Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 235359 times)

devbhumi

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माटु  ऐ ज्यू

माटु माटु ह्वैगे ऐ ज्यू
ज्यू तू बता दे तू मि कया करुं
कैथे पठायूं  कैथे रैबार द्यूं
कै दगडी मि अफी से बात करुं

भोरिगे नि वा रिता भांडा
छलै छलै कि ऊ कैगे नि आदा
उतेन्दु कैरी कि ऊन धरींयूँ चा
वै भांडू मां ही ऐ ज्यू अड्यूंचा

रैगी सुदी मेरा ऊ सुपनिया
छूटगे क्वी अगन्या क्वी पिछन्या
कख खोज्यू ऊथे मि ऐ ज्यू
जो बनिगयां अब मेरा सुपनिया

माटु माटु ह्वैगे ऐ ज्यू  ........

बालकृष्ण  डी ध्यानी
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आज देहरदून सड़कों  पर

आज देहरदून सड़कों  पर
हजूम जवानों का चला
मांगने हक  अपनी सरकार से
वो अपना अधिकार चला

रोटी ,रोजगार मांग रहे हैं
क्या गुन्हा है उनका
क्यों लाठियां भाँज रहे  हो
अहसास आज जगा है उनका

सब कुछ त्याग  कर  आज
अपने पथ पर वो आगे  बढ़ रहे हैं
कितना धैर्या रखेंगे तो दे बता 
दो वक्त रोटी का फैसला  दे सुना

आज सड़कों  पर  ......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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धनतड़ाम

इन बी लगदु मिथे
उन बी लगदु
जैल जैल जन बोल द्याई
तन बी लगदु

झट कटिलै घास को
रुमक पौड़ीगे पौर डंडा को
बाघ लगिगे पल छाला को
ज्यू  डरीगे अल छाला को

यख मां बी निछू मि 
वख मां बी निछू
आंखीं न जख जख देखद्याई
तख  बी निछू मि 

देखणा को बांदा थे
छोरा ऐगे  सब दारा को
अब ज्वाणी कख लुकाओं
बालपन छूटगे कै धारा को

मन  लगि इन  मेला मां
कन  लगि गे इन झमेला मां
आज त नाची गैईलू
बल भोळ कया होलु जिबन मां

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरु राम

मेरु छे  मेरु राम
दुजी ना मेथे क्वी अब काम
जैल जख बी जन बी बोलद्याई
वैकु ह्वैग्याई मेरु राम

सुदी .. २  बी तू बोल दे
अपड़ी गिची अफि बटी
एक बारी अफि से खोल दे
बाटू देखे दे वैथे वै को  धाम

जीकोडी माँ जैंकी  बैठ्यां छन
कनुडि जो आंदा जांदा छन
ओं आंख्युं मां तैरिकी भेंटी ले
अपड़ो सुख कैमा तू खोजी ले

दुई आखर बसी  बल  ऐ माया छन
क्दगा भवसागर तैरिकी  ऐ आया छन
डुबकी लगे की  तू  तैरि जा 
अप्डू भार दगडी तू ऐमा समैई जा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस बढ़ता चल

बनने से ही पहले बिगड़ जाते हैं
सब काम मेरे
खिलने से ही पहले उजड़  जाते हैं
सब बाग़ मेरे

हताश नहीं हूँ ना नाराज हूँ
कुछ काम पड़े होंगे  शायद प्रयास मेरे
दुगने जोश संग फिर उभर आऊंगा  मैं
प्यास हूँ  उसी नीर से प्यास बुझाऊंगा अब मैं

कुछ कर गुजर ने की ठानी है
मेरी  नहीं ऐ मेरे मन की मनमानी हैं
उसने  अब कुछ  सोच लिया
अपने  विचारों को उस पथ की ओर मोड़ दिया  है

मुझे पता है मेरे पथ में अन्धेरा घना है
बड़ी कठिनाइयों  बाद मुझे वो रास्ता मिला है
दूर कहीं दूर हल्की सी किरण दिखी हैं
(मेरी आंखें में बस उसकी  झिलमिल गड़ी हैं ) ... २

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेर थिंच्वणि

थिंची थिंची कि
ऐ थिंच्वणि मिल बनाई चा
कबि मुला दगडी
कबि आलू दगडी विंथे खूब सिजाई चा

लूण मर्च खूब डाली
किंकरलो घियु मां  विथे उबाली
पाणी पंधेरा को ठंडु मिठु सैरी की
मिन विंकी  तिस बुझाई चा

कूट पीसी पियाज टिमाटर को
 ऐ झौळ मिन पकाई चा
हल्दू मसालु डाली की ऐमा
मिल ऐकू जैईका  बड़ाई चा

जीबन बि बल ईनि छ गैल्या
कबि लूँण कबि मर्च छ गैल्या
कबि ठंडु मिठु पाणी पंधेरा को
औरि जनि जैईका इन मसलों को

थिंची थिंची कि ..............

बालकृष्ण डी ध्यानी
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भैर बैठ्यूं छा

भैर बैठ्यूं छा
ऊ भितर ऐग्याई
मन को मेरु मैल
मिथे मैलु कैग्याई

कागद मां उकेरी
काला आखर लिख्या छन
डाब डबी आंख्युं न
जै  सुपनिया देख्यां छन

दुई घड़ेक को टैम चा
बल जी दगडेतों को मेल चा
जैल जमै दे वैल रमै दे
अपड़ी सोच थे जैन  समजे दे

भली भली ऐ  बात च
बल भली भली ऐ लोक छन
भली ही होळू  ओं को
जैंकू भला भला सा सोच छन

भैर बैठ्यूं छा .....

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मेरे ईश्वर ना देना फिर से ये नश्वर शरीर

जब दुखड़ा अपना मै तुम्हे सुनता हूँ
ना जाने कौन सा असीम सुख मै पाता हूँ
आंखों से अपने आंसुओं को पिघला देता हूँ 
अनचाही अनुभति मै कहाँ से लाता  हूँ

बस द्वार में तेरे अब खुद को खड़ा पाता हूँ
जब मै तुम में पूरी तरह से खो जाता हूँ
ऐ कैसा रिश्ता मैं तुम संग अब निभता हूँ   
मै अब भी तुम को ठीक से समझ नहीं पाता हूँ

मधुर संगीत हो तुम या कल कल नदी की धार
आसमान  हो तुम  या हरित वतस्ला मेरा आधार
किस आकार निरकार में बसे हो तुम मेरे नरंकार
तुम्हारे आकलन में ही ये जीवन गुजार देता हूँ

मेरे ईश्वर ना देना फिर से ये नश्वर शरीर
इसमें कपट छल घमंड अभिमान का मल भरा
क्या करना इस विहीन पिजरे को अपना  कर 
मुझे  मुक्त  रहकर  हरपल  बस तुम्हरे पग चूमना

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कन निंद पौड़ीं चा

कन निंद पौड़ीं चा
इन अँखियों मां मेरी
देख्दु छो मि सबि थे
मि ह्वैग्यु अब अजाण

मिथे त जौ मिली
मिली सब यख अजांण
मि खोज्णु लग्युं छो
मेर हरची अपड़ी पछाण

ना चिठ्ठी ना पतरी
ना क्वी अब रन्त रैबार
बुढेणु लग्युं छ्या दूर
अब सुबेरा को घाम

ई दुंन्यादारी मा
सबि इन लग्यां छन
पूछी जबै विं थे मैन
नि ओं पास घड़ेक को टैम

कन निंद पौड़ीं चा  ......
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तू रहता है कहाँ

सीने में जलन
राहों में उठा धुंआ
जांत पांत पर ऐसी फैली 
क्यों हर तरफ आग  है

दिल अफवाओं का समंदर है और
जान इतनी सस्ती जितनी सस्ती जुबां
कह दे कोई भी तुरंत मान ले
झट पत्थर उठा पट उस सर पे तान दें

कभी मैं जला
कभी तू जला
बुझती हुई रखा से
फिर रहरहकर क्यों धुंआ उठा

आरक्षण की इस आग में
कोई भी दूध का धुला ना रहा राजीनीति के बजार में
किस ने राम  को बेचा किसी ने रहीम को
अब तू बता दे मेरे मौला तू रहता है कहाँ

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