एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
जाते जाते मुझको बहुत वो याद आती है
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
कई पल सिमटें हैं उस एक कल में
कई घावों पर मरहम लगे हैं उस एक पल में
चहारदीवारी के चादर में लिपटे मखमल में
रोटी के गोल बाहों को ले सिमटे उस बदन में
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
मेरे होने का वो अहसास दिला जाती है
मेरे पास से होकर जब भी वो गुजर जाती है
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
कुदरत का खेला है या आँखों की मस्ती है
समन्दर के गगन में भरी जैसे चांदनी की गगरी है
आइना है मौसम का वो या हरी घास है क्षणभर की
वो मेरी माटी की रिवायतें सरहदें वो मेरी अनकही
मिट ना सकेगी वो याद तुम्हारी असीम आकाश हो तुम
मैं और मेरे शब्दों में ऐ नये-रिश्तें हैं मेरे और तुम्हरे
एक हलकी सी आवाज जब छु जाती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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