजी शासन के अंत में स्थानीय कार्यदल एवं प्रेस ने बेगार प्रथा एवं लोगों के जन-अधिकार के विरूद्ध जनचेतना जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन आंदोलनों का भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में विलय हो गया - जो आजादी वर्ष 1947 में प्राप्त हुआ। तब कुमाऊं उत्तर प्रदेश का भाग हो गया तथा बाद में वर्ष 2000 में नये राज्य उत्तराखंड का भाग बना।