Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 76210 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शैलेश जी ने बहुत अच्छी कविता प्रसुत है है यहाँ पर, पहाड़ के विकास को नहीं पहाड़ को समझने के लिए !

  होल विकास, आज नै तो भोल होल
  विकास क चोर जाल,
  विकास क उजाव होल!
   
   को समझल, को समझाल
   पहाड़ क  विकास क हाल
    को तो समझल
    को तो समझाल
    यो विकास क हाल !

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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wah wah Shailesh kya khub , shayad isi ko kavita kahate hai..... aapaki kavitayan & aapke vichar pahad ki tarah hi unche hain.

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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शायद हम पत्थर हो गए,
पहाड़ से लुड्काना हमारी विवशता हो गयी,
यहाँ गुरुत्वाकर्षण नहीं आकर्षण है
हमने पहाड़ की जटिलता को नहीं
 मैदान की सरलता को अपना लिया है
हमने परिश्रम नहीं उपदेश दिया है
गगनचुम्बी इरादों को कोम्पुटर में कैद किया है
हमने विकाश की बात कही है
अब विकाश करना होगा
पहाड़ पर सीडी लगाना होगा
हर सीडी पर पाँव जमाना होगा
गुजरना होगा झितालू की झाड़ी से
कूजे और घिंगारू   के  काटों से
लांघना होगा कंचन जंगा, काली गंगा को
पहुचना होगा पहाड़ की चोटी पर
अनुभव करना होगा पहाड़ के परिश्रम को
तभी विकाश संभव होगा

Rawat_72

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अगर हम ये सब समझते तो शायद
विकास के नाम पर
उसको तोड़ने की,  लूटने की जिद नहीं होती
ना ही हम पलायन करते
क्यूंकि पहाड़ की प्रकृति को समझना और आत्मसात करना  ही
पहाड़ को बचाने और बसाने की शुरुवात है !



इसीलिए विकास की बात करने से पहले
हमको समझना होगा,
पहाड़ की जटिलता को, उसकी सरलता को
उसकी संवेदनशीलता को, उसकी नित नूतनता को
उसके जनजीवन को, उसकी संस्कृति को 
उसकी बिना मांगे दी हुए बहुमूल्य सम्पदा के  महत्व को!
तभी हम पकड़ पाएंगे उस सम्यक बिंदु को
जो विकास और विनाश के बीच की सूक्ष्म रेखा  बनाता है !


Simply Great ! Hope poet Chief Miniter of Uttarakhand read this and do some introspection on the present state of Uttarakhand.

पंकज सिंह महर

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शैलू का उत्तराखण्ड के प्रति नजरिया और जज्बा इन कविताओं से ही झलकता है। कई बार मूजे लगता है, ऐसे विजन वाले आदमी को उत्तराखण्ड के सदन मं होना चाहिये।

हुक्का बू

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इन कविताओं में जो दर्द है, जो दूर दृष्टि है, वह काश उत्तराखण्ड के नीति नियंताओं में होती, जो सदन में ए०सी० की ठंडक में ऊंघते नजर आते है। पहाड़ से दूर आप जैसे प्रवासियों के विचार कविताओं से माध्यम से फोरम में प्रदर्शित होते हैं तो लगता है कि आप जैसे लोग उत्तराखण्ड विधान सभा के सदन में होने चाहिए, जैसा कि महर नाती ने भी कहा है।
यहां सदन में ऊंघते, अलसाये, खाली फर्ज अदायगी करने वाले विधायको को देख मेरा दिमाग खराब होता है।
जहां नथ है, वहां नाक नहीं और जहां नाक है, वहां नथ नहीं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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New Subject :  Poem on Uttarakhand

उत्तराखंड हिमालय पर यह कविता
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यह भारत का मुकुट है !
यहाँ देवताओ का वास है !!
यहाँ गंगा श्रोत है !
ये हमारा प्रदेश है ! !
 
यह भारत का मुकुट है ! ..
 यह भारत का मुकुट है ! .. .............

यहाँ नंदा का मायका है!
यहाँ शिवजी है ससुराल है !!
यह ही तपो भूमि है !
यहाँ रहा पांडवो का वनवास है!

यह भारत का मुकुट है ! ..
 यह भारत का मुकुट है ! .. .............

यही समुद्र को मथा गया!
सीता माता यही धरती में समायी थी!
यहाँ बद्री यही केदार है!
यही गंगोत्री यही यमनोत्री है !

 
यह भारत का मुकुट है ! ..
 यह भारत का मुकुट है ! .. .............

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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भारत की नानी चेली, सिराना मैं बैठी छू,
भली बाना भली वाणी देखिने की भली छू,
पुन्यु जैसी जुना जैसी सुकिली मुखडी छू,
सुकिली छू दांत पट्टी मुनई सुकिली छू,

द्वी खुटा( कूमाओं & गढ़वाल) मैं ठाड़ है रै दुनिया देखिने छू,
काफला किलीपी और बुरंशी धमेली छू
नैनी भीमताल आंख नंदादेवी नाख छू
हाथ फैलाई रयी अश्कोटा-आराकोटा छू

हरी -हरी आन्गाड़ी छू घाघरी हरिया छू
स्वर्ग की पारी जैसी धरती धरिया छू
तुप्कैली साडी और रंगाई पिछोड़ी छू,
देबभूमि देवता मैं जैसी देवी मैय्या छू,
xx        xx         xx          xx
रिशाई रै, दुखी है रै मन मैं झुरिया छू
१० साल हई हैगिन जस की तस छू
सब कुछ पाल मैं छू फिर लै विवश छू

ताकि -ताकि देखि रै छ मन मैं सोचन छू
बंज रै गिन गाड़ा - भीड़ा मकानों मैं टला छू
खाली-खाली भितेरा छिन, भकारों मैं मूसा छिन
बटा-ग्वेहट नि छ, न घोठा डंगर छि 
आपुन मुलुक आज आपुहों विराना  छू
कैक मुख चानों कुनै सब तो बिमुखी छिन
प्रजा लै विमुखी और रजा लै बिमुखी छिन

सुडा -सुडी धात लगें आओ मेरा ननों कुनै
घर आओ बबा मेरा मिकुनी समाओ कुनै
द्वारा-महवा खोलो घर कैन बसाओ कुनै
आपण हुनर ईजा आपुहैं दिखाओ कुनै

हरी-भाई देवभूमि जाड नि सुकाओ कुनै
वीर सुता पहाड़ों का पहाड़ों मई आओ कुनै
परदेश नि जाओ आपु देश कैन समाओ कुनै
हिमाला बचाओ और हिमाला बसाओ कुनै

jagmohan singh jayara

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"पहाड़ की संस्कृति"

दिखावा की रैगि,
बद्लिगी सब्बि धाणि,
अर छूटिगी छट,
मछोई का हाथन जन,
माछी की तरौं,
कुजाणि कथैं छ,
बग्दु जाणी.


जै मुल्क का मन्खी,
छोड़ि  देन्दा छन,
अपणी संस्कृति,
अर रौ रिवाज,
ऊधार ली लेन्दा छन,
बिराणि संस्कृति,
जन होन्दि  छ,
शरील मा खाज.

सोचा! क्या यू सच छ,
नितर लेवा संकल्प,
अपणि संस्कृति का,
संचार का खातिर,
अपणा मन मा,
किलैकि हम ढुंगा निछौं,
वन्त  ढुंगा पहाड़ का,
हमसी भला छन,
ऊँकू मन नि बदली,
हमारी तरौं.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २७.३.२०१०)
(पहाड़ी मन मेरा...नहीं बदला....आज भी)[/color
]

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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          "हामौर उत्तराखण्ड"
पहाडा़ धरती छ मेरी, जनमा भुमी।
नी लागन मन कथै, देश विदेश घुमी।

कुदरती देन याकी, कतु जडा़ बुटी।
आंकाशमा चुमी रई, युं हिमालया चोटी।

कतु भाल लागनी बणुमा, गोरु,बाछ,बकरा।
स्यारां फना बल्दुका, बाजनी निवारा।

सिणी जसा खेत यांका, क्यारी जसा स्यारा।
छल-छल बगण लैरी, यो गाड गध्यारा।

रंगीला स्यैणीया मैसा, य मुलुका नाना।
हिसालु काफल दाणीम, बेडु रना मना।

कतु भला मिठ हुनी, घ्वाग यु ककाडा।
मडुवे की रोटी खांछी, साग पिनाऊ दगडा।
       
          "कवि परिचय"

फूल फली रई डावा, रई झमा झुमी।
दियालेख गौ छ म्यर, डांक बंग्याला मुणी।

स्वरचित "म्यर पहाड़"

सुन्दर सिंह नेगी 30-03-2010

 

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