एक कलम व्यस्त
कुछ पन्ने हैं
मेज पर बिखरे पड़े
हल्की सी धुंधली रौशनी फैलाये हुये
एक कलम व्यस्त अवस्था में पड़ी मिली
कुछ खोजने सोचने में वो मशगूल लगी
कभी उभार देती है वो वो कुछ शब्द
उस मेज पे पड़े खाली पन्ने पर
कभी कबार उस पर सिर्फ बस रेखायें उभरी दिखती हैं
पास ही पड़े कूड़े दान में कुछ पन्ने मोड़े मिले थे मुझे
अपने आप पे गुजरे पल से वो उलझे से गले मिले थे मुझे
उन पर अब शब्द कम थे रेखायें ज्याद खींची मिली
कभी कल्पना उभरी थी उन पर
कभी उसने यथार्त का था किया सामना
जज्बात के अहसासों ने हंसाया कभी तो कभी था उसे रूलाया
अपने गुस्से पर भी आज वो खूब झुंझलाया
कभी करुणा में डूबा मिला कभी वीर रस में वो उभरा
भय उत्पन किया उसने कभी खुद से था वो जब घबराया
अमीरी गरीबी की जंग में कभी उसने खुद को था पाया
कभी भीड़ और कभी अकेले में उसने हर पल खुद को अकेला पाया
माया में फंसा वो कभी यौवन ने उसे भरमाया
लालसा वासना में तृप्त हुआ कभी वो
कभी बृह्मचर्य का कभी उसने ग्रहस्थ जीवन का था पाठ पढाया
सत्य की खोज की उसने कभी झूठ से खुद इठलाया
प्रेम के रस में भीगा वो भी
विरहा के पलों में विरानों में उसका वो लिखा गीत गूंजा
जो लिखा था उस मेज पर
धुंधली रौशनी और
एक कलम व्यस्त अवस्था ने लिखा था
कुछ पन्ने हैं मेज पर
और कुछ पास के कूड़े दान में
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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