Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447838 times)

devbhumi

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ऐसे तेरी कमी सी खलती रही

ऐसे तेरी कमी सी खलती रही
जैसे ये हवा सी चलती रही
यादों और लम्हों में तू रहती है
ऐसे ही रोज मेरी शाम ढलती है

अभी वो सूरज नहीं डूबा है
अभी भी जरा सी वो शाम बाकी है
सोचों, मैं खुद से ही अब लौट जाऊंगा
ऐसा क्यों ना मेरे साथ होता है

रोज क्यों में नाकाम सा हो जाता हूँ
अपने आप से ही बदनाम हो जाता हूँ
बहाना ढूंढ़ता हूँ मैं इस जमाने से
अपना नाम ही मैं अपने से भूल जाता हूँ

चांद तारों की रात अब जगने लगी
वो भी अब मुझसे देखो कहने लगी
सो जाओ रात हो गयी है काफी
निंदिया मेरी अब क्यों भटकने लगी

ऐसे तेरी कमी सी खलती रही

बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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आज इसलिए चुप हूँ मैं

ज़िंदगी बड़ी नादान
दर्द ही दर्द सुबह शाम
कहो तो कह दूं इस ज़माने से दास्तान
उसमे आएगा बस तुम्हारा नाम
आज इसलिए चुप हूँ मैं..

किस बात से बिगड़ गये हो
कोई इल्ज़ाम इस दिल पे लगा जाते
तुम रूठ कर जाने से पहले
कुछ हमारी सुनते कुछ अपनी सुना जाते
आज इसलिए चुप हूँ मैं..

दिल से ये दुआ है
की तुम्हारी ज़िंदगी निखर जाए
तलाश है तुझे जो वो तुझे नज़र आए
खुदा करे वो खुद तुम्हारी तलाश में आए
आज इसलिए चुप हूँ मैं..

कुछ रिश्ते बाँध जाते हैं
अंजाने ज़िंदगी से जुड़ जाते हैं
कहते हैं उस रिश्ते में दोस्ती होती है
जब दिल से दिल मिल जाते हैं
आज इसलिए चुप हूँ मैं..

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कैसे कहूँ साला

कैसे कहूँ साला
प्यार मेरा वेस्ट हो गया
दर्द जब अपना लिखा
वो साला कॉपी-पेस्ट हो गया

वाल पे सजा कर रोज उसे
टैग कर कर लोगों को सताया
कितना समझया मनाया उसे पर
साला लास्ट में मैं ब्लॉक हो गया

इस फेस बुक के साथ में अब तो
दुखड़ा मेरा देखो एडजेस्ट हो गया
एक का साथ छूट मुझ से
दूसरा साला देखो सेट हो गया

ये सोशल क्रांति
अब मेरे साथ यूँ हो गयी
ख्वाब बंधे थे परी के संग
साला बूढी से डेट हो गयी

कैसे कहूँ साला
प्यार मेरा वेस्ट हो गया

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ये कैसी नफ़रतें हैं

ये कैसी नफ़रतें हैं
ये कितनी नफ़रतें हैं
ये दिल क्यों माने ना
ये दिल क्यों जाने ना
क्या हासिल है
जब खो गया मुस्तकबिल
ये दिल फिर भी हारे ना
ये दिल फिर भी जीते ना
ये कैसी नफ़रतें हैं
ये कितनी नफ़रतें हैं

सात संदूकों में भरी है
दफना कर के भी उभरी है
ये कैसी दीवारें हैं
ये कैसी मुश्किलें हैं
क्यों राहों में पड़ी हैं
लहू के रंगों में
क्यों चारों तरफ बिखरी हैं
ये कैसी नफ़रतें हैं
ये कितनी नफ़रतें हैं

नफ़रतें ही अब
ख़ात्मे का सबब बनेंगी
सत्य पर झूठ डालकर
अब वो कारोबार करेंगी
एक वाद तब तक कायम रहेगा
जब तक एक सच्चा रहेगा
फिर तो बस नफरतों के
बीज ही नफ़रतें पनपेंगी
ये कैसी नफ़रतें हैं
ये कितनी नफ़रतें हैं

जलाकर भी ना बुझेंगी
दफना कर भी वो फिर उठेंगी
कभी वो रस्सी में झूलेंगी
कभी वो चूल्हे में फूकेंगी
गैरों को छोड़ो अपनों को भी भूलेंगी
नफ़रतें इतनी हैं अगर सीने में दबी हो
वो चेहरे पर धड़कन के संग चलेंगी
ये कैसी नफ़रतें हैं
ये कितनी नफ़रतें हैं

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जिन्हें प्यार है वतन से

जिन्हें प्यार है वतन से
वो देश के काम हैं आते
लहू अपना बहा कर वो
माँ चरणों में वो शीश चढ़ते
जिन्हें प्यार है वतन से .....

देश के वो दीवाने देश के वो ऐसे मस्ताने

ज़माने भर में मिलेंगे आशिक
पर वतन से खूबसूरत कोई सनम नहीं होता
नोटों से लिपट कर मरे हैं कितने
पर तिरंगे जैसा कोई कफ़न नहीं होता
जिन्हें प्यार है वतन से .....

देश के वो दीवाने देश के वो ऐसे मस्ताने

सीनें में मेरा ज़ुनू है
ऑखों में है झलकती मेरी देशभक्ति
दुश्मन की वो साँसें थम जाए
आवाज में मेरी ऐसी खनक है
जिन्हें प्यार है वतन से .....

देश के हम दीवाने देश के हम मस्ताने

करता हूँ माँ ये गुजारिश
तेरे सिवा कोई बंदगी न मिले
हर बार जन्मों इस धरा पर
ना तो फिर ये जिंदगी ना मिले
जिन्हें प्यार है वतन से .....

देश के हम दीवाने देश के हम मस्ताने

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बोतल छुपा दो तुम कफ़न में मेरे

बोतल छुपा दो तुम कफ़न में मेरे
चुप चुप के मैं वहां पे पीया करूँगा
मांगेगा जब हिसाब मुझसे वो
फिर संग उसके जाम मैं लिया करूँगा
बोतल छुपा दो तुम कफ़न में मेरे

वो आंखें बड़ी ही प्यारी थी
जहाँ दिल टूटा मेरा मेरी मोहब्बत हारी थी
वो बातें उसकी बड़ी ही भारी थी
शराब के दौरों में मेरे वो अब भी जारी थी
बोतल छुपा दो तुम कफ़न में मेरे

मुफ्त में ही अब तो हम मर गये यार
ये दो आंखें उनसे क्यों हो गयी चार
आशिक हो जाते हैं पागल इस प्यार में
बाकी कसूर पूरा कर देती है ये इन्तजार
बोतल छुपा दो तुम कफ़न में मेरे

मगर वो दिलरुबा क्यो समझती नहीं
बिना मयकदे के अब शाम गुजरती नहीं
महफ़िल मेरी अब यूँ ही सजती रही
जिंदगी रूठती रही और मय छलकती रही
बोतल छुपा दो तुम कफ़न में मेरे

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हर रोज

हर रोज .....हर रोज
खुद को अपडेट करता हूँ
ये दिल अपना ....ये अपना दिल
तेरे लिये..... तेरे लिये
फिर भी जाने ना क्यूँ
बिना तेरे .....तेरे बिना
वो एरर बता देता है.
वो क्यों ऐसे दगा देता है.
हर रोज .....हर रोज

किसी ने कहा किसी ने कहा
इश्क "गर्म चाय" की प्याली है ...प्याली है
और ये दिल और ये दिल
पारलेजी का बिस्किट है ....बिस्किट है
हद से .. ज्यादा डूबेगा तो वो डूब जायेगा
वो अपने से ही तब टूट जायेगा छूट जायेगा
हर रोज .....हर रोज

उम्र की ये राह है उम्र की इस राह में
जज्बात बदल जाते हैं औकात बदल जाते हैं
वक़्त तो एक आंधी ये कैसी आंधी है
जिस से हालात बदल जाते है ....बदल जाते है
सोचता हूं....सोचता हूं कुछ करूँ कुछ करूँ
इस करने में उनके अंदाज बदल जाते हैं
कमबख्त मेरी सैलरी आखिर में आते आते ही
तो उनके सारे ख्याल बदल जाते हैं
हर रोज .....हर रोज

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आज वो मुझसे

आज वो मुझ से मेरे जन्नत में टकरा गयी
देखो मेरे पहाड़ों में वो हवा आज कहाँ से आ गयी
तुम्हारे दिल से निकली वो आवाज़
मेरे पहाड़ों से टकरा कर वो मेरे पास आ गयी

तेरे पास तो बस वो प्यार है तेरा
मेरे पास तो बस वो इन्तजार है मेरा
कम बोलो और सब कुछ बता दो
ऐसा पहाड़ी प्रेम है मेरा

चेहरे पे हंसी और हम अपने ग़म को भुला दें
आ जाओ पास साथ मेरे तुम तुम्हें जीना सीखा दें
यही राज है ज़िंदगी का जी लेंगे संग संग
पहाड़ों में आकर चलो अपनी तकलीफ भुला दें

याद रखने के लिए मुझे यंहा से कोई चीज ले लें
अपनी तस्वीर मुझे देकर मेरी जिंदगी ले लें
मैं तो खड़ा हूँ खड़ा अपने पहाड़ों के साथ साथ
मोड़कर जब तुम देख लोगी तो मेरी बंदगी ले लें

आज वो मुझ से मेरे जन्नत में टकरा गयी .....

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पत्थर की ये दुनिया

पत्थर की ये दुनिया
मेरे जज़्बात नही समझती, .... २
दिल में मेरे क्या है
वो मेरी बात नही समझती, .... २

तन्हा तन्हा तो चाँद भी है
इन लाखों सितारों के बीच में भी
पर उस चाँद का दर्द भी तो
ये रात भी तो नही समझती
वो मेरी बात नही समझती,

जख्म भरे सीने भर जायेंगें आप ही से
आसूं मोती बन बिखर जायेंगें आप ही से
मत पूछना किस-किस ने धोखा दिया
वरना कुछ चेहरे उतर जायेंगें आप ही से
वो मेरी बात नही समझती,

ना मिलता गम तो ये अफसाने कहाँ जाते
दुनिया ना होती तो चमन के वीराने कहाँ जाते
चलो अच्छा हुआ कोई अपना ग़ैर निकला
अगर सभी अपने होते तो बेगाने कहाँ जाते
वो मेरी बात नही समझती,
मेरे जज़्बात नही समझती, .... २

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ठोकर ना लगा पत्थर नही मैं

ठोकर ना लगा पत्थर नही मैं
हैरत ना कर मंज़र नही मैं
नजरों में तेरी अब भी कुछ भी नही मैं
ठोकर ना लगा पत्थर नही मैं

अपनी कदर में कुछ भी नही मैं
हासिल हैं जिन्हें उन में कहीं नही मैं
आँखों के आँसूं बस उस में ही बसी मैं
ठोकर ना लगा पत्थर नही मैं

मन बेकल है क्यों ये मेरा नही है
आज और कल भी वो मेरा नही
फर्क तब भी था फर्क वो अब भी है मेरा
ठोकर ना लगा पत्थर नही मैं

बंद बंद ही रही खुल ना सकी कभी मैं
खुले में भी बस बंद बंद ही रही मैं
हासिल है मुझे सब हाथ में कुछ भी नहीं मैं
ठोकर ना लगा पत्थर नही मैं

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