Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 446994 times)

devbhumi

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भावनायें

भावनायें
तुझ से ना कुछ कहती है
ना तुझ से कुछ पूछती  है
बस पटल पर उभरती है
अंकुरति मन सा टहलती रहती है
भावनायें बदलती रहती हैं

जी भर के
जी ना पाए  हम इन्हे
बिलकुल इन्हे समझ भी
ना पाए हम
बस बहती रहती है
भावनायें बदलती रहती हैं

रहती नहीं है
एक पल भी वो एक छोर पे
ना ही ठहरती  ना संभल पाती है
इन  आँखों के कोर पे छोर पे
बस वो आगे बढ़ती रहती है 
भावनायें बदलती रहती हैं

संतुलित इन्हे
हम क्यों नहीं  कर पाते है
इनके आवेग में हम बह जाते हैं
अपने आप से ही हम
अब पलयान कर जाते है
भावनायें बदलती रहती हैं

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कुछ शब्द यूँ ही 

कुछ शब्द यूँ ही 
तुम आज मुझे उधार देदो
हल्के फुल्के से ही सही
वो फूलों के हार देदो

सभी दबी भावनाओं को
जो आज मन ने गेंठी है
अहसास उन  पलों का
जो इस मन ने  सहेजी हैं

मासूम एक शब्द सा बस 
बन उतर कर आना तुम
निर्दोष पवित्र उस शब्द सा
हिर्दय विचर जाना तुम

इनके के सहारे मै
अब जिंदगी गुजरा दूंगा
शब्दों .. २  में तुम्हे मै
अब वैसा स्थान दूंगा

कुछ शब्द यूँ ही   .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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पहाड़ी चाय

पहाड़ों में किस्से
हाय  से नहीं
चाय से बनते हैं

मिलते बिछड़ते
रिश्तों के पेंच
चाय संग जब उधड़ते हैं

दर्द उभरता है कभी
अपना मिलता है कभी
चुस्की संग टहलता है कभी

चढ़ती उतरती
उसकी गर्मी संग जब
बरसों ठहरी बर्फ पिघलती है

मौसम सुहान होता है
तो दिन सुहाना हो जाता है
तब चाय मिले तो पहाड़ी दीवना हो जाता है 

पहाड़ों में किस्से  .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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थोड़े रंग लाया हूँ मैं  पहाड़ से

थोड़े रंग लाया हूँ मैं  पहाड़ से
मुझे मलने दो गलों पर तुम्हारे
तुम मुझे आज बड़े प्यार से
थोड़े रंग लाया हूँ मैं पहाड़ से  .....

थोड़े फूल हैं थोड़े गुलाल  हैं 
इस में मिला मेरा पहाड़ी प्यार है
पहाड़  छोड़ा आया हूँ तुम से मिलने
अपनों को आज एक एक कर गिनने
थोड़े रंग लाया हूँ मैं पहाड़ से  .....

बिखेर दूंगा सारा उल्ल्हास  मैं
अब तुम्हारे इस नीरस संसार में
आनंद को कह दूंगा आज मैं
आ जाओ तुमसे मिलने पहाड़ से
थोड़े रंग लाया हूँ मैं पहाड़ से  .....

आती तो होगी याद  तुम्हे मेरी
तुम्हारे जीवन के इस सुख दुःख में
अँखियाँ भीग जाती तो होगी तुम्हारी
त्योहारों के इस मौसम बाहर में
थोड़े रंग लाया हूँ मैं पहाड़ से  .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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पलछिन

ना पैसे लगते है ना आशियाने लगते हैं
फुकट के सपने वो कितने सुहाने लगते हैं

भिगोती  नहीं जब तक हमे पसीनों से बुँदे
तकल्लुफ के सारे किस्से फ़साने लगते हैं

आ जाती नासमझ को भी तब समझदारी
जब ठोकरें उन राहों के अच्छे..२ लगते है 

शहरों पर पहुंचना एक ही लक्ष्य हो जो मेरा
हसीन पहाड़ों में रहते थे अब बंजारे लगते हैं

फिजूल है मेरा अपनों को दररोज यूँ मनाना
पढ़कर भी मुझे अपने से मुझे किनारा करते हैं

समंदर की एक बूंद हों अब खारे पानी की तरह
कभी हम भी मीठे मीठे बूंदों के किनारे रहते थे

पलछिन मोड़े पन्नों के भीतर कि सरसरहाट है
जैसे मुझ में वो आज है शायद  तेरे भी पास है...

बालकृष्ण डी ध्यानी
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रंज होता है

रंज होता है मुझे तब
अश्कों तुम्हे यूँ खोने से
बूंद बूंद तुझे यूँ  रोने से

फूल खिलते हैं
बिछड़ते  हैं  मुरझा जाते हैं
काटों लहलहाकार
तुम  क्या पाते  हो

देखते हैं अपने से ही
अपने तबाही का मंजर होते हुये
रंज होता है मुझे तब

ताकत हूँ आसमा हूँ
जमीन हूँ मैं
बता दे खुद से ही
अपने से कितने करीब हूँ मैं

अस्क मेरा रूठने
छूटने  और टूटने जब लगा
रंज होता है मुझे तब

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरी बातें

मेरी बातें
मेरे साथ गई
साथ रहकर  भी वो
कभी मेरे पास ना  रही
मेरी बातें  ,मेरी ...... बातें  .... २

फिर उठ रही  है वो आवाज
आज दिल के द्वार से
फिर जगा दो वो अहसास
सिर्फ एक पुकार से
मेरी बातें  ,मेरी ...... बातें   .... २

दूर पगडंडियाँ को  देखा
आकर  वो हाथों में फ़ैल गयी
कुछ गीली थी वो
जली और वो चुभ गयी
मेरी बातें  ,मेरी ...... बातें   .... २

रुक  कर आयी
नज़र डाली बोझल हुई
एहसास  जागे और
कसक भरी और वो खामोश हुई
मेरी बातें  ,मेरी ...... बातें   .... २

पीछे मुड़ कर देखा
सर हिला दिया उसने
गर्दन झुकी
कुछ बुँदे गिरी और अलविदा कर गई
मेरी बातें  ,मेरी ...... बातें   .... २

बालकृष्ण डी ध्यानी
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जिज्ञासा

बहुत दिनों से
वो दबी हुई थी
धूल उस पर
चढ़ी हुई थी

बेचैन थी
वो  दिल  धड़कन
ना जाने किसके लिए
वो  धड़क रही थी

अँधेरा था
उजाला ढूंढ  रहा था
दरवाजे के दाहिने हाथ
एक किवाड़ लगा था

अनगिनत शब्द
उभरे उस पल में
झुके शीश देख
विहल गये क्षण में

यादों मेरी तुम   
आया ना करो
संकोच है वर्षा
भिगोया ना करो

बहुत दिनों से  .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कौन सा आसमान ढूंढ़ रहा हूँ

ढूंढ़ता फिर रहा हूँ
आज भी मै अकेले
अपने को इन पहाड़ों में

ढूंढ़ता फिर रहा हूँ
आज भी लेकर उन्हें
इन नजारों में

ऐ पत्थर यंहा के
मुझ से कुछ कह रहे हैं 
इतने समय बाद भी
मुझे जान पहचान रहे हैं 

व्यर्थ  यूँ  ही भटकता
मैं  फिर रहा था
ना जाने अकेले में
मैं किसे ढूंढ़  रहा हूँ

देखो यादों के सपने 
मेरे यूँ  सो ना जायें
देखो राहों में चलते चलते
यूँ  वो मुझ से खो  ना जाए

बाँध उनको चला हूँ
साथ उनको ले  उड़ चला हूँ
रुला कर कितनी आंखें 
कौन सा आसमान ढूंढ़ रहा हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो

आज फुर्सत  से वो
मुझे मिल रही है
आनंद साथ लिये
वो द्वार खोल रही है

मैं सड़क के किनारे
चला जा रहा था
दूर मुझसे खड़ी वो
वो मुझे बुला रही थी

महसूस हो रहा है
घर से कितना दूर हूँ
जिस को घर समझा
वो अब झुलसा रहा है

ध्वनि पावस की
अब खूब ललचा रही थी
मुझ से मुझको दूर कर
वो पास  आ  रही है

वैसे तो आज कल
मोबाइलों  का  दौर है
पर अब भी लैंडलाइन में
वो घंटी बजाई जा रही थी

आज फुर्सत  से वो

बालकृष्ण डी ध्यानी
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