Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 448415 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बालकृष्ण डी ध्यानी
March 27 at 11:58am ·
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है..
मेरा आप की दया से , सब काम हो रहा है .....
मेरा आप की कृपा से, सब काम हो रहा है.......
करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है....
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है...
पतवार के बिना ही, मेरी नाव चल रही है....
हैरान है ज़माना, मंजिल भी मिल रही है....
करता नहीं मैं कुछ भी, सब काम हो रहा है...
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है...
तुम साथ हो जो मेरे, किस चीज़ की कमी है.....
किसी और चीज़ की अब, दरकार ही नहीं है......
तेरे साथ से ग़ुलाम अब, गुलफाम हो रहा है......
मैं तो नहीं हूँ काबिल, तेरा प्यार कैसे पाऊँ.....
टूटी हुई वाणी से, गुणगान कैसे गाऊं.....
तेरी प्रेरणा से ही, सब तमाम हो रहा है.....
तेरी प्रेरणा से ही यह कमाल हो रहा है.....
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है.....
तूफ़ान आंधियों में तू ने ही मुझको थामा .....
तुम कृष्ण बन के आये, मैं जब बना सुदामा.....
तेरा करम है मुझ पर, सरे आम हो रहा है.......
करते हो तुम कन्हैया.. मेरा नाम हो रहा है.....
गज के रुदन से प्यारे, थे नंगे पाँव धाये.....
काटे थे उसके बंधन और प्राण थे बचाए.....
हर हाल में भगत का सम्मान हो रहा है.....
करते हो तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है.....
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है....

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बालकृष्ण डी ध्यानी
March 25 at 12:07pm ·
दुर- पास
जो दुर होते हैं वो जाने क्यों पास लगते हैं
जो पास होते ना जाने क्यों वो दुर लगते हैं

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बालकृष्ण डी ध्यानी
March 25 at 10:53am ·
अपने से छुपता रहा
अपने से छुपता रहा
और गैरों से छुपाता रहा
दिया उसने इतना मुझे
फिर भी मैं भीख मांगता रहा
ना समझा था मैं उसे
जो उसे अब मैं समझने चला था
उसके नूर का सारा प्रेम
जब बिखरा हो हर जगह पर
करता भी क्या मैं ध्यानी
उस से ये सब कुछ छुपा कर
देख रहा है वो मुझ को हर पल
बैठा है वो मुझ में ही कहीं पर
अनजान सा फिर राह हूँ यूँ ही
जाना नहीं मैंने खुद को अब तक
साफ़ साफ नजर आ रहा हैं वो मुझे
फिर भी मैं अंधेरों को चाह रहा हूँ
अपने से छुपता रहा ......
बालकृष्ण डी ध्यानी
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बस भूलना चाहत हूँ
बस भूलना चाहत हूँ
खुद को खुद से मैं
याद भी मैं खुद को अब ना कर पाऊं
अब मैं खुद को खुद से भूल जाऊं
बस भूलना चाहत हूँ
बस अब धड़कन ही चले साथ मेरे
ना कोई और शोर करे आ के अब पास मेरे
अपने में ही अब मैं रहना चाहत हूँ
दो घड़ी सकून के स्वास बस लेना चाहता हूँ
बस मैं अपने को भूलना चाहत हूँ
कोई मिटा दे मेरी स्मरण शक्ति
बीते पल की ना हो अब मुझ से गिनती
अब तो सुन लो तुम मेरी विनती
सहन नहीं होता अब मुझसे वो पल
बस बहुत हो गया मुझे मुझसे भुला दो
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस अपने पास पड़े हैं चार दिन
बस अपने पास पड़े हैं चार दिन
(और बाकी कुछ ना था ) ... २
अपना भी खोया था खोया रहा मैं
तमाम उम्र भर जागना था सोया रहा मैं
अब खुद से बेजार बेहिसाब होकर
(मैं हैरान हुआ हूँ परेशान हुआ हूँ )........... २
क्या करूँ मैं अब भी जानो ना
समझ को मैं अपनी पहचानो ना
बुत बनकर रह गया हूँ ये मैं क्या कह गया हूँ
हारा हूँ खुद से अब मैं
(जब मैं जीत ना पाया )... २
ऐसे अपनों ने खींचा मुझको
मेरी बस नकामियों से सींचा मुझको
मेरी अच्छाईयां ना दिखी किसी को
अपने बने चौखटे से
(ना उभर सका मैं )... २
बस पास पड़े हैं चार दिन ........
बालकृष्ण डी ध्यानी
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यूँ ही राहों पे चलते चलते
यूँ ही राहों पे चलते चलते
यूँ ही किस्सा अब हजार हो गया
(मरते हम कभी ) ... २ बस एक पर
पर ये नजरें अब हजारों पे मरने लगी
यूँ ही राहों पे चलते चलते ...
बड़ा सकून आता था
इस दिल को कभी एक ही भाता था
कभी कसमें खाई थी इसने लाख कभी वादे किये थे लाख
जिस पे सकून आता था अब इस दिल को वो भाता नहीं
यूँ ही राहों पे चलते चलते ...
मेरी बता बताओं तुम्हे
या तुम्हरा ही जिक्र अब सुनाऊँ तुम्हे
इन किस्सों में है तुम्हरा नाम भी जोड़ा
ये अगर झूठ है तो आके झुठलाओ मुझे
यूँ ही राहों पे चलते चलते ...
बालकृष्ण डी ध्यानी
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एक कलम व्यस्त
कुछ पन्ने हैं
मेज पर बिखरे पड़े
हल्की सी धुंधली रौशनी फैलाये हुये
एक कलम व्यस्त अवस्था में पड़ी मिली
कुछ खोजने सोचने में वो मशगूल लगी
कभी उभार देती है वो वो कुछ शब्द
उस मेज पे पड़े खाली पन्ने पर
कभी कबार उस पर सिर्फ बस रेखायें उभरी दिखती हैं
पास ही पड़े कूड़े दान में कुछ पन्ने मोड़े मिले थे मुझे
अपने आप पे गुजरे पल से वो उलझे से गले मिले थे मुझे
उन पर अब शब्द कम थे रेखायें ज्याद खींची मिली
कभी कल्पना उभरी थी उन पर
कभी उसने यथार्त का था किया सामना
जज्बात के अहसासों ने हंसाया कभी तो कभी था उसे रूलाया
अपने गुस्से पर भी आज वो खूब झुंझलाया
कभी करुणा में डूबा मिला कभी वीर रस में वो उभरा
भय उत्पन किया उसने कभी खुद से था वो जब घबराया
अमीरी गरीबी की जंग में कभी उसने खुद को था पाया
कभी भीड़ और कभी अकेले में उसने हर पल खुद को अकेला पाया
माया में फंसा वो कभी यौवन ने उसे भरमाया
लालसा वासना में तृप्त हुआ कभी वो
कभी बृह्मचर्य का कभी उसने ग्रहस्थ जीवन का था पाठ पढाया
सत्य की खोज की उसने कभी झूठ से खुद इठलाया
प्रेम के रस में भीगा वो भी
विरहा के पलों में विरानों में उसका वो लिखा गीत गूंजा
जो लिखा था उस मेज पर
धुंधली रौशनी और
एक कलम व्यस्त अवस्था ने लिखा था
कुछ पन्ने हैं मेज पर
और कुछ पास के कूड़े दान में
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बालकृष्ण डी ध्यानी
April 14 at 1:27am ·
सारी बात बताना चाहता हूँ मैं तुमको
सारी बात बताना चाहता हूँ मैं तुमको
पर कुछ बात मैं अपने आप में अपने से छुपा देता हूँ
तकलीफ ना हो अब तुमको उन से कभी
उन बातों को अब मैं अपने सीने में दबा देता हूँ
आंखें मेरी कहती होंगी तुम्हे शायद कभी कभी
पर उन्हें तुम इसलिये नहीं पढ़ पाती होंगी
मेरी मुस्कान मेरे ही चेहरे की आड़ लिये तब
उन चुपके से बहते आँसूं को तुम से छुप देते होंगे
अंदर ही अंदर वो बातें अब मुझ में गढ़ती जाती है
रोज नये तरीके से वो मुझे अब वो छलती जाती है
अंदर ही अंदर उन बातों से मैं अब खोने लगा हूँ
कभी पूरा था सामने तुम्हारे अब मैं आधा होने लगा हूँ
तोड़ रहा है मेरा रिश्ता तुम संग अब वो धीरे धीरे
मेरे किये की सजा शायद अब मिल रही मुझे धीरे धीरे
अब हिम्मत नहीं होती मेरी तुम्हारे सामने खड़े होने की
वो बात छुपाई मैंने क्यों तुम से अब खुद से पछता रहा हूँ
सारी बात बताना चाहता हूँ मैं तुमको .......................
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस अपने पास पड़े हैं चार दिन
बस अपने पास पड़े हैं चार दिन
(और बाकी कुछ ना था ) ... २
अपना भी खोया था खोया रहा मैं
तमाम उम्र भर जागना था सोया रहा मैं
अब खुद से बेजार बेहिसाब होकर
(मैं हैरान हुआ हूँ परेशान हुआ हूँ )........... २
क्या करूँ मैं अब भी जानो ना
समझ को मैं अपनी पहचानो ना
बुत बनकर रह गया हूँ ये मैं क्या कह गया हूँ
हारा हूँ खुद से अब मैं
(जब मैं जीत ना पाया )... २
ऐसे अपनों ने खींचा मुझको
मेरी बस नकामियों से सींचा मुझको
मेरी अच्छाईयां ना दिखी किसी को
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बालकृष्ण डी ध्यानी
April 6 at 9:50am ·
क्यों गुरुर है
क्यों गुरुर है मुझ को मुझ पर इतना
जब जीवन है बस एक टूटा हुआ सपना
फना होना है जब इस मिट्टी को मुझमे
यूँ अकड़ के और मुझे चलना है कितना
ध्यानी

 

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