मलेथा की गूल
एक सिंह माधो सिंह, एक सिंह गाय का,
एक सिंह माधो सिंह, और सिंह काइ का। “
मलेथा पर स्वर्गीय भोला दत्त देवरानी जी द्वारा लिखित ये दो पंक्तिया" "माधु की कीर्ति जस गाद गांदा, आज तै कूल तख बग़द जांद"
उत्तराखंड एक तरफ़ अपनी खूबसूरती के नाम से परसिद्ध है, तो दूसरी तरफ़ यहाँ के वीर पुरुषों से भी परसिद्ध है, यहाँ के इन्ही वीर पुरुषों में से एक वीर माधो सिंह भंडारी परसिद्ध हैं, श्रीनगर गढ़वाल से लगभग ४ किलोमीटर की दूरी पर तथा देवप्रयाग से लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मलेथा गाँव, अलकनंदा नदी के दहने तट पर बसा यह गाँव अपनी सुरम्यता, सौन्दर्यता से परिपूर्ण है। मलेथा गाँव अलकनंदा के तट पर होने के कारन मैदानी भाग की तरह लगता है क्यूंकि यहाँ पर समतल भूमि है।इसी मलेथा गाँव में सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी में कालो भंडारी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, नाम रखा गया माधो सिंह भंडारी, तमाम बच्चों की तरह माधो का बचपन भी खेलने में खेतों में घूमने में बीता, जवान हुआ तो उसने अलकनंदा नदी के तट पर बसे सूखे मलेथा को देखा, जो पानी के सामने होते हुए भी सूखा था, वहां पर पड़ी खेतों की तरह झंगोरा और कोदा की ही पैदावार होती थी। जवान होकर माधो सिंह सेना में भरती हो गया, मलेथा तब गढ़वाल के रजा की राजधानी से बिल्कुल नज्दीग था तो माधो सिंह ने श्रीनगर गढ़वाल में राज महल में सैनिक बन गया। कुछ लोग अपनी तकदीर को अपने हाथों से लिखते हैं और कुछ लोग अपने हाथों से अपने भाग्य को लिखते हैं यही माधो ने किया, वीर सूत माधो की वीरता से रजा ने खुश होकर उसे सेनापति (जनरल) बनाकर तिब्बत भेज दिया।तिब्बत में माधो ने अपना परचम लहराया और, गढ़वाल राज्य को चारो और फैलाया। कई दिनों बाद माधों घर वापस आया, और अपनी पत्नी से खाना लेन को कहा, देखता है की उसकी पत्नी नही आई, गुस्से में आकर चिलाकर उसने पत्नी को आवाज़ दी तो वह भी गुस्से में बिलबिलाकर बोल पड़ी, की आपको चावल, सब्जी या फल क्या चाहिए।भारतीय इतिहास में कई कहानियाँ आती हैं जब किसी ने पति को सही राह दिखाई और ओ कुछ एसा कर बेठे जो उनसे उम्मीद नही की जा सकती थी, यही माधो ने भी किया, मलेथा गाँव की दहनी तरफ़ चंद्रभागा धारा (गधेरा) बहता है, माधो ने उस धारा का पानी मलेथा के खेतों(अब स्यारों) में लेन की युक्ति सोची, एक पहाड़ बीच की रुकावट बन रहा था तो माधो ने लगभग ९० मीटर lambi व ५ फीट चौडी सुरंग बनाकर पानी की एक गूल बना दी जो लगभग ३ किलोमीटर है।गूल का निर्माण पूरा होने के बाद पानी मलेथा के खेतों में खोला गया, पर पानी नही आया, तब कुछ लोगों ने कहा की यह गूल बलि मांग रही है, [/color]माधो का एकलौता जवान बेटा उसकी नजर में आया और उसने गूल के मुहाने पर उसकी बलि दे दी……आज से पांच सौ साल पहले शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान का अभाव था। ऐसे समय में माधोसिंह भंडारी ने अपनी उत्कृष्ट तकनीकी के साथ इस सुरंग का निर्माण कर इतिहास में त्याग, तपस्या और बलिदान की सच्ची मिसाल कायम की।……धन्य है वह मलेथा की धारा जहाँ माधो सिंह जैसे वीरों का जन्म हुआ और धन्य है वह मलेथा के खेत जिनमे आज सरसों के पीले फूलों से है बहार रहती है, जहाँ आज बासमती चावल उगता है।(Source :http://aajkapahad.blogspot.com)
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धान की रोपाई अनुष्ठान है यहां
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नई टिहरी गढ़वाल। धान की रोपाई का तरीका देश में एक जैसा है। कई स्थानों पर इसे पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है। उत्तराखंड राज्य के टिहरी जनपद के मलेथा में पंचांग के मुताबिक धान रोपाई के लिए विधिवत ढंग से दिन निकाला जाता है और समापन पर पशु बलि दी जाती है। कीर्तिनगर ब्लाक मुख्यालय से महज तीन किमी दूरी पर ऋषिकेश-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर बसा हैे गांव मलेथा। वीर शिरोमणि माधो सिंह भंडारी की कर्म स्थली मलेथा में पिछले कई सदियों से धान की रोपाई अपने आप मिसाल है। इस गांव में वर्षो से यह परंपरा है कि धान की रोपाई से पूर्व ग्रामीण गांव की राशि के आधार पर पंचांग से रोपाई शुरू करने के लिए दिन निकालते हैं। नागराजा देवता को मानने वाले मलेथावासी दिन निकल आने पर सबसे पहले एक खेत में नागराजा देवता की सामूहिक रूप से पूजा अर्चना के साथ रोपाई का श्रीगणेश करते हैं। परंपरा बनी हुई है कि इस खेत में रोपाई के बाद ग्रामीण फिर अपने-अपने खेतों में रोपाई का काम प्रारंभ करते हैं। इसके बाद पाटा का बौलू नामक तोक में स्थित गांव के अंतिम खेत में रोपाई के दिन समापन पर बकरे की बलि देने के बाद रोपाई का विधिवत ढंग से समापन किया जाता है। बुजुर्गो के अनुसार मलेथा गांव में एक समय में सिंचाई का कोई विकल्प न होने पर यहां पर माधो सिंह भंडारी ने छेंडाधार के पहाड़ पर सुरंग गूल बनाकर चन्द्रभागा नदी से मलेथा के खेतों में पानी लाने की व्यवस्था सोची। इसके बाद उन्होंने पहाड़ को खोदकर अंदर ही अंदर गूल (सिंचाई की छोटी नहर) बनाने में सफलता भी हासिल कर ली, लेकिन इसके बाद भी इस गूल में पानी नहीं आया। ग्रामीणों में मान्यता है कि जब भंडारी द्वारा बनाई गई गूल में पानी नहीं आया तो एक रात माधो सिंह के सपने में देवी मां आई और बताया कि जब तक वह नरबलि नहीं देंगे तब तक गूल में पानी आगे नहीं बढ़ेगा। कहा जाता है कि देवी मां के इस संदेश के बाद भंडारी ने जहां से गूल शुरू होती है वहां पर अपने बेटे की बलि दी थी। बताया जाता है कि आज जिस खेत में ग्रामीण रोपाई का समापन करते हैं उसी खेत में बलि के बाद भंडारी के बेटे का सिर पानी में बहकर आया था। इसके बाद ही समापन पर तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही है और इस खेत में बकरे की बलि दी जाती है और बलि के बाद बकरे का मांस पूरे गांव में प्रसाद के तौर पर बांटा जाता है। यदि मलेथा के खेतों को इस गूल से पानी नहीं मिलता तो आज यह खेत सोना नहीं उगल रहे होते। आज भी दूर से देखने पर ही मलेथा के यह खेत हर किसी का मन मोह लेते हैं। यात्रा सीजन में तो बाहर से आने वाले तीर्थ यात्री व पर्यटक भी मलेथा में रुककर कुछ देर हरियाली से भरे खेतों को निहारते देखे जा सकते हैं।