संकट में उपबोलियां देहरादून। गढ़वाली और कुमाऊंनी की उपबोलियों का समृद्ध इतिहास रहा है। मगर उपबोलियां लगातार संकट में घिर रही हैं। गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा के लिए तो फिर भी प्रयास हो रहे हैं। मगर उपबोलियों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। उपबोलियों पर काफी समय पहले जो काम हो गया, सो हो गया। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सरकारी स्तर पर ठोस प्रयास नजर नहीं आए हैं। प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाने वाली ये उपबोलियां स्थानीय निवासियों और जनजातियों की विशिष्टता की पहचान है।
गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा की बोलियों को लेकर सरकारी स्तर पर हाल फिलहाल कोई व्यापक सर्वे भी नहीं हुआ है। गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं से सरोकार रखने वाले लोगों ने अपने स्तर पर इस संबंध में कार्य किया है। गढ़वाली की बात करें, तो मोटे तौर पर श्रीनगरियां, नागपुरियां, दसौली, बधाणी, राठ, सलाणी, टिरीयाली, मांग कुमईया जैसी उपबोलियां स्थानीय लोगों की जुबां पर रहती हैं। वहीं सिराली, अस्कोटी, सौरायली, रचभैंसी, नयाणतलिया, जौहारी, भोटिया, खस पराजीया, पछाड़, फल्लाकोटी, चौगरखिया, गंगोई, दनपुरिया जैसी उपबोलियां कुमाऊंनी समाज का हिस्सा हैं।
उत्तराखंड की इन दोनों (गढ़-कुमौ) भाषाओं के मानकीकरण के प्रयासों के बीच, उपबोलियां को बचाए रखने का सवाल कहीं पीछे छूट गया है। एक खास हिस्से की संस्कृति इन उपबोलियां में परिलक्षित हुआ करती थी, मगर उस पर लगातार चोट होती दिख रही है। इस ओर संस्कृति विभाग की कोई चिंता नजर नहीं आ रही है। लोक भाषाओं पर काम कर रहे विनसर प्रकाशन के कीर्ति नवानी का कहना है कि गढ़वाली और कुमाऊंनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए दबाव बन रहा है। यही सही समय है, जब उपबोलियां के लिए भी खास काम किया जाना चाहिए। संरक्षण के लिए इन्हें लिपिबद्ध करने का भी प्रयास होना चाहिए।
‘गढ़वाली समृद्ध भाषा है। इसकी उपबोलियां भी समृद्ध हैं। इनके अस्तित्व को लेकर बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं है। सालों से ये बोली जा रही हैं। हमारी भाषा आठवीं अनुसूची में शामिल की जाए। उपबोलियों को भी इससे और मजबूती मिलेगी।’ -भगवती प्रसाद नौटियाल, वरिष्ठ साहित्यकार
‘गढ़वाली, कुमाऊंनी भाषा के साथ ही इसकी उपबोलियों के लिए भी खास काम करने की जरूरत है। ये हमारी विशिष्ट पहचान है। इस पर खतरा लगातार मंडरा रहा है। इससे उन जनजातियों की पहचान खोने का भी खतरा है जो उत्तराखंड समाज की विशिष्टता हैं।’ -वीरेंद्र पंवार, साहित्यकार, कवि
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उपबोलियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। भाषा की मजबूती उपबोलियों पर काफी हद तक टिकी है। सरकारी प्रयास इस संबंध में नाकाफी हैं।’ उपबोलियों को जीवित बचाए रखने के लिए हम सभी को एक ठोस प्रयास करने की जरूरत है। -कीर्ति नवानी, गढ़वाली कुमाऊंनी भाषा आंदोलन में सक्रिय
गढ़वाली-कुमाऊंनी में जगह-जगह अंतरदेहरादून/नई टिहरी/पिथौरागढ़। बोलियों की शायद ये ही सबसे बड़ी विशेषता है कि यह कदम कदम पर बदल जाती हैं। गढ़वाली की बात करें या फिर कुमाऊंनी की, दोनों की एक सी स्थिति है। पौड़ी से लेकर रुद्रप्रयाग और चमोली से लेकर टिहरी, उत्तरकाशी तक पहुंचते-पहुंचते गढ़वाली में तमाम तरह के परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं।
टिहरी जिले में प्रमुख रूप से गढ़वाली बोली ही बोली जाती है। जिले के दूरस्थ क्षेत्र जौनपुर में ही उपबोली जौनपुरी बोली जाती है। गढ़वाली बोली बोलने वालों की संख्या टिहरी में पांच लाख से अधिक है। जबकि जौनपुरी उपबोली बोलने वालों की संख्या चालीस हजार से अधिक है। गढ़वाली व जौनपुरी बोली के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए सरकारी तथा गैरसरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। हालांकि गढ़वाली बोली को भाषा का दर्जा देने के लिए पौड़ी के सांसद सतपाल महाराज आवाज उठाते रहे हैं। इन बोलियों का संरक्षण व संवर्द्धन स्वत: स्फूर्त ही है। नई पीढ़ियां भी हिंदी भाषा के साथ ही गढ़वाली और जौनपुरी बोली बोलते हैं।
कुमाऊं में आमतौर पर कुमाऊंनी बोली ही बोली जाती है। यह बात अलग है कि क्षेत्र के हिसाब से उसके लहजे में थोड़ा अंतर आ जाता है। अल्मोड़ा तथा आसपास के इलाकों में बोली जाने वाली कुमाऊंनी का लहजा पिथौरागढ़ के आसपास बोली जाने वाली कुमाऊंनी से भिन्न है। पिथौरागढ़ की बोली में नेपाली बोली का पुट अधिक आ जाता है। पिथौरागढ़ जिले में दो जनजातियां रहती हैं। एक आदम जनजाति वनराजी और दूसरा भोटिया जनजाति। भोटिया जनजाति धारचूला और मुनस्यारी तहसील में है।
तराई में बोली जाती हैं विभिन्न बोलियांरुद्रपुर। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद जिले में विभिन्न क्षेत्रों से लोग यहां आए तो साथ में सिंधी, पंजाबी, भोजपुरी समेत कई बोलियां और संस्कृति भी लाए। इस समय बोलियों की हालत खिचड़ी जैसी हो गई है।
पाकिस्तान के सिंध प्रांत, पश्चिम बंगाल, पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे कई क्षेत्रों के लोग तराई में आकर बस गए। जिससे यहां सिंधी, बांग्ला, पंजाबी, भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि बोलियां बोली जाती हैं। लालपुर, आनंदपुर के क्षेत्रों में भोजपुरी, खटीमा क्षेत्र में थारूवाटी, गदरपुर, दिनेशपुर, शक्तिफार्म और रुद्रपुर के ट्रांजिट कैंप में बांग्ला, शांतिपुरी क्षेत्र में कुमाऊंनी और गढ़वाली, रुद्रपुर-नानकमत्ता क्षेत्र में पंजाबी बोलीं जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पंचाली, अवधी, शौरसेनी बोलियां भी यहां बोली जाती हैं। यहां की बोली में भोजपुरी में पंजाबी और बांग्ला का पुट भी मिलता है। इसी तरह पंजाबी, बांग्ला में भोजपुरी का पुट मिलता है। बुजुर्ग बताते हैं कि कुमाऊंनी की उपबोलियां काली कुमाऊंनी है।
वनरावतों की बोली में दुर्लभ प्रवाहपिथौरागढ़। अपनी रीति रिवाज, परंपरा, बोली तथा रहन सहन के हिसाब से हिमालय की आदम जनजाति वनराजी सबसे अलग लगती है। उनकी बोली में दुर्लभ प्रवाह है। पिथौरागढ़ के आठ और चंपावत जिले के दो गांवों में वनराजियों के 135 परिवार रहते हैं। इनकी कुल आबादी524 है। वनराजियों की बोली को अलग से कोई नाम तो नहीं दिया गया है, लेकिन यह आम कुमाऊंनी बोली से बिल्कुल अलग है। वनरावतों के बारे में अध्ययन कर चुके हीरा सिंह बोरा ने उनकी बोली के कुछ दुर्लभ शब्द संकलित किए हैं-
वनराजी बोली हिंदी अर्थ
ती पानी
या माता
मे आग
ज्या भोजन
गा एक
नी दो
खुर तीन
परी चार
पन पांच
तुरकन छह
खत सात
अट्ट आठ
नव्वा नौ
डे रविवार
किलेक सोमवार
नीव मंगलवार
कुन्व बुधवार
पारिख बृहस्पतिवार
पंच शुक्रवार
खतव शनिवार