Jai Prakash Dangwal
मेरी कलम से:-
तरस नहीं आता है अपने बुने गम के जाल में घुट घुट कर जीने वालों पर,
इस तरह अपनी नायाब शख़्शियत को चंद गम के लह्मो में खोने वालों पर.
तुमको, चह्चहाते और गुनगुनाते देखा था मैंने कभी, ग़मों को ठुकरा कर,
एक मुस्कान देखी थी तेरे चेहरे पर अपने सभी मसलों को धुँए में उड़ा कर.
अरे कौन कहता है तुझसे कि मुझे पहचान कर, मुझ पर एक एहसान कर,
इतनी इल्तजा है तुझसे कि अपनी हसीं सख्सियत को न यों गुमनाम कर.
एक बार, बस एक बार, अपने ग़मों के, बुने जाल को जरा तू देख् तोड़ कर,
तेरी हसीं शख्सियत खड़ी है बाहर, तुझे गले लगाने, अपनी बाहें फैला कर.