Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447061 times)

devbhumi

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खिड़कियाँ

खिड़कियाँ खुलती बंद होती है
बंद गली के
आखिरी मकान से
पास में खड़ी उस  दूकान पे
एक हल्की सी मुस्कान देती है
खिड़कियाँ .......

हाथ से छू कर
वो नीला आसमाँ  ओढ़ लेती  है
अनगिनत पड़े अनुभूतियाँ के
बिखरे निशाँ खोज लेती है 
खिड़कियाँ .......

बस यूँ ही
अब वो आरम दे जाती  है
अँखियों को वो काम दे जाती है
मटकती रहती यंह वंह
मचलती है और पैगाम दे जाती है
खिड़कियाँ .......

रोशनी बखेरती है
एक अनछुआ दायरा उकेरती है
पर्दों के सरकते सरकते
कितने छुपे भेद खोल देती है
खिड़कियाँ .......

बंद खिड़की दबी जुबान है
खुली खिड़की कोई रहता उस मकान है
अपने घर की खिड़कियाँ भी खोल लो यारो 
यंहा से मिलती  खुशी भी बड़ी कमाल है
खिड़कियाँ .......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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आज फिर वो

मुझे आज फिर वो बुलाने लगे
मेरे पैर फिर से थिर थिरने लगे हैं

खोल कर अपनी बाँहें
खड़ा  हूँ उन से मिलने
नये  गीत फिर क्यों वो
गुनगुनाने लगे हैं 

शिकायते तुम  से
सैंकड़ों हैं मगर
फिर प्यार जागा
आप  ख़फ़ा होने लगे  हैं

पहली सी मोहब्बत में
महबूब ने मांग
बचपन ने छोड़ा दामन
जवानी ने थामा

किस्से काहनी की दुनिया से
अब दूर होने लगा हूँ
जब से तुम से मिला हूँ
मैं मजबूर होने लगा हूँ

मुझको गुनहगार
अब तुम बनाने लगे हो
आजाद  था मै
अब कैद कराने  लगे हो

 एक दिन करोगे याद
जब हम याद आने लगेंगे
छोड़ कर जब हम तुम्हे
तुम से दूर जाने लगेंगे

मुझे आज फिर वो बुलाने लगे 
जाऊं  की नही  .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मन के दर्द उभरते रहे

मन के दर्द उभरते रहे
अश्कों के संग विचरते रहे
 
आखिर क्यों है ऐसा क्यों है
मन और अर्थ के बोध में इतना अंतर क्यों है

अधूरा कोई नहीं
पूरा भी यँहा कोई नहीं

जहां से की थी शुरुआत कभी मैंने 
वँहा पर पड़ी है अब भी क्यों कर गीली जमीन

रूप-अरूप में मेरा मन धुँधलाया
अँधेरे की  रोशनी में और ऐ  भेद गहराया

फीकी चाँदनी में मेरे कदमों के सरसराते हुये
चीड़ के पत्तों से बस अब आते जाते  हुये

अपनी जमीन मुझे बस यूँ मिलती बिछड़ती रही
सच झूठ के वादों में मुझे यूँ ही घेरती रही

मन के दर्द उभरते रहे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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दूर तक

मेरी आवाज पहुंचे दूर तक
उन पहाड़ों के टूक तक

खमोशी जंहा  दम तोड़ देगी
लगता है  मुझ से रिश्ता जोड़ लेगी

हर दरे से जा ऐ  हवा मिलती आ
मजबूर है तू ना मुझे  यूँ  ठगा

सुख दुःख को यूँ  जोड़ कर
उस मोड़  में मुझे अकेला ना छोड़ कर

मुझे पता है इसमें  यह भेद है गहरा
मुझ में ही कहीं लुप्त है वो तेरा  पहरा

आ अब इन आँखों में आ तू समा
ना रूठ ऐसे  मुझ से ना यूँ  दूर जा

देखों तुझे हर पल अब यूँ ही मैं
मुझे इन किस्से  कहनियों  में ना उलझा

आवाज ही मेरी तेरी  पहचान है
अपने पहाड़ों से टकरा कर फिर मुझे सुना 

मेरी आवाज पहुंचे दूर तक

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कुछ पल ठहर 

कुछ पल ठहर , ऐ  हम सफर
बातें करें हम आप  की 
मन तू  मचल  ना ऐसे मचल
परवाह करें हम आप  की 

रुकती नहीं जो दौड है
दौडती जा रही जो पहर पहर
बन जा नजर पल पल नजर
रखें  तुझे हम  प्यार से

भूल न जाओ तुम , ये है  डर
बस डर जाऊं  मै इस ख्याल से
थोड़ा निखर और निखर
बन जा तू इस दिल आफताब से

सजने लगी फुलों की डगर
तु ने छु आ जब उस आँख से
ढुलक ने लगी है मेरी  नजर
तेरे हल्के से उस एहतराम से

बढ़ने लगी है मदहोशीयां
ना जाने किस इजहार  से
छाने लगा है अब ये नशा
पहले पहले तेरे खुमार से

कुछ पल ठहर ......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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सुनो
 
ऐनक से ढुलक ढुलकर
शबनम जब गिरती है
अधरों से लटक लटकर
जाने क्या कहती है

बादल हैं बड़े घने घनेरे
छाये  हैं  खूब  अँधेरे
छम छम उन बूंदों की
बरसात क्यों अकेली है

बातें ना वो कुछ करती है
चुपचाप क्यों रहती है
अपने से  सिसक कर
शोर क्यों करती है

ख़ामोशी उसकी देखो
अब भी कुछ कहती है
ऐनक से ढुलक ढुलकर
शबनम जब गिरती है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कुछ दिनों बाद

डला से पत्तों सा आज मै जब गिरने लगा
होने लगा हूँ अपने आप से अब मैं बरबाद क्यों

सोचता हूँ  मौन मेरा अब ये क्यों टूटता नहीं
बिछड़ रहा हूँ अपनों से ही जब आज मैं

ये हवायें नीलाम होंगी अब तो देख
भाव जिस तरह पानी का चढ़ है आज कल

कुछ भी हो सकता है महज कुछ पलों में  यंहा
जिन्दगी हकीक़त है उसे फलसफा ना समझ

अलग थलग जब सब रहने लगे हैं अपनों से भी
दोष अपना है  क्यों दोष सब पेड़ पर मढ़ने लगे

समझना है तो उसे बरीकी से पढ़ना अब जरूरी है
ध्यानी उड़ता बादल है बस  बरसकर गुजर जायेगा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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थोड़ा दूर अकेले में

मैं तो बैठा हूँ अब भी  वहीं 
थोड़ा तुम से दूर अकेले में
मिलने आ जाना तुम कभी
थोड़ा मुझ से  दूर अकेले में

रास्ता है दोनों का वहीं   
थोड़ा तुम से दूर अकेले में
मंजिलें भी हैं दोनों की वहीं 
थोड़ा मुझ से दूर अकेले में

कभी की थी हम ने वो बातें
थोड़ा तुम से दूर अकेले में
अब भी मुझ में  हैं वो बातें
थोड़ा मुझ से  दूर अकेले में

प्रारभ है मेरा अब भी  वहीं 
थोड़ा तुम से दूर अकेले में
अंत भी मेरा पड़ा है वंही
थोड़ा मुझ से  दूर अकेले में

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस तुझे  यहां  कुछ दे जाना

कुछ नमी है ,कुछ कमी है
परिचित रंग हैं जो इस जिंदगी से 
कुछ विचार हैं , कुछ सुझाव हैं
बस सोचना फिर आगे बढ़ना  है

तिमिर जब  घना हो
आगे का पड़ाव तब क्या हो

अग्नि में जब धधक हो
आगे फिर क्या सबक हो

अमृत की जब बहे यूँ  धारा
ना तनिक दनुज सा असर हो

दायरा अपना खींच लेना तुम
उत्साह का ना तब अंत हो

अश्रु हैं जहां वंहा नमी है
समझना अपने में ही कंही कमी है

हर्ष उल्लास की खूब फसल हो
अमृतफल सा उस पर  असर हो

आवेग में ना तब तुम आना
हर पग तब सोच कर बढ़ना

खिन्न मन तू होना जाना
दृष्टांत तुझे खुद को बनाना

खिला हुआ उपवन हो
हराभरा निखरा गुलशन हो

प्रयत्न बस तेरा इतना हो
बस तुझे  यहां  कुछ दे जाना

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो पीपल का पेड़

वो पीपल का पेड़
अब कट चुका है
कई किस्सों में देखो
वो अब बँट चुका है

कई सदियों से वो
अकेला ही खड़ा था
सुनसान रातों
खामोश दिनों से वो  घिरा था

कई थे जो उसे जो उसे
जानते और पहचानते थे
सुख दुःख में आ कर
तारों जैसे टीम टिमाते थे

उसने अपने जड़ों से
सभी को जकड़े रखा था
अपनी भवनाओं से
सभी को पकड़े रखा था

पंछी के पंख होते ही 
जिस समय पूर्ण परिपक्व
उसी पल वो झट से
उसे छोड़ दूर उड़ जाते है

अब वंहा कोई नहीं है
सूखे पत्तों संग वो बिखरा पड़ा है
बहुत कुछ समाया था उस मे
अब वो और तू उसे पूरा खो चुका है

वो पीपल का पेड़  जब से कट चुका है .....

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