फंसा हों अपने ही बने रचे तू मकड़ी के जाले में
हर सीने में हर एक पल दफन है
ना जाने कंहा ढूंढे क्या इसका मर्ज़ है
पढियाँ लग गयी हैं हमे इसे सुलझाने में
अक़्ल कैद ना जाने किस कैदखाने में
पल पल बस पल से लड़ती सांसे मिलेंगी
चुपचाप हर पल किसके लिये वो निकलती दिखेंगी
यंहा से दूर बहुत दूर वो धुंआ सुलगता उठता होगा
जब गीली लकड़ीयों से होकर वो खुद गुजरता होगा
उँगलियों से मैं लिख जाऊंगा सुनहरे उस पत्ता पर
उभरे उन ओस के बूंदों को उन गीले अक्षरों में जब
उन्मुक्त तब आँगन होगा जब वो स्वच्छ मन होगा
विकास पर जब झूठ धूल का ना कोई मोल होगा
व्यस्तात उभरी है अब इतनी मस्तिष के खानों पर
अपने मिल जाते हैं हर ओर टुकड़ों और भागों पर
दुनिया का एक कोना भी अब अछूता ना होगा कंही
बस हम ढूंढ नहीं पाये अपने और अपनों के कोनों को
फंसा हूँ अपने ही बने रचे तू मकड़ी के जाले में
छिद्र है हर ओर सहूलियत है तूझे हर ओर जाने में
घिरा हूँ मै अपने में ही कंही कुछ इस कदर खुद में
क्या फर्क पड़ता है धुँआ उठ रहा है किसी भी खाने से
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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