Author Topic: Brief Hisotry of Modern Garhwali Poem-आधुनिक गढ़वाळी कविता का संक्षिप्त इतिह  (Read 3140 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

Our Senior member Mr Bhishma Kukreti ji has provided the exclusive information about brief history of modern Garhwali Poems.

                     आधुनिक  गढ़वाळी कविता का संक्षिप्त इतिहास                                               भीष्म कुकरेती (मुंबई) गढवाली भाषा का प्रारम्भिक काल                    गढवाली भाषाइ इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नही हुए हैं. , अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डा गुणा नन्द जुयाल, डा गोविन्द चातक , डा बिहारी लाल जालंधरी , डा जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया किन्तु तदुपरांत पी एच  ड़ी करने के पश्चात इन सुधिजनो ने अपनी खोजों का विकाश नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गये . डा  नन्द किशोर ढौंडियाल व इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंषनीय   हैं पर इनके शोध में भी क्र्मता का नितांत अभाव है. चूँकि भाषा  इतिहास  में क्षेत्रीय इतिहास , सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान व अन्वेषण आवश्यक है  अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है . अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटिया, संस्कृत विद्वान् धश्माना , भजन सिंह सिंह, आबोद बंधु बहुगुणा , मोहन बाबुलकर , रमा प्रसाद  घिल्डियाल 'पहाड़ी ' , भीष्म कुकरेती आदि के गढवाळी भाषा का  इतिहास  खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक है इन विद्वानो के कार्य में क्र्मता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है  . इसके अतिरिक्त सभी विद्वानो के अन्वेषण में समग्रता का अभाव भी है. जैसे डा चातक और गुणा नन्द जुयाल के अन्वेषणों में फोनोलोजी भाषा  विज्ञानं  है, डा जालंधरी ने ध्वनियों की खोज की है पर क्षेत्रीय इतिहास के साथ कोई तालमेल नही है.         अबोध बन्धु बहुगुणा ने नाथपन्थी भाषा साहित्य को आदि गढ़वाली का नाम दिया है किन्तु यह कथन  भी भ्रामक कथन है. नाथपंथी साहित्य में गढ़वाली है किन्तु नाथपंथी साहित्य संस्कृत के धार्मिक, अध्यात्मिक , कर्मकांडी साहित्य जैसा है जिसे सभी हिन्दू कर्मकांड या अध्यात्मिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं. उसी तरह नाथपन्थी साहित्य में गढवाली अवश्य है पर यह नितांत गढवाली भाषा  नही कहलायी जाएगी .    डा शिव प्रसाद डबराल ने  अपने उत्तराखंड के इतिहास में पुरुषोत्तम सिंह समय वाले शिलालेख,  , अशोक् चल  का गोपेश्वर (ऊत्रखंड का इतिहास भाग -१ पृष्ठ -९७-९८) , मंकोद्य काव्य, दिल्ली सल्तनत , आदि के सन्दर्भ से सिद्ध किया की गढवाली और कुमाउनी भाषाओँ का उद्भव खश भाषा से हुआ यानि की कुमाउनी  और गढवाली भाषाओँ का उद्भव कैंतुरा शाशनकाल ( ६५० इश्वी से पहले ) (पंवार वंश से पहले गढवाल -कुमाओं पर कैंतुरा वंशीय शाशन था , और गढ़वाल में चौहान /पंवार ब्न्शीय शाशन  ६५० इसवी से १९४७ तक रहा है ) में हुआ . डा बिहारी लाल जालंधरी (२००६ इ.)  के गढ़वाली -कुमाउनी भाषाई ध्वनियों के अन्वेषण से भी सिद्ध हुआ है कि कुमाउनी-गढवाली भाषाओं की मा एक ही भाषा थीं . कुमाउनी भाषा लोक साहित्य के संकलन कर्ता भी स्वीकार करते हैं कि गढ़वाली कुमाउनी कि मा एक ही भाषा रही होगी.     चूँकि गढवाली भाषा के अतिरिक्त अभी तक यह सिद्ध नहीं हुआ/अथवा प्रमाण मिले हैं  कि पंवार बंशीय या चौहान बंशीय शाशन कालों में गढवाळी भाषा के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा भी गढ़वाल  की जन भाषा थी तो सिद्ध होता है कि गढ़वाल राष्ट्र में खश भाषा समापन के उपरान्त गढवाली भाषा ही गढ़वाल कि जन भाषा थी . प्रथम इसवी के करीव खश भाषा गढवाल में बोली जाती रही है और धीरे धीरे खाश भाषा की  अव्न्नती या क्षरण  हुआ वह खश अप्ब्रंश में बदली और धीरे इसने गढ़वाली का रूप लिया और छटी सदी आते आते खश अपभ्रंश  गढ़वाली में बदल चुकी थी . छटी सदी से गढवाल में यद्यपि शाशन कल चक्र बदलता गया किन्तु चौहान /पंवार बंशीय शाशन में नवी सदी से अठारवी   सदी तक कोई भारी परिवर्तन गढ़वाल में नही आया हाँ भारत से प्रवाशी गढ़वाल में बसते गये किन्तु उन्होंने गढ़वाली भाषा में कोई आमूल परिवर्तन नही किया बस अपने साथ लाये शब्दों को गढवाली में मिलाते गए होंगे.     निष्कर्ष में  कह सकते हैं कि गढवाली भाषा से पहले गढ़वाल में खश अपभ्रंश का बोलबाला था जो कि खश भाषा कि उपज थी या यों कह सकते हैं कि गढ़वाली भाषा की मा खश भाषा है  और छटी सदी से लेकर ब्रिटिश काल के प्रारम्भ होने तक गढ़वाल राष्ट्र में एक ही जन भाषा थी  और वह थी  गढवाली भाषा . और यदि खश अपभ्रंश को गढवाली भाषा माने तो गढवाल देश में गढवाली भाषा  प्रथम सदी से विद्यमान रही है .बाजूबंद  काव्य शैली गढ़वाली की आदिकाव्य  शैली गढवाली भाषा का आदिकाव्य (Prilimitive Poetry ) बाजूबंद काव्य है जो की दुनिया की किसी भी भाषा कविता क्षेत्र में लघुतम रूप की कविताएँ हैं  . ये कविताएँ दो पदों की होती हैं जिसमें प्रथम पद निरर्थक होता है पट मिलाने के निहित प्रयोग होता है द्वितीय चर ण सार्थक व सार्ग्वित होता है. गढवाली काव्य की यह अपनी विशेषता  लिए विशिष्ठ  काव्य शैली है बाजूबंद काव्य                      अन्य  लोक गीतों के प्रकार और कवित्व में भी गढ़वाली भाषा किसी  भी बड़ी भाषा के अनुसार वृहद रूप वाली है , सभी प्रकार के छंद, कवित्व शैली गढवाली लोक गीतों में मिलता है

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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                           नाथपन्थी साहित्य और गढ़वाली लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवम दर्शन शास्त्र       नाथपंथी साहित्य आने से गढवाली भाषा में मनोविज्ञान और दर्शन शास्त्र की व्याख्याएं जन जीवन में आया . यह एक विडम्बना ही है की कर्मकांडी ब्राह्मण जिस साहित्य की व्याख्या कर्मकांड के समय  करते हैं  वह विद्वता की दृष्टि से उथला है   और जो जन साहित्य सारगर्भित है , जिसमे मनोविज्ञान की परिभाषाएं छुपी हैं , जिस साहित्य में भारतीय षट दर्शनशास्त्र का निचोड़ है उसे सदियों से वह सर्वोच स्थान नही मिला जिस यह साहित्य हकदार है. नाथपंथी साहित्य के वाचक डळया  नाथ या गोस्वामी, ओल्या, जागरी, औजी /दास होते हैं किन्तु सामजिक स्तिथि के हिसाब से इन वाचकों को अछूतों की श्रेणी में रखा गया और आश्चर्य  यह भी है की आम जनों को यह साहित्य अधिक भाता था/है और उनके निकट भी रहा है बगैर नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ रहित लेख गढवाली कविता इतिहास नही कहा जायेगा डा विष्णु दत्त कुकरेती के अनुसार नाथ साहित्य  में  ढोल सागर , दमौसागर घटस्थापना , नाद्बुद, चौडियावीर मसाण, समैण  , इंद्रजाल, कामरूप जाप, महाविद्या , नर्सिंग की चौकी, अथ हणमंत, भैर्बावली, नर्सिंग्वाळी , छिद्रवाळी , अन्छरवाळी, सैदवाळी, मोचवाळी, रखवाळी, मैमदा रखवाळी, काली रखवाळी. कलुवा   रखवाळी, डैण रखवाळी , ज्यूडतोड़ी  रखवाळी,   मन्तरवाळी , फोड़ी बयाळी , कुर्माख़टक , , गणित   प्रकाश, संक्राचारी  विधि, दरीयाऊ , ओल्याचार , भौणा बीर, मन्तर गोरील काई , पंचमुखी हनुमान, भैर्वाष्ट्क, दरिया मन्तर, सर्व जादू उक्खेल, सब्दियाँ ,   आप रक्षा , चुड़ा मन्तर, चुड़ैल का मन्त्र , दक्खण दिसा , लोचडा की वैढाई , गुरु पादिका, श्रीनाथ का सकुलेश, नाथ निघंटु आदि काव्य शाश्त्र प्रमुख हैं                          नाथ संप्रदायी साहित्य का मौलिक गढ़वाली भाषा पर प्रभाव चूँकि गढवाल में नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव सातवीं सदी से होना शुरू हो गया था और इस साहित्य ने गढ़वाल के जन जीवन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था और ग्यारवीं सदी तक यह साहित्य जन जीवन का अभिन्न अंग बn गया था अथ इस साहित्य के भाषा ने खश जनित गढ़वाली भाषा में परिवर्तन किये . नाथ साहित्य ने खश जनित गढ़वाली भाषा पर  शैलीगत एवम  शब्द सम्पदा  गत प्रभाव डाला किन्तु उसकी आत्मा एवम व्याकरणीय संरचना पर कोई खास प्रभाव ना डाल सकी . हाँ नाथ सम्र्दायी साहित्य ने गढवाली भाषा को खड़ी बोली, बर्ज और राजस्थानी भाषाओँ के निकट लाने में एक उत्प्रेरणा  काम अवश्य किया. यदि गढ़वाल में दरिया वाणी में मन्तर पढ़े जायेंगे तो राज्शथानी भाषा का प्रभाव गढवाली पर आना ही था जिस तरह कर्मकांड की संस्कृत भाषा ने गढ़वाली भाषा को प्रभावित किया उसी तरह नाथ साहित्य ने गढवाली भाषा को प्रभावित किया किन्तु यह  कहना कि नाथ साहित्य गढवाली कि आदि भाषा है इतिहास व भाषा के दोनों के साथ अन्याय करना होगा यदि ऐसा होता तो अन्य लोक साहित्य में भी हमें इसी तरह क़ी भाषा के दर्शन होते. अबोध बंधु बहुगुणा ने क्योंकर नाथ संप्रदायी काव्य को   आदि-गढवाली काव्य/गद्य नाम दिया होगा ?  . किन्तु यह भी सही है नाथ सम्प्रदायी साहित्य ने मूल गढवाली भाषा को प्रभावित अवश्य किया है. नाथ समप्रदायी साहित्य के प्रभाव ने कुछ बदलाव किये किन्तु गढवाली भाषा में आमूल चूल परिवर्तन नही किया . यदि ऐसा होता तो आज की नेपाली सर्वथा गढवाली से भिन्न होती . हमें किसी भी भाषा के इतिहास लिखते समय निकटस्थ क्षेत्र के कृषिगत या कृषि में होने वाली भाषा /ज्ञान भाषा पर भी पुरा ध्यान देना चाहिए जिस पर अबोध बंधु बहुगुणा ने ध्यान नही दिया कि गढवाली , कुमाउनी और नेपाली भाषाओँ में कृषि गत ज्ञान  या कृषि सम्बन्धी शब्द एक जैसे हैं इस दृष्टि से भी नाथ पंथी साहित्य  गढवाली का  आदि साहित्य नही माना जाना चाहिए!

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आधुनिक कविता इतिहास
यद्यपि गढवाली कविता कि समालोचना एवम कवियों कि जीवनवृति लिखने कि शुरुवात पंडित तारादत्त गैरोला ने १९३७ इ. से की किन्तु अबोध बंधु बहुगुणा को गढवाली कविता और गद्य का क्रमगत इतिहास लिखने का श्रेय जाता है अतः कविता काल कि परिसीमन उन्ही के अनुसार आज भी हो रही है. इस लेख में भी गढवाली कविता काल खंड बहुगुणा के अनुसार ही विभाजित की जाएगी डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने कालखंड के स्थान पर नामों को महत्व दिया जैसे पांथरी युग या सिंह युग .
पूर्व - आधुनिक काल
गढवाली साहित्य का अध्निक काल १८५० इ से शुरू होता है किन्तु आधुनिक रूप में कविताएँ पूर्व में भी रची जाती रही हैं हाँ उनका लेखा जोखा काल ग्रसित हो गया है . किन्तु कुछ काव्य का रिकॉर्ड मिलता है . तेरहवीं सदी में रचित काशिराज जयचंद कि कविता का रिकॉर्ड बताता है कि कविताएँ गढवाल में विद्यमान थीं . डा हरिदत्त भट्ट शैलेश, भजन सिंह सिंह, बाबुलकर , अबोध बहुगुणा, , चक्रधर बहुगुणा एवं शम्भु प्रसाद बहुगुणा आदि अन्वेषकों ने उन्नीसवीं सदी से पहले उपलब्ध (रेकॉर्डेड ) साहित्य के बारे में पूर्ण जानकारी दी है . अत्थ्र्वीं सदी कि कविता जैसे 'मांगळ''गोबिंद फुलारी ' र्घुब्न्शी घोड़ी' पक्षी संघार (१७५० इ से पहले ) जैसी कविताएँ अपने कवित्व पक्ष कि उच्चता और गढवाली जन जीव कि झलक दर्शाती हैं .
गढवाल के महारजा सुदर्शन शाह कृत सभासार ( १८२८ ) यद्यपि बर्ज भाषा में है किन्तु प्रतेक कविता का सर गढवाली कविता में है इसी तरह दुनिया में एकमात्र कवि जिसने पांच भाषाओँ में कविताएँ (संस्कृत, गढवाली, कुमाउनी, नेपाली और खड़ी बोली ) रचीं और एक अनोखा प्रयोग भी किया कि दो भाषाओँ को एक ही कविता में लाना याने एक पद एक भाषा का और दूसरा पद दूसरी भाषा का . ए कवि थे गुमानी पन्त ( १७८०-१८४० )

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                           १८५० ई.  से १९२५ ई. तक गढवाली में आधुनिक कविताएँ लिखने का आरम्भ ब्रिटिश काल में ही शुरू हुआ . हाँ १८७५ ई के बाद प. हरिकृष्ण रुडोला, लील दत्त कोटनाला एवं महंत हर्ष्पुरी कि त्रिमूर्ति ने गढवाली आधुनिक कविताओं का श्रीगणेश  किया यद्यपि इन्होने कविता रचना उन्नेस्विन सदी में कर दिया था इन कविताओं का प्रकाशन ' गढ़वाली ' पत्रिका एवं गढवाली का  प्रथम कविता संग्रह 'गढवाली कविता वली ' में ही हो सका   बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल गढवाली समाज का एक अति महत्व पूर्ण काल रहा है . ब्रिटिश शाशन कि कृपा से ग्रामीणों को शाशन के तहत पहली बर शिक्षा ग्रहण का वस्र मिला जो कि गढवाली रजा के शाशन में उपलब्ध नही था प्राथमिक स्कूलों के खुलने से ग्रामीण गढवाल में सिक्षा के प्रति रूचि पैदा हुई. पैसा आने से व नौकरी के अवसर प्राप्त होने से गढवाली गढवाल से बहार जाने लगे खाशकर सेना में नौकरी करने लगे. पलायन का यह प्राथमिक दौर था. समाज में प्रवासियों  और शिक्षितों कि पूछ होने लगी थी   एवं समाज में इनकी सुनवाई भी होने लगी थी . समाज एक नये समाज में बदलने को आतुर हो रहा था. धन कि अब्श्य्कता  का महत्व बढने लगा था. ब्यापार में अदला -बदली (बार्टर ) व्यवस्था और सहकारिता के सिद्धांत पर  चोट लगनी शुरू हो गयी थी और कहीं णा कहीं सामजिक सुधार कि आवश्यकता महसूस भी हो रही थी स्वतंत्रता आन्दोलन गढवाल में जड़ें जुमा चुका ही था . इस दौर में    सामजिक बदलाव व समाज कि अपेक्षाएं व आवश्यकताओं का सीधा प्रभाव गढवाली कविताओं पर पड़ा . सामजिक उत्थान, प्रेरणादायक , जागरण , धार्मिक , देशभक्ति जैसी ब्रिटी इस समय कि कविताओं में मिलती है. कवित्व संस्कृत और खड़ी बोली से पूरी तरह प्रभावित है यहाँ तक कि गढ़वाली भाषा के शब्दों को छोड़ हिंदी शब्दों कि भरमार इस  युग की कृतियों में मिलती हैं यह कर्म आज तक चला आ रहा है . चूँकि कर्मकांडी ब्राह्मणों में पढने -पढ़ाने का रिवाज था और आधुनिक शिक्षा ग्रहण में भी ब्राह्मणों ने अगल्यार ल़ी अतः  १९२५ तक आधुनिक कवि ब्राह्मण ही हुए हैं
 इस समय के कवियों में रुडोला, कोटनाला पूरी त्रिमूर्ति के अतिरिक्त आत्मा राम गैरोला, सत्य शरण रतूड़ी , भवानी दत्त थपलियाल, , तारादत्त गैरोला, चंद्रमोहन रतूड़ी, शशी शेखारानंद सकलानी, सनातन सकलानी, देवेन्द्र रतूड़ी, गिरिजा दत्त नैथाणी, मथुरादत्त नैथाणी  सुर्द्त्त सकलानी, अम्बिका प्रसाद शर्मा , रत्नाम्बर चंदोला, दयानन्द बहुगुणा , सदा नन्द कुकरेती मुख्य कवि हैं
काव्य संकलनों में गढ़वाली कवितावली ' (१९३२)  का विशेष स्थान है जो की विभिन्न कवियों की कविताओं का प्रथम संकलन भी है . इसके सम्पादक तारादत्त गैरोला हैं और प्रकाशक विश्वम्बर दत्त चंदोला हैं . इस संग्रह का परिवर्तित रूप में दूसरा संग्रह १९८४ म३ चंडोल की सुपुत्री ललिता वैष्णव ने प्रकाशित किया . गढवाली कवितावली गढवाली भाषा का प्रथम संग्रह  है और ऐतिहशिक है किन्तु इस संग्रह में भूमिका व कवियों के बारे में समालोचना व जीवन वृति  हिंदी भाषा में है. गढ़वाली साहित्य की विडम्बना ही है क़ि आज भी काव्य  संग्रहों में भूमिका अधिकतर हिंदी में होती है .

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                            १९२५ से १९५० का काल सामजिक स्तिथि तो वही रही किन्तु स्तिथियों में गुण कारक वृद्धि हुई याने की शिक्षा वृद्धि, उच्च शिक्षा के प्रति प्रबल इच्छा , कृषि पैदावार की जगह धन की अत्यंत आवश्यकता , गढ़वाल से पलायन में वृद्धि, कै सामजिक कुरीतियों व सामजिक ढांचों पर कै तरह के सामाजिक आक्रमण में वृद्धि, सैकड़ों साल से चली आ रही जातिगत व्यवस्था पर प्रहार , स्वतंत्र आन्दोलन में तीब्रता और ग्रामीणों का इसमें अभिनव योगदान , शिक्षा में ब्राह्मणों के एकाधिकार पर प्रबल आघात , नए सामाजिक समीकरणों की उत्पत्ति आदि इस काल की मुख्य सामाजिक प्रवृतियां रही हैं . १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलना भी इसी काल में हुआ और इस घटना का प्रभाव आने वाली कविताओं पर पड़ा . इस काल men  purush vrg का naukari hetu  gdhwaal se bahr rahne se श्रृंगार विरह रस में भी वृद्धि हुई , हिंदी व अंग्रेजी से अति मोह, वाष्तु  शिल्प में बदलाव , धार्मिक अनुष्ठानो में बदलाव के संकेत , कृषि उपकरणों , कपड़ों में परिवर्तन, गढवाली सभ्यता में बाह्य प्रभाव जैसे सामजिक स्तिथि इस काल की देन है प्रवाश में गढ़वाली सामाजिक संस्थाएं गढ़वाली  सह्त्यिक उत्थान में कार्यरत होने लग गयीं थीं  जहाँ तक कविताओं का प्रश्न है सभी कुछ  प्रथम काल जैसा ही रहा . हाँ कवियों की भाषा अधिक मुखर दीखती है और गढवाली कविताओं पर हिंदी साहित्य विकाश का सीधा प्रभाव अधिक मुखर हो कर आया है . अंग्रेजी साहित्य का भी प्रभाव कहीं कहीं दिखने लगता है यद्यपि यह मुखर हो कर नही आई  है . गढ़वाली लोक वृति एवं छ्न्द्शैली में कमी दिखने लगी है . विषयों में सामजिक सुधार को प्रधानत मिली है , विषयगत व कविता शैली में नये प्रयोग भी इस काल में मिलने लगे हैं     इस काल में जन मानस को यदि किसी कवि ने उद्वेलित किया है तो वह है रामी बौराणी के रचयिता बलदेव प्रसद्द शर्मा दीन . रामी बौराणी कविता आज कुमाउनी और गढ़वाली समाज में लोक गीत का स्थान ग्रहण कर चुकी है .इस काल की दूसरी महत्व पूर्ण घटना अथवा उपलब्धि रूप मोहन सकलानी द्वारा रचित गढ़वाली में प्रथम महाकाव्य 'गढ़ बीर महाकाव्य '(१९२७-२८) है महाकवि भजन सिंह सिंह का इस क्षेत्र में आना एक अन्य महत्व पूर्ण उपलब्धि है , कई संस्कृत साहित्य का अनुबाद भी इस युग में हुआ यथा ऋग्वेद का अनुवाद, कालिदास की अनुकृति आदि इस काल के कवियों में तोताक्रिष्ण गैरोला, योगेन्द्र पुरी , केशवa नन्द कैंथोला , शिव नारायण सिंह बिष्ट , बलदेव प्रसाद नौटियाल, सदानंद जखमोला, भोला दत्त देवरानी , कमल साहित्यालंकार , भगवती चरण निर्मोही, सत्य प्रसाद रतूड़ी , दयाधर भट्ट आदि प्रमुख कवि हैं

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                                  १९५१  से १९७५ तक सारे भारत में स्वतंत्र उपरान्त जो बदलाव आये वही परिवर्तन गढ़वाल वा गढ़वाली प्रवाशियों में भी आये , स्वतंत्रता का सुख , स्वतंत्रता से विकाश इच्छा में तीब्र वृद्धि , समाज में समाज से अधिक व्यक्तिवाद में वृद्धि , आर्थिक स्तिथि व शिक्षा में  वृद्धि , राजनेताओं द्वारा प्रपंच वृद्धि आदि इसी समय दिखे हैं   गढ़वाल के परिपेक्ष में पलायन में कै गुणा वृद्धि , manyauderi arthvyvstha  से कई सामजिक परिवर्तन , aurton का प्रवाश में आना , संयुक्त परिवार से व्यक्तिपुरक परिवार  को महत्व मिलना, गढ़वालियों द्वारा , सेना में उच्च पद पाना, होटलों में नौकरी से लेकर आई ए एस ऑफिसर की पदवी पाना , नौकरी पेशा वलों को अधिक सम्मान , कृषि पर निर्भरता की कमी , कई सामाजिक -धार्मिक  कुरुरीतियों में कमी किन्तु नयी कुरीतियों का जन्म , हेमवती नंदन बहुगुणा का धूमकेतु जैसा पदार्पण या राजनीती में चमकाना , गढ़वाल विश्व विद्यालय आकाशवाणी नजीबाबाद जैसे संस्थानों  का खुलना , देहरादून का गढ़वाल कमिश्नरी में सम्मलित किया जाना , १९६९ में कांग्रेस छोड़ उत्तरप्रदेश में संविद सरकार का बनना फिर संविद सरकार से जनता का मोह भंग होना, गढ़वाल चित्रकला पुस्तक का प्रकाशन , उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गढ़वाली साहित्य को पहचान देने, चीन की लड़ाई , मोटर बस रास्तों में वृद्धि, लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक प्रोत्साहन , अंतरजातीय विवाहों की शुरुवात (हेमवती नंदन बहुगुणा व शिवा नन्द नौटियाल उदाहरन हैं ) , जाड़ों में गृहणियों द्वारा परदेश में पति के पास भेजने की प्रथा का आना , पुराने सामाजिक समीकरणों का टूटना व नए समीकरणों का बनना आदि इस युग की विशेषताएं है , चौधरी चरण सिंह द्वारा हिंदी की वकालत हेतु अंग्रेजी विषय को माध्यमिक कक्षाओं से हटाना जैसी  राजनैतिक घटनाओं ने भी गढ़वाली समाज पर प्रभाव डाला जिसका सीधा प्रभाव गढ़वाली कवियों व उंकी कविताओं पर पड़ा    कविता के परिपेक्ष में सामाजिक संस्थाओं द्वारा साहित्य को अधिक महत्व देना , गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली  बन जाना , कवि सम्मेलनों का विकास , नाटकों का मंचन वृद्धि, साहित्यिक गोष्ठियों का अनुशीलन, जीत सिंह नेगी की अमर कृति तू ह्वेली बीआर का रचा जाना, मैको पाड़ नि दीण  और घुमणो कु दिल्ली जाण जैसे लोक गीतों का अवतरण , लोक गीतों का संकलन एवं उन पर शोध, चन्द्र सिंह राही का पदार्पण आदि मुख्य घटनाएँ हैं कविताओं ने नए कलेवर भी धारण किये , इस युग में कई नए प्रयोग गढ़वाली कविताओं में मिलने लगे , पुराने छंद गितेय शैली से भी मोह , हिंदी भाषा पर कमुनिश्ती प्रभाव भी गढ़वाली कविता में आने लगा , अनुभव गत विषय  , रियलिज्म , व्यंग्य में नई धारा, नये बिम्ब व प्रतीक, प्रेरणा दायक कविताओं  से मुक्ति से छटपटाहट   , पलायन से प्रवाशियों व वाशियों के दुःख, शैल्गत बदलाव , विषयगत बदलाव , कवित्व में बदलाव आदि इस युग की देन है और इस युग की गढ़वाली कविताओं की विशेषता भी है , माविय संवेदनायों को इसी युग में नयी पहचान मिली अबोध बंधु बहुगुणा , कन्हया लाल डंडरियाल, जीत सिंह नेगी , गिरधारी लाल थपलियाल कंकाल ' , ललित केशवन, जयानंद खुकसाल बौळया , प्रेम लाल भट्ट , सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी', जैसे महारथियों के अतिरिक्त पार्थ सारथि डबराल, नित्यानंद मैठाणी, शेर सिंह गढ़ देशी, डा गोविन्द चातक, गुणा नन्द पथिक, भगवन सिंह रावत अकेला, डा शिव नन्द नौटियाल, महेश तिवाड़ी ,शिव नन्द पाण्डेय प्रमेश, राम प्रसाद गैरोला, जगदीश बहुगुणा किरण , महावीर प्रसाद गैरोला, चन्द्र सिंह राही, डा उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी', डा उमा शंकर थपलियाल 'सतीश',  ब्रह्मानंद बिंजोला, भगवन सिंह कठैत , महिमा नन्द सुन्द्रियाल, सचिदा नन्द कांडपाल, रघुवीर सिंह रावत , डा पुरुषोत्तम डोभाल, परुशराम थपलियाल, मित्रानंद डबराल शर्मा , श्रीधर जम्लोकी, जीवा नन्द श्रीयाल, कुला नन्द भारद्वाज 'भारतीय' मुरली मनोहर सती गढ़कवि, वसुंधरा डोभाल, उमा दत्त नैथाणी , सर्वेश्वर जुयाल, अमरनाथ शर्मा, विद्यावती डोभाल, बर्ज मोहन कबटियाल , चंडी प्रसाद भट्ट  व्यथित , गोविन्द राम सेमवाल , जयानंद किशवान, शम्भू प्रसाद धश्माना , जग्गू नौडियाल , घनश्याम रतूड़ी, धर्मा नन्द उनियाल, बद्रीश पोखरियाल, जयंती प्रसाद बुदाकोती , पाराशर गौड़ जैसे कवि मुख्य हैं इनमे से कयिओं ने आगे जा कर कई प्रशिध कवितायेँ गढ़वाली कविता को दीं जैसे पाराशर गौड़ का इन्टरनेट मध्यम में कई तरह का योगदान !

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कई उपलब्धियों और सामाजिक व काव्य आन्दोलनों का युग १९७६- से २०१० तक
सन १९७६ से २०१० तक भारत को कई नए मध्यम मिले और इन माध्यमों ने गढ़वाली कविता को कई तरह से प्रभावित किया . यदि टेलीविजन/ऑडियो विडियो कस्सेट माध्यम ने राम लीला व नाटको के प्रति जनता में रूचि कम की तो साथ ही आम गढ़वाली को ऑडियो व विडियो माध्यम भी मिला जिससे गढ़वाली ललित साहित्य को प्रचुर मात्र में प्रमुखता मिली .
माध्यमों की दृष्टि से टेलीविजन , ऑडियो , विडियो, फिल्म , व इन्टरनेट जैसे नये माध्यम गढ़वाली साहित्य को उपलब्ध हुए . और सभी माध्यमों ने कविता साहित्य को ही अधिक गति प्रदान की .
सामाजिक दृष्टि से भारत में इमरजेंसी , जनता सरकार, अमिताभ बच्चन की व्यक्तिवादी-क्रन्तिकारी छबि , खंडित समाज में व्यक्ति पूजा वृद्धि, समाज द्वारा अनाचार, भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति; गढ़वालियों द्वारा अंतरजातीय विवाहों को सामाजिक स्वीकृति, प्रवाशियों द्वारा प्रवाश में ही रहने की (लाचारियुक्त ?) वृति और गढ़वाल से युवा प्रवाशियों की अनिच्छा , कई तरह के मोह भंग, संयुक्त परिवारों का सर्वथा टूटना, प्राचीन सहकारिता व्यवस्था का औचित्य समाप्त होना, ग्रामीण व्यवस्था पर शहरीकरण का छा जाना ; गढ़वालियों द्वारा विदेश गमन ; सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठानो में दिखावा प्रवृति, पहाड़ी भू भाग में कृषि कार्य में भयंकर ह्राश; गों के गों खाली हो जाना , आदि सामाजिक प्र्वर्तानो ने गढ़वाली कविताओं को कई तरह से प्रभावित किया हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा इंदिरा गाँधी को चल्लेंज करना जैसी घटनाओं का कविता पर अपरोक्ष असर पडा . व्यवस्था पर भयंकर चोट करना इसी घटना की एक ष उपज है
जगवाळ फिलम के बाद अन्य फिल्मों का निर्माण ; उत्तराखंड आन्दोलन, हिलांस पत्रिका आन्दोलन , धाद द्वारा ग्रामीण स्तर पर कवि सम्मलेन आयोजन आन्दोलन, प्रथम गढ़वाली भाषा दैनिक समाचार पत्र गढ़ ऐना का प्रकाशन , चिट्ठी पतरी , उत्तराखंड खबर सार , गढ़वाली धाई या रान्त रैबार जैसे पत्रिकाओं या समाचार पत्रों का दस साल से भी अधिक समय तक प्रकाशित होना , उत्तराखंड राज्य बनाना आदि ने भी गढ़वाली कविता को प्रभावित किया .

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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   गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली से देहरादून स्थानांतरित होना व पौड़ी, कोटद्वार, गोपेश्वर , स्युन्सी बैज्रों जैसे स्थानों में साहित्यिक उप राजधानी बनने ने भी कविताओं को प्रभावित किया गढ़वाली कवियों व आलोचकों में गढ़वाली को अन्तर्रष्ट्रीय भाषाई स्तर देने की कोशिश भी इसी समय दिखी कवित्व व कविता की दृष्टि से यह काल सर्वोत्तम काल माना जाएगा और अगास भी देता है आने वाला समय गह्द्वाली कविता का स्वर्ण काल होगा . इस काल में शैल्पिक संरचना , व्याकरणीय संरचना , आतंरिक संरचना- वाक्य, अलंकर, प्रतीक, बिम्ब, मिथ , फैन्तासी, लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना, पारम्परिक लय , शाश्त्रीय लय , मुक्त लय, अरथ लय , में कई नए प्रयोग भी हुए तो परंपरा का भी निर्भाव हुआ .    सभी अलाकारों का खुल कर प्रयोग हुआ है और सभी रसों के दर्शन इस काल की गढ़वाली कविताओं में मिलेंगी . फोरम के हिसाब से भी कई नए कलेवर इस वक्त गढ़वाली कविताओं में प्रवेश हुए यथा हाइकु कवित्व की अन्य दृष्टि में भी संस्कृत के पारंपरिक सिधांत , काव्य सत्य , आदर्शवाद, उद्दात स्वरूप, औचित्य , विभिन्न काव्य प्रयोजन , नव शाश्त्र्वाद, काल्पनिक, यथार्थ्पुरक, जीवन की आलोचना, सम्प्रेष्ण , स्वछ्न्द्वाद, कलावाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, अभिव्यंजनावाद , प्रतीकवाद, अस्तित्व्बाद, धर्मपरक , अद्ध्यात्म्पर्क, निर्व्यक्तिता , व्यक्तिता, वस्तुनिष्ठ -समीकरण , विद्वता वाद ; व्क्रोक्तिवाद, आदि सभी इस युग की कविताओं में मिल जाती हैं    काव्य विषय में भी विभिन्नता है सभी तरह के विषयों की कविता इस काल में मिलती हैं अबोध बंधु बहुगुणा का भुम्याल, कन्हया लाल दंद्रियल का नागराजा (पाँच भाग ) और प्रेम लाल भट्ट का उत्तरायण जैसे महाकाव्य इस काल की विशेष उपलब्धि है कविता संग्रहों में अबोध बंधु सम्पादित शैल वाणी (१९८० ) एवं मदन डुकलान सम्पादित व भीष्म कुकरेती द्वारा समन्वय सम्पादित चिठ्ठी पतरी (ओक्टोबर २०१० ) का बृहद कविता विशेषांक  व अंग्वाळ (प्र्कशधिन जिसमे गढ़वाली कविता का इतिहास व तीन सौ से अधिक कवियों की कवता संकलित है ) विशिष्ठ संग्रह हैं . कई खंडकाव्य भी इस काल में छपे हैं

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अन्य कविता संग्रहों में जो की विभिन्न कवियों के कवियों की कविता संकलन हैं में  गथूनी  गौ बटे (सं. मदन दुकलान  ) , बीजी गे कविता (सं. मधुसुदन थपलियाल,) एवं ग्वै (सं.तोताराम ढौंडियाल )  विशेष उल्लेखनीय मानी जाएँगी . गढवाली कवितावली का द्वितीय संस्करण भी एक ऐतिहासिक घटना है . kumauni , गढवाली bhasahon के विभिन्न kviyon की कविता संकलन एक saath do sankln prakashit हुए हैं dono sangrhon udi ghindudi aur danda kantha के swar के sampaadk gajendr batohi हैं इस काल के कवियों की फेरिहस्त लम्बी है ,पूरण पंथ पथिक ,  मदन दुकलान, लोकेश नवानी , नरेंद्र सिंह negi, heera सिंह rana, नेत्र सिंह असवाल, गिरीश सुंदरियाल, वीरेन्द्र पंवार, जाय पल सिंह रावत 'छपदु डा ', हरीश जुयाल , मधु सुदन थपलियाल, निरंजन सुयाल, धनेश कोठारी ,वीणा पाणी जोशी , बीना बेंजवाल, नीता कुकरेती, शांति प्रसाद जिज्ञासु,  chinmay saayr , देवेन्द्र जोशी , बीना पटवाल कंडारी , डा नरेंद्र गौनियल, महेश ध्यानी , दीन दयाल बन्दुनी, महेश धश्माना , सत्यानन्द बडोनी, डा नन्द किशोर हटवाल, ध्रुब रावत, गुणा नन्द थपलियाल, कैलाश बहुखंडी, मोहन बैरागी, सुरेश पोखरियाल, मनोज घिल्डियाल, कुटज भारती , नागेन्द्र जगूड़ी नीलाम्बर, दिनेश ध्यानी , देवेन्द्र चमोली , सुरेन्द्र दत्त सेमालती, चक्रधर कुकरेती , विजय कुमार भ्रमर, , बलवंत सिंह रावत , सुरेन्द्र पाल,  भवानी शंकर थपलियाल, खुशहाल सिंह रावत, रजनी कुकरेती, दिनेश कुकरेती, श्री प्रसाद गैरोला, राम कृष्ण गैरोला, राकेश भट्ट, महेशा नन्द गौड़, शक्त ध्यानी, jabr सिंह kainturaa , डा राजेश्वर उनियाल, संजय सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँ , डा मनोरमा ढौंडियाल, देवेन्द्र कैरवान, अनसूया प्रसाद डंगवाल, विपिन पंवार, विवेक पटवाल, जगमोहन सिंह जयरा, विनोद जेठुरी , सुशिल पोखरियाल, शशि हसन राजा, हेमू भट्ट हेमू, गणेश खुग्साल, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, डा प्रेम लाल गौड़ शाश्त्री, मोःन लाल ढौंडियाल, सतेन्द्र chauhan, शकुंतला इश्त्वाल, विश्व प्रकाश बौदाई , अनसूया प्रसाद उपाध्याय , राजेन्द्र प्रसाद भट्ट , शिव दयाल शलज, शशि भूसन बडोनी , बच्ची राम बौदाई, संजय ढौंडियाल, कुलबीर सिंह छिल्ब्ट, चित्र सिंह कंडारी, अनिल कुमार सैलानी, रणबीर दत्त, चन्दन, रामस्वरूप सुन्द्रियाल, सुशिल चन्द्र, अशोक कुमार उनियाल यग्य , दर्शन सिंह बिष्ट तोताराम ढौंडियाल, ओम प्रकाश सेमवाल, सतीश बलोदी, सुखदेव दर्द, देवेश जोशी, गिरीश पन्त मृणाल, मया राम ढौंडियाल, लीला नन्द रतूड़ी, रमेश चन्द्र संतोषी, गजेन्द्र नौटियाल, सिद्धि लाल विद्यार्थी, विमल नेगी, नरेन्द्र कठैत, रमेश चन्द्र घिल्डियाल, हरीश मैखुरी,  मुरली सिंह दीवान, विनोद उनियाल, अमर देव बहुगुणा, गिरीश बेंजवाल, ब्रजमोहन शर्मा, ब्रज मोहन नेगी , सुनील कैंथोला , हरीश बडोला, उद्भव भट्ट, दिनेश जुयाल, दीपक रावत, पृथ्वी सिंह केदार्खंदी, बनवारी लाल सुंदरियाल, व एन शर्मा, मदन सिंह धयेडा, मनोज खर्कवाल, सतीश रावत, मृत्युंजय पोखरियाल, हरिश्चंद्र बडोला मुख्य कवि हैं [/color]Regards
B. C. Kukreti

 

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