बरसात
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बरसात बरस रही वर्ष दर वर्ष ,
मात्र नियमों की पूर्ति करती सी ,
पर बरसात भूल चुकी अपनापन ,
कि उसके बूंदों के लिए तरसती धरा ,
अब कांप जाती है ,
उसके आगमन पर ...
और क्यों न डरे...
बरसात अब हरियाली नहीं लाती ,
वो तो प्रतिशोध के रूप में ,
आए दिन फट जाती है इस कदर कि..
धरती के ममत्व भरे आंचल से .
क्रूर नदी बन छीन लेती है ,
वो जिंदगी भी ,,, उम्मीदें भी ...
बरसात अब दोस्त भी नहीं ,,,
फिर दुश्मन भी नहीं ,,,,
वो भी तो काट रही ,
अपने हिस्से का जीवन ,,,,
धरा पर , धरा के लिए |