ऐसा नहीं है, मेरे आमा-बूबू पहाड़ी बोलते थे, मेरे ईजा-बाबू भी बोलते हैं, मैं और मेरी पत्नी भी बोलते हैं और मेरी आने वाली पीढ़ी भी जरुर बोलेगी।
थोड़ा है और थोड़े की जरुरत है।
शर्माओ नहीं, हमारी बोली हमारा उपहास नहीं है,
हमारा गर्व है, हमारी संस्कृति है, हमारी पहचान है।
इसके बिना हम अधूरे और खोखले हैं, भले ही बाहर से सैप बनते होंगे, लेकिन अन्दर से कभी न कभी यह खोखलापन, अधूरापन कचोटता जरुर होगा।