हम शायद नहीं जानते पहाड़ी होने का अर्थ
और ना ही समझते है, पर्वतों की जीवटता,
उनकी उथल पुथल, और उनका संघर्ष उनकी सहनशीलता
हमें नहीं पता की पहाड़ों का बनना क्या होता है ,
इसीलिए तो नहीं समझ पाते की कैसे पर्वत जन्म देता है खुद को ,
कैसे रोज ऊंचा होता जाता है ,
सागरमाथा की तरह , कंचनजंघा की तरह
नंदा देवी या त्रिशूल की तरह
कैसे अपने मे जन्म देता है खूबसूरत घाटियों को
और सदाबहार नदियों को ,
चीड, देवदार, बांज और बुरांश को
ना ही समझ पाते है उस अपार सम्पंदा के मिलने के महत्व को
अगर हम ये सब समझते तो शायद
विकास के नाम पर
उसको तोड़ने की, लूटने की जिद नहीं होती
ना ही हम पलायन करते
क्यूंकि पहाड़ की प्रकृति को समझना और आत्मसात करना ही
पहाड़ को बचाने और बसाने की शुरुवात है !
इसीलिए हम कुमाउनी गढ़वाली तो है
हम किसी गाँव के भट्ट है जोशी है पाण्डेय है ,
सेमवाल है , नौटियाल है , डिमरी है ,
राणा है , रावत है , नेगी है ,
पर शायद पहाड़ी नहीं है !
इसीलिए हम ज्यादा सुखद महसूस करते है , हल्द्वानी , देहरादून , या दिल्ली मे
और लुड़क पड़ते है उस ओर
ना ही हम समझते है उस संस्कृति का मतलब,
ना ही उसकी जीवन्तता को
जो उन पहाड़ों और घाटियों के संघर्ष से पैदा हुई है
इसीलिए तो दिल्ली, देहरादून, या हल्द्वानी की किसी कालोनी मे
थोडा शराब पीकर
थोडा बहुत झोडा, छोलिया नाच कर
और अपने सांसदों, नेताओं, और ठेकेदारों का अभिनन्दन कर खुश हो लेते है
हम खुश हो जाते २ या ३ मिनट का पहाड़ी नाच गाने का जिक्र टीवी चनेलों मे देखकर
और कभी कभी अपनी पहचान को दुरुस्त करने के लिए
अपने गाँव भी घूमकर आ जाते है, कुलदेवी के दर्शन कर आते है
और जरूरत पड़ी तो जागर लगा लेते है !
और वापस लौटते समय सरकार, विकास और अभावों का रोना रो लेते है
और फटाफट दिल्ली, देहरादून की बस मे चढ़ जाते है !
ना हम समझते है विकास का मतलब इसीलिए
हम गरियाते है उन् लोगों को जो गैरसैण राजधानी की बात करते है !
और हँसते है उनकी नासमझी पर , और समझाते है उनको देहरादून मे राजधानी फायदे
दुरुस्त करने की कोशिश करते है उसकी विकास के प्रति समझ को
और उसी तथाकथित विकास के लिए
हम बेच रहे है अपनी नदियाँ , अपने पहाड़ , अपने जंगल
और रोज रोज अपने ब्लॉग पर, या फोरम पर
दैनिक जागरण, या कभी कभी इकोनोमिक्स टाइमस
मे बाँध बनाने या जमीन बिकने की छपी खबर को डाल देते हैं
और खुश हो लेते हैं की पहाड़ भी अब जल्दी ही दिल्ली या देहरादून बन जायेगा
इसीलिए विकास की बात करने से पहले
हमको समझना होगा,
पहाड़ की जटिलता को, उसकी सरलता को
उसकी संवेदनशीलता को, उसकी नित नूतनता को
उसके जनजीवन को, उसकी संस्कृति को
उसकी बिना मांगे दी हुए बहुमूल्य सम्पदा के महत्व को!
तभी हम पकड़ पाएंगे उस सम्यक बिंदु को
जो विकास और विनाश के बीच की सूक्ष्म रेखा बनाता है !