Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 235611 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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स्वप्न टूटने से पहले
जिंदगी के लिए
इस जिंदगी में
तड़पा मै हर किसी के लिए
मौत के ख्याल ने बैचेन किया
फिर जिंदगी के लिए
घुट-घुट कर पीना छोड़ दिया
कुछ ऐसे जीना छोड़ दिया
विदा लिया इस मयखाने से
फिर जिंदगी के लिए
बहुत भटका मैं राहों में
अपनों की उन निगाहों में
पैगाम भरी उन आहों में
फिर जिंदगी के लिए
अश्कों की कहानी है ये
वादों की हैरानगी है ये
ये मेरी दीवानगी है ये
फिर जिंदगी के लिए
ध्यान देना ही होगा
ख्याल लेना ही होगा
स्वप्न टूटने से पहले
तुझे जवाब देना ही होगा
फिर जिंदगी के लिए
बालकृष्ण डी ध्यानी
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एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
जाते जाते मुझको बहुत वो याद आती है
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
कई पल सिमटें हैं उस एक कल में
कई घावों पर मरहम लगे हैं उस एक पल में
चहारदीवारी के चादर में लिपटे मखमल में
रोटी के गोल बाहों को ले सिमटे उस बदन में
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
मेरे होने का वो अहसास दिला जाती है
मेरे पास से होकर जब भी वो गुजर जाती है
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
कुदरत का खेला है या आँखों की मस्ती है
समन्दर के गगन में भरी जैसे चांदनी की गगरी है
आइना है मौसम का वो या हरी घास है क्षणभर की
वो मेरी माटी की रिवायतें सरहदें वो मेरी अनकही
मिट ना सकेगी वो याद तुम्हारी असीम आकाश हो तुम
मैं और मेरे शब्दों में ऐ नये-रिश्तें हैं मेरे और तुम्हरे
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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दिल से निकली है तेरी तो बात कर
दिल से निकली है तेरी तो बात कर
अपने पर्वतों के अब साथ साथ चल
अंकुरित हो जाए तो ख्याल कर
उस पेड़ और पुष्प से तो प्यार कर
अंतर अंचल का नहीं रहेगा अब
अंत तक इस अंतर से ना बात कर
अंधकार से रौशनी का ना इन्तजार कर
दिये की लौ पर भी तो कभी ऐतबार कर
अक्सर मिल जाती हैं दो नदियां साथ साथ
भेद दिल में है तेरे ना उसका व्यापर कर
अगाध प्रेम है अपनी मातृभूमि से हमें
अचानक आजा तू इसका अहसास कर
अधूरा रह जाता है सोचता है जो मन
मन से सोचना बंद कर दिल से बात कर
अनुराग देखना है देखो फूलों भँवरे में
अपने अंतर्मन के अलंकारों से शृंगार कर
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस मोदी जी के साथ चल
आज बंद कल बंद
हो रहा है देखो ऐ कैसा बंध
निर्धन, के पेट पर
कंचन का लेपा हो कोई गंध
थरथराहट है कंही
कंही पर मची है ऐ जंग
कट्टर कटु कटाव का
आया है देखो कैसा क्षण
कठिन कठोर कड़ी है राह वो
जिस पर चल पड़े हैं वो कदम
कमजोर है कोई तो
खिंच ले वो अपने कदम
कागज ने देखो आज ये
कैसा बदला है अपना रंग
कला में कर्मठ थे जो
हो गये हैं अब वो सब दंग
कलुष राजनीती है ये या
शूल भरा वो फूलों का हार
किनारे पे खड़ा इन्तजार कर
या लहरों को चीरता आगे निकल
काला कुबेर है अब सर्प बना
कोशिश से अपने तू कैद कर
ये भी ना हो सके तुझ से तो
बस मोदी जी के साथ चल .......
बस मोदी जी के साथ चल। ........
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बदलते चेहरों में
बदलते चेहरों में
एक चेहरा मेरा भी है
कैसे कर दूँ मैं खुद से मना
वो चेहरा मेरा ही है
बदलते चेहरों में ............
धुप थी वो बड़ी
छाया थी वो घनी
चेहरे पर घिरती झुर्रियों ने थी
वो बात मुझ से आ के अब कही
बदलते चेहरों में ............
कैसे बदलते हैं ये चेहरे
लगा के खुद पर ही अब पहरे
बह जाती है वो धार फिर भी
ना बस में तेरे ना वो बस में मेरे
बदलते चेहरों में ............
बालकृष्ण डी ध्यानी

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मैं मैं नहीं हूँ
एक पीपल था
कुछ पत्तियां थी
कुछ ज्यादा शोर था
एक दादा था
एक दादी थी
कुछ वो और था
एक गाँव था
एक शहर है
मन कहीं और है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बुझा बुझा सा वो दीपक
बुझा बुझा सा वो दीपक हरबार ऐ कहे
लपक झपक ऐ ज्योति यूँ ही बनी रहे
हवाओं के रुख को जरा कर दे उधर
अन्धकार को थोड़ा जग से कर दूं उधर
हजार चिराग़ाँ के संग एक घर बनाया था मैंने
माटी माटी ईट संग संग अपनापन लगाया था मैंने
भूल हो गयी है किधर ना जाना ऐ दुनिया काँटों की डगर
यहाँ भी दरख़तों के साये में से धूप लगती है अक्सर
बाहें फैलाये मैंने खुदा से कितनी इल्तजा भी की
मेरी एक भी अर्जी उसके पास क्यों कर ना मंजूर हुयी
मैंने रात भर सोच अपने हाथों को माथे पर रख कर
बात समझ में आ गयी रात भर लड़ता दीपक देखकर
बुझा बुझा सा वो दीपक हरबार ऐ कहे
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दो पल ही काफी हैं
दो पल ही काफी हैं
जीने के लिए , संग तेरे रहने के लिए
धड़कन बन दिल मे तेरे
सदा धड़कने के लिए दो पल ही काफी हैं
ख़्वाबों का कारवां हो
या दिलों की दास्तान
उजली हो कोई किरन
या सावन की बूंदे हो रिमझिम
दो पल ही काफी हैं
कोई गीत कोई मीत बन जाने के लिये
खुशबु बन हवाओं संग
घुल जाने के लिए दो पल ही काफी हैं
खुशियों की घटाओं में
कोरना है बस नाम तुम्हारा
उन रंग भरी सारी दिशाओं से
चुरा लाना है वो रोशन सितारा
दो पल ही काफी हैं
सकून से अब मर जाने के लिए
दिखता रहे तेरा नूर सा चेहरा
उस आखरी पल दो पल ही काफी हैं
बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरी वेदना
एक रोज़ तड़पकर
इस दिल को मैंने थामा
उस दिल ने ही दिल खोलकर
खुद को ही लिख डाला
जब मैं घर को जाऊँगा
बस याद वंहा से ले आऊंगा
आंखें अब भी भीगी भीगी है
आंखें तब भी भीगी भीगी होंगी
प्याज की थिचोणी थिंच आऊंगा
नमक मिर्च लसुन की चटनी पिस आऊंगा
उस साथ को पास से भर के लाऊंगा
उस में सुखी रोटी में भर भर के खाऊंगा
बुजर्गों का वंहा खूब आशीर्वाद पाउँगा
भाई बहनो पर मैं अपना प्यार लुटा आऊंगा
दोनों हाथों से यादों को सिमट कर जाऊँगा
ऐसे ही मैं अपनी वो वेदना छिपाऊंगा
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मेरा कोरा पन्ना
बिखरे बिखरे हैं सब यंहा नजारें
पुलकित हैं जमीं के सब सितारे
कुछ कम है कुछ ज्याद
बस मौसम का है यंहा इरादा
कोई अनकही बात ना रह जाये
कोई चुपके से तो आ कह जायें
शब्दों का अर्थ चलो मिलकर खोजें
बिखरे पन्ने कंही बिखरे ना रह जाये
बिखरे रंग हैं मेरी इन फिजाओं में
बिखरे हुए इन अक्षरों की बाहों में
ख़लिश है मेरी नजरों में मेरी कविता
ऐ मोती कहीं यूँ ही बिखरे ना रह जाये
गांव मेरा क्यों बिखरा पड़ा हैं
बिखरे बेरों ने अब भी कुछ नहीं बिगड़ा
आईना बस उसने तुम्हे दिखाया है
कोरा पन्ना उसने है बस छुपाया
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