Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 237865 times)

devbhumi

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फिर ऐ वक्त नहीं रहता है

दो बोल मीठे बोल ने में अब वक्त तो लगता है
प्रभु को मन में बिराज ने में अब वक्त तो लगता है

अब इतना आसान  नहीं लोगों को समझाना
भूले पथिक बाट में लाने में अब वक्त तो लगता है

साँसों का सार खेल है बस आना और आकर  चले जाना
इस आने जाने भेद पहचान ने में अब वक्त तो लगता है

आंखें बंद कर के  देख ले दुनिया का ऐ सारा तमाशा   
तमाशे में  क्या रोल है तेरा जान ने में अब वक्त तो लगता है

कितना अच्छा काम है जरूरतमंदों  की मदद करना
नेकी के इस पथ पर चलने को अब वक्त तो लगता है

बस कहना है मेरा इतना फिर बाद  में ना पछताना
एक बार ऐ वक्त गुजर जाये फिर ऐ वक्त नहीं रहता है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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एक अकेला

एक अकेला इस देश में
कभी मंदिर में कभी मस्जिद  में
उस रचेता को ढूंढता है
बस ढूंढता है

दिन  खाली खाली  बवंडर
रात जैसे बस  सोच का कुआं
इस झूठ और सच की लड़ाई में
दुओं का  असर क्यों कमजोर पड़ा

अपना यंहा पर कोई मिलता नहीं
जो भी मिला  वो अनजान  मिला 
एक अकेला इस देश में
कभी मंदिर में कभी मस्जिद में
उस रचेता को ढूंढता है
बस ढूंढता है

इन शून्यहीन  रंगों की गर्दी में
हर रंग यंहा  पर भागों  भागों  में बँटा  मिला
किसी का रंग यहां पर  हरा हुआ
तो किसी का रंग भगवा से रंगा मिला

दूर लहराते उस तिरंगे पर
सैनिक की शाहदत  का ही नाम लिखा मिला
एक अकेला इस देश में
कभी मंदिर में कभी मस्जिद में
उस रचेता को ढूंढता है
बस ढूंढता है

भेद भाव आज कल इतना दिखता नहीं
जात  पांत का मुद्दा क्यों फिर रह रहकर उठा
पहाड़ों से पलायन होते सड़कों से  पूछा जब मैंने
विकास का मुद्दा आज भी मुझे खोया सा मिला

दूर तक फ़ैली उस ख़ामोशी में
जब मैंने अपनी तन्हाई को महसूस किया ,महसूस किया
एक अकेला इस देश में
कभी मंदिर में कभी मस्जिद में
उस रचेता को ढूंढता है
बस ढूंढता है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ईनि कबि मि सोच्दु

ना सुधि ढोल
मैल में परि दादा
जिंदगी न खूब
में परि ढोली छे

इल्जाम लगाण कै परि
सबि अपड़ा बिरणा क्वी ना
छीटगा उड़ा मेरा  बी
बल वैथे कख लुकाणु रे

कैर काडी की थकिगियूं
हौल जोति की भगिगियूं
मौल सरेणा को मि
सैर बाटा मा हरगियूं

कख ले जाणी छे
को जाणा बथों कै छोर
जिकोडी मेरु उमाळ
में मा ही ऊ समै जांद

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कुछ पुरानी यादें भेज रहा हूँ

कुछ पुरानी यादें भेज रहा हूँ
जो दिल में दबी पड़ी थी बरसों 
वो बातें भेज रहा हूँ
कुछ पुरानी यादें

वो कांच की चूड़ी जो टूटी थी
वो बाली जो तेरी छूटी थी
उनको दबा के रखा था कब से मैंने
तुम से छुपाके रखा था मैंने
(वो सब ही भेज रहा हूँ ) ..... २
कुछ पुरानी यादें

छोटी छोटी  हैं वो सब बातें
लम्बी अकेली वो रातें ,मुलकातें
सब को सम्भल  के रखा अब तक
इस दिल से लगा के रखा है अब तक
(उन सब को भेज रहा हूँ ) ..... २
कुछ पुरानी यादें

जितनी तडप है और उतना ज्याद प्यार
इनके सहारे ना चलता अब घर संसार
दो रोटियों  को अब खुद से कमाने चला हूँ
थोड़ा सा अपना संसार बसाने चला हूँ

कुछ पुरानी यादें भेज रहा हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
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सच्ची बात

यूँ तो बातें बहुत है मगर
पर जी नहीं है कहने का
चलो आज कुछ  देर
और 'खामोशियों' को सुने
पर ये वक्त नहीं चुप रहने का 
यूँ तो बातें बहुत है मगर ......

ये अनोखी बात  हो जायेगी
जब दिल दिल से शुरवात हो जायेगी
चलो  हम भी उपवास करलें मगर
पर जी नहीं है भूखे रहने का
यूँ तो बातें बहुत है मगर ......

अनुमान मेरा  बहुत ही सही
पर अर्थ का विस्तार ना मै कर सका
छलकते  आंसू मेरे रुक रुककर मगर
पर ये वक्त नहीं अब  रोने का
यूँ तो बातें बहुत है मगर ......

हर चीज में नफरत है
और  हर आँखों में जहर है घोला
ऐ  सिलसिल रोका नहीं
बस अब निरंतर चलता रहा
रोकने की कोशिश मैं  कर दूँ  मगर
अकेला दिखूंगा और मैं  अकेला  ही चला
यूँ तो बातें बहुत है मगर ......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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उस अपने बचपन को ढूंढ रहा हूँ

जी गया जिंदगी  उम्रभर
मगर जीना अब भी नही आया
जिन राहों पे पहले अकेले चला था मैं
उन पर अब भी  चलना  नहीं आया

ना जाने क्या मैं बुन रहा था
खोया था क्या मै  जिसे  ढूंढ रहा था
अपनी ही परछाइयों में जा उलझा
उस साथी बचपन को ही मैं ढूंढ रहा था

उस पुराने घर के चक्कर लगये कई
अपने बेगाने मुझे बहुत याद आये कई
दर्द मेरा उठ उठकर उन्हें बुलाता  रहा
वो छूटे टूटे किस्सों में बस याद आते रहे
 
ढलती हुई साँझ है बस आनंद है सृजन
साफ सुथरी खुरदरी चौड़ी सी वो लंबी सड़क है
बस उस उतरते ढलना पर अब तेज दौड़ता है ये मन
खिड़की का शीशा बस अब उतार लिया है  मैंने

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अच्छा लगता  है

अब हर एक अपना बेगाना
अच्छा लगता  है
कितनी और दूर तक हमको
अब अकेले ही यूँ चले जाना
अच्छा लगता  है

बड़े ही कठिन है वो रास्ते
और  उनकी वो  खोई हुई मंजिल
अब उन खोई मंजिलों की  खोज में
खो जाना, अच्छा  लगता  है

मन के धुप को 
ना फुर्सत मिली ना छाया मिली
फिर भी रिश्तो कें  मरूथल जंगल में
बादलों का बरसना, अच्छा लगता  है

शब्दों से खाली होकर
अपने अंतर्मन से खूब रो रोकर
उन संवेदनाओं पर
कुछ लिख जाना ,अच्छा  लगता है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कैसे समझे हम

कैसे समझे हम
अपना  कौन है कौन परया
जीवन के इस मझधार में

बाहर कौन  है भीतर कौन  है
कुंठित मन के कुठार में
कैसे समझे हम

किस  के लिये क्या सही है
जोड़ घटना कहाँ मापदंड की  घड़ी है
कैसे समझे हम

टिक टिक करती आगे बढ़ती
धुप छाँव की जो लड़ी है
कैसे समझे हम

टुकड़ों में बटी हुई है ज़िंदगी
जोड़े कैसे उसे कैसे उसे मोड़े
कैसे समझे हम

बालकृष्ण डी ध्यानी
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गुपचुप मन से

गुपचुप मन से
कोई कुछ कह जाता है
पथ का पथिक
आगे ऐसे ही बढ़ जाता है

मन का भार
कैसे हल्का होगा  अब
जब मन का अश्रु
निश्छल हो बह जाता है

नया सृजन कर खुद से
कुछ अब ऐ मेरे मन
पुराने सृजन पर जब
चल पथिक बनकर

उस पथ पर
अंकित पगों के पग
कितने गद्य और पद
मिलेंगे तुझे  एक एक कर

गुपचुप मन से  ...........

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बड़ी तकलीफ हुई होगी

बड़ी तकलीफ हुई होगी
तुमको मेरे ना आने से
मैं भी मजबूर था महबूब
यंही किसी जमाने से

तकलीफ देती हैं अब
वो बीती पिछली बातें
उन लम्हों संग बीती वो
भूली बिसरी मुलाकाते

ना याद कोई जोड़ी थी
ना शहर कभी कहीं  सोया था
बस रातेँ  मेरी  जगी ऐसे
जैसे आँखों को सजा मिली थी

यूँ तब्दीली तुझ में देखकर
दिल को बहुत अफसोस हुआ था
खा लिया था मैंने धोखा पर तुझे
दुःख में देख दिल अब भी रोया

बड़ी तकलीफ हुई होगी

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