Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447061 times)

devbhumi

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वो सर्दी की धूप

हल्की गुनगुनी धूप
गालों  से भिनभिनाती हुई
ना जाने ऐ  सुबह आज
चुपचाप  क्या गाती हुई

ठंडे मौसम की वो गर्माहट
कोपलों से अपना मुख उठाती हुई
कोहरे,बादलों की ओट में छिपी
वो लाली अपनी पसराती हुई

ऐ  सर्दी की धूप
ना जाने क्या राहत पाती हुई
हल्के हल्के सुर्ख होंठों से
अकेले चुप चाप मुस्कुराती हुई

आनंद ही छाया हर ओर
कंबल  को छोड़ बाहर दौड़
सर्दी की धूप बुला रही है तुझे
नया रंग नया रूप दिखा रही  तुझे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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फिर प्रवासी पहाड़ी बदलने लगा है

दिल पहाड़ी मचलने लगा है
लगता है मौसम बदलने लगा है

अपना आकर कहने लगा है
साथ  साथ मेरे चलने लगा है

हाथ हाथों से जुड़ने लगा है
कदम ब कदम  आगे बढ़ने लगा है

सफर पहाड़ी अग्रसर होने लगा है
पहाड़ मेरा सवरने  लगा है

सोयी सोच अब बदलने लगी है
फिर प्रवासी पहाड़ी बदलने लगा है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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तेरी याद थी और तेरी बात थी

कल रात लगातर
ऐ बर्फ पड़ती रही
कभी खुद ठिठुरती रही 
कभी मुझे ठिठरती रही 

चाँद की पेशानी पर बस
एक  दाग लहराता रहा
कभी खुद से छुपता रहा
कभी मुझ से छिप जाता रहा

पिछली रात वो मेरा दर्द को
कराहती  और  उकसाती रही
टिप टिप गिर रहे इन आंसूं को
बर्फ बनाकर  सिमटाती रही

बर्फ की सिल्लियों में बैठकर
मैंने गुजारी वो बीती रात थी
गर्माहट के नाम वहां पर बस
तेरी याद थी और तेरी बात थी

कल रात लगातर
बालकृष्ण डी ध्यानी
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आभासी दुनिया

आभासी दुनिया है सारी
मनोहर बहुत ,बहुत है प्यारी
छद्म का अहसास वो कराती  रहती
कूट और मिठासा की वो मिश्रक है
आभासी दुनिया है सारी

मिलते नहीं  हैं  मगर मिलते हैं  सब
अपना हो या हो यंहा बेगाने का सफर
दृश्यमान सब को  ऐसा होता है
अपने ही रचे जाल में जब हम फंसते है
दूसरों संग हम भी खुद पर हँसते हैं

कृत्रिम भी है वो नकली भी है
बनावटी है वो जो  अपनी बनाई प्रतिरूपी
भ्रामक कभी वो यूँ कर जाती है
अपने को अपने से वो दूर कर जाती है
मायावी अनोखी दुनिया में खो जाती है 

जाली उसकी इस कदर ऐसी फैली है
कंही पर भी हो हम वहाँ खींचे चले जाते हैं
इतना नहीं सोचते हैं हम आपने बारे में
वो जाने कैसे हमारे बारे में इतना सोच जाती है
अपने से इस तरह वो घुल जाती है

आभासी दुनिया है सारी

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरा सारा लिखना बेकार है

मिलते हैं -बिछड़ने के लिये
हँसते हैं -रोने के लिये
सांस लेते हैं -जीने के लिये
देखते हैं -सवरने के लिये
आवज देते हैं -अपनों के लिये
गुस्सा करते हैं -सुधरने के लिये
प्रेम करते हैं -अपना करने  के लिये
मतलब है -तब ही तो तलब है
नहीं तो सब -एक दूसरे से अलग है
आसमान है -तो ही जमीन है
हवा है-तो ही सब रंगीन है
रात है -तो ही तो सजता  दिन
सवेरा है -तो ही दिखता रवि है
अँधेरे से जैसे -जुड़ा उजाला है
माँ ने वैसे ही बच्चे को  पुकार है
शून्य है -तो ज्ञान विहीन है
ज्ञान है -तो सब भिन्न भिन्न है
सात है -तो साथ है
सरगम की बहार है
सुरों की झंकार है
पहाड़ से प्यार है
मैदान  पर सब निहाल है
लिखने को लिख दिया मैंने
पढ़ा नहीं आपने तो
मेरा सारा लिखना बेकार है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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तब ही तुम आना

जब आना
असंभव हो तुम्हारा
तब ही तुम  आना

जब शिशिर हो
ठिठुरती यंहा
तब ही तुम ग्रीष्म
बन यंहा छा  जाना

आकर धीरे-धीरे
साँसों को मेरे
आशाओं को मेरे
मध्यम तुम कर जाना

आना ऐसे
और इस तरह तुम
इन अँखियों में
पूरी तरह ना समा जाना

उस आवेगा को अपने साथ
इस तरह लाना तुम
कई पलों तक मुझे
निश्छल कर जाना

तृप्त फूल सा
जब लहलहा उठूं मैं
मेरे चहुँ ओर आकर
काटों सा घिर जाना

तब ही तुम  आना .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ना जाने क्यों ?

ना जाने क्यों ?
मेरी दुनिया मेरे जज़्बात की
बस अब यही  हकीक़त है
कभी हमने कही थी कभी
बस अब हमने उन से सुनी  है

ना जाने क्यों ?
आज कल  अपने आप से
चुप चाप मैं रहने  लगा 
वक्त गुजर गया  इतना 
मैं अपनों में  खोने लगा

सुना है की दूर रहने से
अपनों में प्यार बढ़ता है
समीप रहते रिश्तों में
क्या वो बेकरार रहता है

ना जाने क्यों ?
दोस्त कम होने लगे
जमावड़ा छटने लगा
अकेले  ना जाने क्यों वो
वो और याद आने लगा

ना जाने क्यों ?
एक एक पल उभरने लगे
कैसे व्याकुल हैं आज वो
अश्रु बन  छलकने लगे
एकांत में आ मिलने लगे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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चलो आज

चलो आज अपना बना लो उसे
नाराज है वो , मिल के हंसा लो  उसे

चेहरों पर किसी के गम दिख जाए तो
खुशी मिल जायेगी अब जता लो  उसे

दिल के पन्ने में कुछ उसने लिख रखा है
उलटे-सीधे ढंग से गुनगुना लो उसे

रोना धोना यूँ चलाता रहेगा उम्रभर
खुलकर रो लो धो लो  लो बता दो उसे

दूरी कम होगी अब साथ देना पड़ेगा
सीखने-सिखाने की कला सीखा दो उसे

दो सांसों में छिपी जो राज की बात  है
आज अच्छी तरह से समझ दो उसे

विस्तरीत में लिखा जो वेदों का सार है
संक्षिप्त में  आ कर  कोई बता दो हमे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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छूकर माँ के चरणो को

हवा कुछ  कह रही  है आज
छूकर माँ के चरणो को
वसंती हवा में बदल रही  है  आज
फूलों और पतंगों में
हवा कुछ  कह रही  है आज

हे माँ सरस्वती मेरी
आज गुंथों लों मै तुझे अक्षरों में
भगवान गणेश्वर संग विराज
अवतरित हो जा
सखी  माँ लक्ष्मी  जी को लिए

हवा कुछ  कह रही  है आज
छूकर माँ के चरणो को

आज का दिन के कुछ अलग है
रंगों  की छटा भी कुछ अलग है
हिर्दय  बन जा  कवि केदार बाबा है
बद्री धाम में ये कविता नतमत हो   

हवा कुछ  कह रही  है आज
छूकर माँ के चरणो को

जिधर जिधर से तू गुजरे आज
शब्द मेरे सारथि बन गुजरे तेरे  साथ
सरसों से नहाए खेत  हो
बौर ओढ़ आम्र तरुओं की शाखाओं  में
शाखायें  फुदक फुदकती  हो  तेरे संग


हवा कुछ  कह रही  है आज
छूकर माँ के चरणो को

खिलखिलाती, फूल-पत्तियों
झकझोरती चली जा  रही हो तुम
ओर-छोर इस धरती के संग
पीतांबरी रंग ले घूमती जा रही हो तुम

हवा कुछ  कह रही  है आज
छूकर माँ के चरणो को
 
हरे-भरे खेतों में ,वन-उपवनों में
सरस्वती पुत्र  के अताह हिर्दय के कोने में
कवि मन ऐसे गोते खाये  आज
जैसे  सात  भवसागर तर जाये वो आज

हवा कुछ  कह रही  है आज
छूकर माँ के चरणो को

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सोचा ना था ?

देख कर
अपनी हालत पर
रोना आ गया

सोचा ना था
कभी मैंने ऐसा होगा
वो हो गया

ना फ़िक्र की
किसी की मैंने
ना जिक्र किया

आज मैं
क्यों कर उनकी
जिक्र  फ़िक्र करने लगा

उजालों की
खतिर मैं यूँ ही  अपनों को
उम्र भर तड़पाता रहा

अब अंधेरों
में मैं ऐसा घिरा
अन्धेरा मुझे तड़पने लगा

सोचा ना था ?

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