समाज यह जानकर भी बन गया अन्जान,
क्योंकि एड्स रोगी को अपना कहने में घटती इनकी शान,
हो जाती है जिसे यह बीमारी,
जीवन हो जाता उसका भारी,
जीने नहीं देता उसे समाज,
ताकि स्वयं पर ना आये कोई आंच,
समाज द्वारा होता उसका बहिष्कार,
क्या यही है, उसका अधिकार,
जो थे कल तक उसके अपने,
आज बन गए है ओ सपने,
ना रही उसमें जीने की अभिलाषा,
देख समय की यह परिभाषा,
मैं पूछती हूँ तुमसे ! क्या बिगाड़ा उन्होंने तुम्हारा ?
जो बन ना सके तुम उनका सहारा,
क्यों बना दिया उनको बेजान,
थी कल तक जिनमें जान,
थे कल तक भी कुछ अरमान,
हम लोगो ने दिया ना कोई सम्मान,
राह चलते जो देख उनको,
फेर लेते निगाहों को,
समय-समय पर किया उनका तिरस्कार,
जिनको था जीने का अधिकार,
क्यों ना समझे हम इसका अर्थ,
जीवन किया रोगी का व्यर्थ,
यह नहीं छुवाछूत की बीमारी,
फिर क्यों इससे घृणा हमारी,
आओ सब मिलकर करते है प्रण,
देंगे सहयोग और समर्पण,
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