बचपन
मीठी हंसी की प्यारी पाठशाला,
पल पल दोस्तों से लड़ जाना,
छुट्टी हो जो दौड़ लगाकर,
सबसे आगे घर को जाना,
माँ लोरियों से कुछ कहती,
दादी सुनाती कविता अति प्यारी,
कभी बाघ शेर की लड़ाई,
कभी कुत्ते बिल्ली की यारी,
ओ बाबूजी का डांट लगाकर,
वही माँ का फिर से मानना,
वही बहन का दद्दा कहकर,
गुस्से को मुझसे दूर भगाना,
वही बस्ते के बोझ तले जो,
दबकर तन थक जाता था,
कभी नहीं जाऊंगा स्कूल,
बार बार मन में आता था,
पढने की ना अहमियत को समझा,
ये सब बचपन की नादानी थी,
खेल कुंद ही प्यारा था तब,
साथियों की टोली अज्ञानी थी,
छोटी छोटी बातों पर भी,
ओ आँखों का भर जाना,
प्यारी भोली आँखों पर से,
बहता मोतियों का खजाना,
कितना मासूम ओ बचपन,
कैसे भूलूँ सुहाने को,
लिखते सोचते ऑंखें भर आयी,
फिर वही मोती छलकाने को.
रचना दीपक पनेरू
दिनाक १७-०८-२०१०
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