Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 448121 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बंद तालों की आवाज
बंद तालों की आवाज
गूँजने लगी है मेरे पहाड़ों में आज
हर घर हर गलियारों में
बंद तालों की आवाज
बंद होने लगी है
बंद कर के वो अपनी आवाज आज
खेत और खलिहानों की
बंद तालों की आवाज
बंद बंद सा दिखने लगा है
बंद वो मेरा पुरखों का सुनहरा ताज आज
चाबी के उन कारखानों में
बंद तालों की आवाज
बंद अब सब होता जा रहा है
बंद सब रीति रिवाज कारोबार आज
करने बैठा वो किस का इंतजार
बंद तालों की आवाज
बंद हिर्दय से ना हो जाये वो
बंद अब मेरे पहाड़ों की मीठी आवाज आज
पुकारा लो ना फिर एक बार मुझे
बंद तालों की आवाज
बालकृष्ण डी ध्यानी
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तब मेरी कविता रोती है
जब अक्षर टूटे मेरे
बादलों के फटने से
बहा ले गया उसे कोई
अपनों के होने से
तब वो सिसकती है
अपने को अकेला देख
अकेले वो कोने में बैठ
तब मेरी कविता रोती है
हाथ बढ़ेंगे कुछ दिन
फिर वो एकदम थम जायेंगे
मजाक करने फिर हम से
हमारे तंत्र के पैंसे आयेंगे
उसे देख कर वो
फिर से सिकोड़ जाती है
क्या करें और कैसे जियें हम
तब मेरी कविता रोती है
देख वो नजारा
आँखें अब भी विचलित है
क्या था ये क्या हो गया
ना अपने पे भरोसा होता है
तिलमिलाती है खूब
खूब वो जोर से चिल्लाती है
ऊपर देख वो खुद से सवाल कर जाती है
तब मेरी कविता रोती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अब लौटने का वक्त आ गया है
जरा ठहरो रुको
अब सोचने का वक्त आ गया है
मीलों तक चलते चलते चले अकेले हम
अब ठहरने का वक्त आ गया है
खाली हो रहे उस रिक्त को
अब भरने का वक्त आ गया है
कितना दोष दो गे तुम ज़माने को
अब सफाई देने का वक्त आ गया है
कितना छिपे रहोगे खुद की आड़ में
अब पर्दाफाश होने का वक्त आ गया है
आँखें क्यों झुकी है अब हमारी
अब आँखों को मिलाने का वक्त आ गया है
बैठ दो घडी अब अपनों के साथ
कुछ कर गुजरने का वक्त आ गया है
भीड़ से अकेले निकल के आ जा
अब अपनों से मिलने का वक्त आ गया है
देख खड़ा है अब भी वो शीश उठा कर
अब गले मिलने का वक्त आ गया है
झुक के आ जा अब तो अपने घर को
अब लौटने का वक्त आ गया है
जरा ठहरो रुको
अब सोचने का वक्त आ गया है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस हारा हुआ मैं
बस अपने में ही रहा,अपनों से ही किनारा करके
बस चुनता रहा फूलों को ,काँटों से ही किनारा करके
बस बुनता रहा ख्यालों को,सपनों से ही किनारा करके
बस बहारों को देखता रहा ,खिजां से ही किनारा करके
बस खाली पन्नों को देखता रहा ,रंगो से ही किनारा करके
बस शब्दों को पढता रहा ,भावों से ही किनारा करके
बस रोता रहा , उन आँखों से ही किनारा करके
बस भागता रहा सुख के लिये ,दुःख से ही किनारा करके
बस शिकायतें की , जवाबों से किनारा करके
बस हारा हुआ मैं ,अपनी जीत से ही किनारा करके
बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो मेरा अपना
माथा टेकना बातें दोहराना
मुझे सब अब निराशा दे गया
नाम का अपना बनकर वो मुझे
जीने का झूठा बहाना दे गया
पत्थर दिल से इनायत की थी मैंने
वो मुझे जुदाई का सहारा दे गया
वो दोस्त था मेरा बस मेरा मुझे
जलन का पूरा सजो सामान दे गया
अंत में हुआ कुछ ऐसा साथ मेरे
वो सबसे ऊँचा मुझे मकाम दे गया
ग़म का अंधेरा ऐसा देकर मुझे वो
मेरे वीराने को वो रोशन कर गया
प्रतिबिंब ढूंढ़ता है अब उसका
जिसने सौंर्दय जिस्म नाकारा कर गया
पहाड़ों का पत्थर बन बैठा हूँ अब मैं
मेरे अहंभाव का वो किनारा बन गया
अस्तित्व की कश्ती में मुझे बिठाकर
काल्पनिक यथार्थ में वो भेद कर गया
मिथ्या जीवन की बस यही पहचान है
उन रस्ते में मुझे वो बेसहारा कर के गया
बालकृष्ण डी ध्यानी
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की तुम रूठ ना जाना
लौटकर आओगे ,मिलकर गीत गाओगे
एक तरना नया नया ,एक दिवाना नया नया
कली जो फूल बनी है ,नाजों से वो पली है
गुल्सिताँ ने उसे खिलाया,मुस्कुरा के वो चली है
खुले खुले हुये गेसू हैं ,घिर गयी हो बदलियां
झुकी मेरी वो निगाहें,गिराये जैसे बिजलियां
इन नाचते क़दमों में,मौसम का है खज़ाना
हर एक के लब पर,अब मेरा ही है फ़साना
झूमना मचलना मेरा ,अब यूँ बदल बदल के
धड़क रहा है दिल मेरा ,अब सम्भल सम्भल के
रुक ना जाये मोड़ पर,कहीं अब ये मेरा ज़माना
साँसों को कह दे इतना ,की तुम रूठ ना जाना
बालकृष्ण डी ध्यानी
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मन की बात होंठो पे लाओ
मन की बात होंठो पे लाओ .. २
कहना है जो वो कह जाओ
मन की बात होंठो पे लाओ .. २
रूठो ना ऐसे ना अकेले हो जाओ
क्यों छुपा रखा है दर्द वो दिखलाओ
बात करो अपने से अब तुम ही बतलाओ
नांदा ना बनो तुम अब बात मान भी जाओ
मन की बात होंठो पे लाओ .. २
लब पर आये ना वो शब्द दिखलाओ
चुप ऐसे ना अपने आप से तुम घिरते जाओ
थोड़ा सा ही क्यों ना हो वो उसे जतलाओ
गुस्सा छोड़ो अब तुम बात मान भी जाओ
मन की बात होंठो पे लाओ .. २
ऐसे में घिर जायेगी तेरे चहुँ ओर उदासी
फिर ना साथ आयेगा तेरे कोई संगी ना साथी
फिरता रहेगा तब फिर अपने में कहीं गुम सा
बन जायेगा सबके लिये तो एक बूत सा
मन की बात होंठो पे लाओ .. २
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अब की बरसात में
बस अपने थे वो
जो सपने थे वो
देख ना पाये हम उन्हें साथ में
अब की बरसात में
क्या बात हुयी
ये भी ना जान पाये हम
अपनों के हाथों की अग्नि को भी
ना पार पाये हम
अब की बरसात में
क्या रात थी वो
क्या दिन था वो
ना जाने क्या वो बात थी
वो भी बोल ना पाये हम
अब की बरसात में
रोना ना ना कुछ खोना
जीवन तो एक सपन सलोना
उस सपन सलोने में
इस बार ना झूल पाये हम
अब की बरसात में
जागे हैं या सोये हम
हलचल हुयी सब खोये हम
अब ना हम मिल पाएंगे तुम से
इस अगली बरसात में
अब की बरसात में
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बहुत कम लोग होते हैं
बहुत कम लोग होते हैं
जो दूसरों के दुःख में रोते नहीं
तब वो हमदर्द हो जाते हैं
उनकी तकलीफ
उनको अपनी लगती है
तब वो हम पथ हो जाते हैं
यातना में आँसूं गिरना
ये तो सब में आम बात है
तब वो उन्हें टिप जाते हैं
फर्क बस इतना
उन में और बस हम में है
हम भूल जाते है वो काम कर जाते है
बिना किसी लोभ के
वो सत्कर्मी अपने मार्ग में
जीवन के लिये धन्य हो जाते हैं
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बालकृष्ण डी ध्यानी
June 28 at 9:37pm ·
आज कल
बस तेरी कमी खलती रही
आँखों की ये नमी कहती रही
आज कल आज कल
राज रहता नहीं वो साथ मेरे
कोई कहता नहीं आके वो पास मेरे
आज कल आज कल
मर्ज़ क्यों कम अब होता नहीं
दर्द क्यों आकर अब हँसता नहीं
आज कल आज कल
रास्ते मिल गये मंजिल मिलती नहीं
जो छोड़ गये उनके निशाँ दिखते नहीं
आज कल आज कल
चाँद बहुत बेताब है अकेला
सूरज भी अब धधकता है बहुत अकेला
आज कल आज कल
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