Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447159 times)

devbhumi

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चल आपने को ढूँढे आज

चल आपने को ढूँढे आज
रह ना जाये कोई सहर हम से बाकी

दिल में है अक्सर वो
धड़कने का बहाना है वो ढूँढे
अपनों के संग गुजरी जंहा साँसें
अक्सर वो ठिकाना है ढूँढे

शब का ना  कोई छोर है
रह ना जाये कोई छोर हम से बाकी

यही जीवन है इसमें
ये हरित दिप जलता रहे निरंतर
अंधेरा दूर हटेगा जरूर
बस उन हवाओं में डंटा रह

रंगों की इस दुनिया में
रह ना जाये कोई रंग हम से बाकी

ख़ाक  मिल जाऊंगा ऐसे
रह जाऊंगा बस ज़मीं बनकर
हरित पल्व पल्वित होंगे जब गिरेगी
तुम नभ से झर झरकर
 
चल आपने को ढूँढे आज

बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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जब बरखा ऐई

कख भत्ते ऐई सोर
मैसे मिथे लुछी गे
गड़गड़ांद सरग बाजी
छप छपाई कैई गे

मेसे  पूछी सरगा न
अब कब बौडी अऊं
घाम पड्युं ऐंसु यानि
कब तै भीजैई जऊं

बरखा कि हेर मा
आज लग्यां छन सबि
कै कुनि कै गोठ्यार
यन ऐठ्यां छन सबि

जन कडैई मां जिलेबी
पिंगली तली गे होली
पाणी बिसाण बिसगे
तैळ तांसु तिसण लगे

गौळि मेर पीजाण लगे
सरग  खौज्यांण लगे
रिता रिता बादल देखिकि
मन निरसा हुन लगे

कख भत्ते ऐई सोर

 बालकृष्ण डी ध्यानी
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फंसा हों अपने ही बने रचे तू मकड़ी के जाले में

हर सीने में हर एक  पल दफन है
ना जाने  कंहा ढूंढे  क्या इसका  मर्ज़ है
पढियाँ लग गयी हैं हमे इसे सुलझाने में
अक़्ल कैद ना जाने किस कैदखाने में   

पल पल बस पल से लड़ती सांसे मिलेंगी
चुपचाप हर पल किसके लिये वो निकलती दिखेंगी
यंहा से  दूर बहुत दूर वो धुंआ सुलगता उठता होगा
जब गीली लकड़ीयों से होकर वो खुद  गुजरता होगा

उँगलियों से मैं लिख जाऊंगा सुनहरे उस पत्ता पर
उभरे उन ओस के बूंदों को उन गीले अक्षरों में जब
उन्मुक्त तब आँगन होगा जब वो स्वच्छ मन होगा
विकास पर जब झूठ धूल का ना कोई मोल होगा

व्यस्तात उभरी है अब इतनी मस्तिष के खानों पर
अपने मिल जाते हैं हर ओर टुकड़ों और भागों पर
दुनिया का एक कोना भी अब अछूता ना होगा कंही
बस हम ढूंढ नहीं पाये अपने और अपनों के कोनों को

फंसा हूँ  अपने ही बने रचे तू मकड़ी के जाले में
छिद्र है हर ओर सहूलियत  है तूझे हर ओर जाने में
घिरा हूँ मै अपने में ही कंही कुछ  इस कदर खुद में
क्या फर्क पड़ता है धुँआ उठ रहा है किसी भी खाने से 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कुछ

मैं थोड़ा  उन्मुक्त होकर
फिर अल्प जीवन जी लेता  हूँ

बहुत नहीं पर  इने-गिने
बीते पलों के संग हॅंस खेल लेता  हूँ

जीवन पथ हो आलोकित
बह जाये कहीं दूर वो गम का समंदर

दुःख सताने लगे अँधेरे 
तो उजाले के गीत फिर गुनगुना लेता हूँ

यही जीवन की कठनाई है
जब बह जाती है पुरवाई तरुणाई  की

वो पीछे का लंबा रास्ता
फिर एका एक दुर्ष्टि गोचर होने  लगता है

रास्ता लंबा होने का तब
सब सबब  नजर आने लगता  है

किंचित में ही सुख था समाया
झर बहते है नीर ,अवलंब जब समझ  आता  है

मैं थोड़ा  उन्मुक्त होकर   .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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चेतना

मैं स्मृति से बंध  जाता  हूँ
जब दूर उस से चला जाता हूँ

रेखांकित कर फुसला देती है वो
जब उस से एकल में हो जाता हूँ

यथार्थ बड़ा ही निष्ठुर है अब 
स्मरण रखना मुश्किल हो जाता है

श्वास लेने में भी दिक्क़तें होती है अब
धुमिल सुध ले फिर भी वो चली आती है

यादों के बाज ऐसे कहाँ  पाये जाते है
इस उम्र में भी मैं सोच में पड़ जाता हूँ

मैं स्मृति से बंध  जाता  हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ऐ ज्यू

जखि देखि
तवा परत
वखि बिताई
सारी रात

सोलह बरसे
ऐगे  ज्वानि
बिगरैलि पुंग्ड
ख़ोजण लग्युं छ

जु नि धोलु
अपनोँ मुख
ऊ क्या देलो
हैका सुख

अगास लग्युं
खगास जिकडो
खण्न क्या वैला
पैली पौध

गाँठु अल्झी गे
बाँटू भागी गे
हरच्युं अपड़ो ज्यू
वैल क्या खोजी दे

खूटा खूटी
बल जी जपाट
बण बनिकी
बल हिटिले

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मैंने ही सत्य छुपा के रखा है

मैंने  ही मेरे इस मन से सत्य छुपा के रखा है
आंखें हंसती , होंठ  भी हँसते दुःख दबा के रखा है

ये जीवन की एक कहानी
थोड़ी सी नई है थोड़ी सी पुरानी
मैंने ही देखे मेरे वो सपने मैंने  तोड़ के रखें हैं

मैंने  ही मेरे इस मन से सत्य छुपा के रखा है

दर्द कहीं मैं व्यक्त न करता
जीवन मेरा ऐसे ही आगे बढ़ता
दुःख ने दिये जो दर्द मैंने हर्ष फुलाये रखा है

मैंने  ही मेरे इस मन से सत्य छुपा के रखा है

जी रहा हूँ मैं  जीने के लिये
आज का जीवन कल मरने के लिये
आस का मैंने आज भी दिप जला के रखा है

मैंने  ही मेरे इस मन से सत्य छुपा के रखा है

समय सबके लिये एक सा नहीं होता
दुःख में भी मैं अकेला नहीं होता
होगा सब कुछ मेरे जैसा धैर्य संभले रखा है


मैंने  ही मेरे इस मन से सत्य छुपा के रखा है
आंखें हंसती , होंठ  भी हँसते दुःख दबा के रखा है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस इतना ही

कुछ नही.... तेरी याद आयी है बस इतना ही
कलेजे में सिया धागा निकला है बस इतना ही

आंखों में तिनका है गया बोला ना
उसकी की हस्ताक्षर की कॉपी मिली बस इतना ही

तेरे बिना ये जीवन जीना अब बहुत मुश्किल है
जाते जाते उसने मुझसे बोला बस इतना ही

यादें मेरी कभी हिलती  डुलती नहीं थी
गालों पर आती है लाली  बस इतना ही

इंतज़ार करना दिल का जलना खत्म होता ही नहीं है
प्रतीक्षा करके बरसों बीत गये बस इतना ही

बालकृष्ण डी ध्यानी
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फसलों क्या लेकर बैठे हो तुम

फसलों क्या लेकर बैठे हो तुम
दूध होकर भी यंहा पर पानी मंहगा
जनता के प्रश्नो को बस ढक दो
जला दो  धर्मद्वेष की जलती गंगा

बाबर, बाबरी, जिन्ना होंगे कितने ,
विषय पड़े यंहा पर बहुत से सारे
इतिहास  के किताबों के पन्नों से
खोद के उसको  ऐसे निकलो ना रे

अंधेर उससे ना फैलाव ऐसे
की प्रश्र्न लुप्त हो जाएंगे सारे
आज की यतनाओं के सारे प्रश्न
ढोंग की पंक्ति में खत्म होंगे ना रे

झूठ मशालों के मदतों से
प्रचारा का प्रकाश ना फैलाओ  रे
चुनाव के पहले खुद जला के युद्ध
ना फैलावा धर्मद्वेष की भाषा रे

फसलों क्या लेकर बैठे हो तुम

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बदलाव दिखता नहीं

विलुप्त होती संस्कृति मेरी
निर्जन हो  रहे पहाड़ मेरे
आंखों में आज भी बचा है क्यों
खारे पानी बस अहसास तेरा

बारिश फिर भी होगी जमकर
नाले वाली वो नदी फिर भी बहेगी
अंकुर कंही कोई पल्वित होगा
मेर मन के समान जंगल में 

खुद की खुशी के लिए है
संतुलन इनका बिगाड़ दिया
स्वादयुक्त ठंडा पानी पिता था कभी
उसे बेस्वाद  हमने बना दिया

जंगल पूरी तरह खाली हैं
जो बचे भालू,बाघ इंसानों के आदि हैं
कभी  रहते थे हम पहाड़ों में
आज  हम भी शहरों के आदि हैं

सब कुछ ऐसे बदलता नहीं
घोषणा होती है प्रदेश संभलता नहीं
एक चेहरा  आता है एक चेहरा छुपाने
बस पलायन होता है बदलाव दिखता नहीं

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